ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 3
ऋषिः - वम्रो वैखानसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स वाजं॒ याताप॑दुष्पदा॒ यन्त्स्व॑र्षाता॒ परि॑ षदत्सनि॒ष्यन् । अ॒न॒र्वा यच्छ॒तदु॑रस्य॒ वेदो॒ घ्नञ्छि॒श्नदे॑वाँ अ॒भि वर्प॑सा॒ भूत् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । वाज॑म् । याता॑ । अप॑दुःऽपदा । यन् । स्वः॑ऽसाता । परि॑ । स॒द॒त् । स॒नि॒ष्यन् । अ॒न॒र्वा । यत् । श॒तऽदु॑रस्य । वेदः॑ । घ्नन् । शि॒श्नऽदे॑वान् । अ॒भि । वर्प॑सा । भूत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स वाजं यातापदुष्पदा यन्त्स्वर्षाता परि षदत्सनिष्यन् । अनर्वा यच्छतदुरस्य वेदो घ्नञ्छिश्नदेवाँ अभि वर्पसा भूत् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । वाजम् । याता । अपदुःऽपदा । यन् । स्वःऽसाता । परि । सदत् । सनिष्यन् । अनर्वा । यत् । शतऽदुरस्य । वेदः । घ्नन् । शिश्नऽदेवान् । अभि । वर्पसा । भूत् ॥ १०.९९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः) वह (वाजम्) अमृतान्नभोग को (याता) प्राप्त करानेवाला (अपदुष्पदा यन्) यथार्थ ज्ञानस्वरूप पाद से-प्रापण शक्ति से सब जगत् के प्रति जाता हुआ-पहुँचता हुआ (स्वर्षाता) सुख का विभाजक (सनिष्यन्) कर्मफलों को भोग कराता हुआ (परिषदत्) सब ओर प्राप्त होता है (अनर्वा) अनाश्रित-स्वाधार (यत्) जिस (शतदुरस्य) बहुदोष छिद्रोंवाले के (वेदः) वेदनीय-धन को सर्वस्व को (घ्नन्) नष्ट करता हुआ (शिश्नदेवान्) गुप्तेन्द्रिय से खेलनेवाले व्यभिचारी जनों को-दुराचारियों को (वर्पसा-अभिभूत्) स्वरूप से-स्वात्मबल से अभिभूत करता है-दण्डित करता है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा उपासक को अमृतान्नभोग कराता है, दुष्टों के धन का हरण करता है, व्यभिचारियों चरित्रहीनों को दण्ड देता है, इस प्रकार कर्मफलों को भुगाता है, सारे संसार में व्यापक होकर स्वाधार वर्त्तमान है ॥३॥
विषय
सन्मार्ग का आक्रमण
पदार्थ
[१] (सः) = वह गत मन्त्र का उपासक (अप-दुष्पदा) = दुष्टाचार से रहित [अप] पुण्यमार्ग से (यन्) = गति करता हुआ (वाजं याता) = शक्ति को प्राप्त करता है । स्वर्षाता प्रकाश की प्राप्ति के निमित्त (सनिष्यन्) = संभजन करता हुआ (परिषदत्) = आसीन होता है। यह प्रभु-भजन उसके हृदय को प्रकाश प्राप्त कराता है । [२] (अनर्वा) = वासनाओं से हिंसित न होता हुआ (यत्) = जब यह (शतदुरस्य) = सैंकड़ों द्वारोंवाले इस असुर सम्राट् 'वृत्र' के (वेदः) = धन व ऐश्वर्य को (घ्नन्) = नष्ट करता है तो (शिश्नदेवान्) = अ-ब्रह्मचर्य से चलनेवालों को (वर्पसा अभिभूत्) = [आवरकेण बलेन] अभिभूत कर लेनेवाले बल से पराजित करता है । जितेन्द्रिय अजितेन्द्रियों को पराजित करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - सन्मार्ग से चलते हुए हम शक्तिशाली बनें ।
विषय
सदाचारी पुरुष को प्रतिष्ठा लाभ।
भावार्थ
(सः वाजं याता) वह महान् ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। वह (अप-दुः-पदा) दुःख-संवेदना से रहित, सुखमय वा दुष्टाचार से रहित पुण्य मार्ग से (यन्) जाता हुआ (स्वः-साता) सुख लाभ के निमित्त (परि सदत्) सर्वत्र विराजता या आगे बढ़ता है। और (यत्) जो (अनर्वा) अहिंसक होकर (शत-दुरस्य वेदः) सैकड़ों द्वारों वाले प्रभु के वेद्य, ऐश्वर्य या ज्ञान को (सनिष्यन्) सेवन करना चाहता हुआ (वर्चसा) अपने बल से (शिश्न-देवान्) मूल इन्द्रिय सम्बन्धी कामनायुक्त भावों को (घ्नन) विनष्ट करता हुआ (अभि भूत्) सामर्थ्यवान् हो। मनुष्य सदाचार से चले, सुख के लिये निष्ठा से रहे। अहिंसक होकर शतद्वार अथवा शत वर्ष अवधि तक जीने वाले देह के परम सुख ब्रह्मचर्य पूर्वक प्राप्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः-वाजं याता) सोऽमृतान्नभोगं प्रापयिता “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै० ३।१९२] (अपदुष्पदा यन्) यथार्थज्ञानस्वरूपेण पादेन सर्वं जगत्प्रति गच्छन् सन् (स्वर्षाता) सुखस्य विभाजकः “स्वर्षाता सुखानां विभाजकः” [ऋ० ६।१७।८ दयानन्दः] (सनिष्यन्) कर्मफलानि सम्भाजयन् (परि सदत्) परिषीदति परितः प्राप्नोति (अनर्वा) अनाश्रितः (यत्) खलु (शतदुरस्य वेदः-घ्नन्) बहुदोषछिद्रस्य वेदनीयं-धनं सर्वस्वं नाशयन् (शिश्नदेवान्-वर्पसा-अभिभूत्) शिश्नेन उपस्थेन्द्रियेण ये दीप्यन्ति-क्रीडन्ति तान्-व्यभिचारिणश्दुश्चरितान्, “शिश्नदेवा अब्रह्मचर्या” [निरु० ४।२०] स्वरूपेण स्वात्मबलेनाभि-भवति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
He goes on with the dynamics of existence by straight unfailing paths of law and rectitude, giving showers of joy, presiding over it all, keen to share it with one and all, irresistible and unhurting, opening a hundred doors of possibility for wealth and excellence, and subduing the demons of lust and impiety with force, the one supreme ruling power.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपासकाला अमृतान्नभोग करवितो. दुष्टांच्या धनाचे हरण करवितो. व्यभिचारी चरित्रहीनांना दंड देतो. या प्रकारे कर्मफलांना भोगवितो. सर्व संसारात व्यापक बनून स्वाधार वर्तमान आहे. ॥३॥
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