ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 99/ मन्त्र 4
ऋषिः - वम्रो वैखानसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स य॒ह्व्यो॒३॒॑ऽवनी॒र्गोष्वर्वा जु॑होति प्रध॒न्या॑सु॒ सस्रि॑: । अ॒पादो॒ यत्र॒ युज्या॑सोऽर॒था द्रो॒ण्य॑श्वास॒ ईर॑ते घृ॒तं वाः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । य॒ह्व्यः॑ । अ॒वनीः॑ । गोषु॑ । अर्वा॑ । आ । जु॒हो॒ति॒ । प्र॒ऽध॒न्या॑सु । सस्रिः॑ । अ॒पादः॑ । यत्र॑ । युज्या॑सः । अ॒र॒थाः । द्रो॒णिऽअ॑श्वासः । ईर॑ते । घृ॒तम् । वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स यह्व्यो३ऽवनीर्गोष्वर्वा जुहोति प्रधन्यासु सस्रि: । अपादो यत्र युज्यासोऽरथा द्रोण्यश्वास ईरते घृतं वाः ॥
स्वर रहित पद पाठसः । यह्व्यः । अवनीः । गोषु । अर्वा । आ । जुहोति । प्रऽधन्यासु । सस्रिः । अपादः । यत्र । युज्यासः । अरथाः । द्रोणिऽअश्वासः । ईरते । घृतम् । वाः ॥ १०.९९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 99; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः) वह (अर्वा) सर्वत्र प्रगतिकर्ता (यह्व्यः) बहुत प्रकार की (अवनीः) अन्तःस्थलियों वासनाओं को (गोषु) स्तुतिवाणियों में (जुहोति) डालता है (प्रधन्यासु) प्रकृष्ट मोक्षधन प्राप्त किया जाता है जिसके द्वारा, उन उपासनाओं में (सस्रिः) शयन करनेवाला रमण करनेवाला (यत्र) जिस परमात्मा में (अपादः) पादरहित-कर्मेन्द्रियव्यवहाररहित (अरथाः) विषयों में रमण करनेवाली इन्द्रियवृत्तियों से रहित (द्रोण्यश्वासः) अन्तःकरण-वृत्तियाँ व्यापनेवाली जिनकी हैं, वे उपासक (वाः) वरणीय (घृतम्) ब्रह्मतेजरस को (ईरते) प्राप्त करते हैं ॥४॥
भावार्थ
उपासक आत्मा अनेक आन्तरिक वासनाओं को परमात्मा की स्तुतियों में विलीन कर देता है और जिनसे प्रकृष्ट मोक्षधन प्राप्त होता है, उन उपासनाओं के अन्दर रमण करनेवाला हो जाता है। वह परमात्मा का सच्चा उपासक, जो परमात्मा के ध्यान में कर्मेन्द्रियों के व्यवहारों से रहित विषयों में जानेवाली ज्ञानेन्द्रियों की वृत्तियों से रहित होकर व्यापनेवाली अन्तःकरणवृत्तियों में अन्तर्मुख उपासक वरणीय ब्रह्म तेज को प्राप्त करते हैं ॥४॥
विषय
दीप्ति व दिव्य पदार्थों की ओर
पदार्थ
[१] (सः) = वह (गोषु अर्वा) = ज्ञान की वाणियों में गति करनेवाला (यह्वयः) = [महती: ] अत्यन्त महत्त्वपूर्ण (अवनी) = रक्षा के साधनभूत [ आपः सा० ] रेतःकणों को [आपः - रेतः = वीर्यम्] (आजुहोति) = अपनी ज्ञानाग्नि में आहुत करता है। इन रेतः कणों के रक्षण से ही बुद्धि सूक्ष्म होती है और सूक्ष्मता के अनुपात में ही यह बुद्धि तत्त्वदर्शन करनेवाली होती है । [२] इन रेतःकणों को अपने अन्दर सुरक्षित करके यह व्यक्ति (प्रधन्यासु) = अपने जीवन को प्रकृष्ट धन्यता प्राप्त करानेवाली क्रियाओं में (सस्त्रिः) = निरन्तर गतिशील होता है । (यत्र) = जिन क्रियाओं में (द्रोण्यश्वासः) = [द्रुत व्यापना: सा० ] द्रुत गति से व्याप्त होनेवाले ये इन्द्रियाश्व (अपादः) = बिना पाँवोंवाले होते हुए भी (अरथाः) = रथ से रहित होते हुए भी (युज्यासः) = अपने-अपने कार्यों में उत्तमता से लगे हुए (घृतम्) = ज्ञानदीप्ति तथा (वा:) = वरणीय पदार्थों के प्रति ईरते-गतिवाले होते हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्त कराती हैं, तो कर्मेन्द्रियाँ उत्कृष्ट यज्ञादि कर्मों में लगकर स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करानेवाली बनती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम महत्त्वपूर्ण सोमरूप जलों को शरीर में ही सुरक्षित करके दीप्ति व दिव्य पदार्थों को प्राप्त करनेवाले बनें ।
विषय
