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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यः शम्ब॑रं॒ पर्व॑तेषु क्षि॒यन्तं॑ चत्वारिं॒श्यां श॒रद्य॒न्ववि॑न्दत्। ओ॒जा॒यमा॑नं॒ यो अहिं॑ ज॒घान॒ दानुं॒ शया॑नं॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । शम्ब॑रम् । पर्व॑तेषु । क्षि॒यन्त॑म् । च॒त्वा॒रिं॒श्याम् । श॒रदि॑ । अ॒नु॒ऽअवि॑न्दत् । ओ॒जा॒यमा॑नम् । यः । अहि॑म् । ज॒घान॑ । दानु॑म् । शया॑नम् । सः । ज॒ना॒सः॒ । इन्द्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दत्। ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। शम्बरम्। पर्वतेषु। क्षियन्तम्। चत्वारिंश्याम्। शरदि। अनुऽअविन्दत्। ओजायमानम्। यः। अहिम्। जघान। दानुम्। शयानम्। सः। जनासः। इन्द्रः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे जनासो धीमन्तो युष्माभिर्यः पर्वतेषु चत्वारिंश्यां शरदि क्षियन्तं शम्बरमन्वविन्दद्यो दानुं शयानमोजायमानमहिं जघान स इन्द्रो बोध्यः ॥११॥

    पदार्थः

    (यः) (शम्बरम्) मेघम् (पर्वतेषु) अभ्रेषु (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (चत्वारिंश्याम्) चत्वारिंशतः पूर्णायाम् (शरदि) शरदृतौ (अन्वविन्दत्) अनुलभते (ओजायमानम्) ओजः पराक्रममिवाचरन्तम् (यः) (अहिम्) मेघम् (जघान) हन्ति (दानुम्) दातारम् (शयानम्) कृतशयनमिव वर्त्तमानम् (सः) (जनासः) इन्द्रः ॥११॥

    भावार्थः

    यदि चत्वारिंशद्वर्षाणि वृष्टिर्न स्यात्तर्हि कः प्राणं धर्त्तुं शक्नुयात्। यदि सूर्यो जलं नाकर्षेन्न धरेन्न वर्षयेत्तर्हि को बलं प्राप्तुमर्हेत् ॥११॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (जनासः) बुद्धिमान् मनुष्यो ! तुमको (यः) जो (पर्वतेषु) बद्दलों में (चत्वारिंश्याम्) चालीसवीं (शरदि) शरद तु में (क्षियन्तम्) निवास करते हुए (शम्बरम्) मेघ को (अन्वविन्दत्) अनुकूलता से प्राप्त होता और (यः) जो (दानुम्) देनेवाले (शयानम्) तथा सोते हुए के समान वर्त्तमान (अहिम्) मेघ को (जघान) मारता है (सः) वह (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सूर्य जानना चाहिये ॥११॥

    भावार्थ

    जो चालीस वर्ष पर्यन्त वर्षा न हो तो कौन प्राण धर सके। जो सूर्य जल को न खींचे, न धारण करे और न वर्षावे तो कौन बल पाने को योग्य हो ॥११॥

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    विषय

    ओजायमान दानु का विनाश

    पदार्थ

    १. अविद्या पाँच पर्वोंवाली है सो