सूर्य के तुल्य और आत्मा और ईश्वर के कार्यों का वर्णन।
भावार्थ
(सः अर्वा) सूर्य जिस प्रकार (प्रधन्यासु गोषु यह्वयः अवनीः आजुहोति) उत्तम धान्य योग्य भूमियों में बहुत २ जलधाराओं और रश्मियों को प्रदान करता है। उन भूमियों में (अपादः) पाद रहित, (अरथाः) रथादि से रहित (युज्यासः द्रोणि-अश्वासः) वेगवान् व्यापक गुणों वाले वायुगण (वाः उदकम्) उत्तम जल (ईरते) प्रदान करते हैं। उसी प्रकार (अर्वा) देह से देहान्तर में जाने वाला आत्मा (प्रधन्यासु गोषु) उत्तम ऐश्वर्य-विभूति से सम्पन्न इन (गोषु) गमन योग्य, पार्थिव देह-भूमियों में (यह्व्यः अवनीः) बड़ी २ पालनकारिणी शक्तियों या अन्न जलादि साधनों की आहुति करता है। इन देहभूमियों में (अपादः) स्वयं ज्ञानरहित (अरथाः) वेग रहित (युज्यासः) अश्वों के समान देह में लगे हुए (द्रोणि-अश्वासः) द्रुत गति से भागने वाले इन्द्रियगण (घृतम् वाः ईरते) ज्ञानप्रकाशक, वरणीय पदार्थ के प्रति गमन करते हैं। इसी प्रकार प्रभु परमेश्वर समस्त लोकों और प्रजाओं में अपनी (यह्व्यः अवनीः) बड़ी २ पालक शक्तियों को प्रदान करता है। सूर्यादि पिण्ड पाद से रहित रथादि या नाना साधनों से रहित भी वेग से जाते हुए (घृतं वाः ईरते) प्रकाश और जल प्रदान करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वम्रो वैखानसः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ९, १२ त्रिष्टुप्। ३, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४ आसुरी स्वराडार्ची निचृत् त्रिष्टुप्। ८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः-अर्वा यह्व्यः-अवनीः-गोषु जुहोति) सोऽप्रत्यृतः सर्वत्र प्रगतिकर्ता बहुविधाः-अन्तस्थलीर्वासनाः स्तुतिवाक्षु क्षिपति (प्रधन्यासु सस्रिः) प्रकृष्टधनं मोक्षधनं प्राप्यते याभिस्तासूपासनासु शयनशीलो भवति “षस स्वप्ने” [अदादि०] ततः क्रिन् प्रत्ययो बाहुलकादौणादिकः (यत्र) यस्मिन् परमात्मनि (अपादः-अरथाः-द्रोण्यश्वासः) पादरहिता कर्मेन्द्रियव्यवहाररहिता-विषयेषु रमणं ज्ञानेन्द्रियवृत्तिरहिताः द्रोण्योऽन्तःकरणवृत्तयो व्यापिन्यो येषां ते-उपासकाः (वाः-घृतम्-ईरते) वरणीयं ब्रह्मतेजो रसं प्राप्नुवन्ति ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That mighty Indra, moving, flowing and advancing, showers torrents of rain over fertile lands where fast and deep streams, cooperative friends of Indra, receive and make the precious waters move of themselves by gravity, without external aids such as legs and chariots.$(In the third and fourth mantras, Indra may be interpreted as human soul in the context of yoga meditation and control over mind and senses. In this context, the flow would mean the flow of consciousness. In the physical sense Indra may be interpreted as Vayu, the catalytic electric energy that breaks the clouds of vapour into showers of rain. Indra as the supreme cosmic power that rules and sustains the world of existence, of course, is obvious throughout the hymn.)
मराठी (1)
भावार्थ
उपासक आत्मा अनेक आंतरिक वासनांना परमात्म्याच्या स्तुतीमध्ये विलीन करतो, ज्यामुळे प्रकृष्ट मोक्षधन प्राप्त होते. त्या उपासनांमध्ये रमण करणारा बनतो. परमात्म्याचे खरे उपासक जे परमात्म्याच्या ध्यानात कर्मेंद्रियाच्या व्यवहारांनी रहित विषयाकडे जाणाऱ्या ज्ञानेंद्रियांच्या वृत्तीनी रहित बनून व्यापणाऱ्या अंत:करण वृत्तीत अंतर्मुख झालेले उपासक वरणीय ब्रह्मतेजाला प्राप्त करतात. ॥४॥
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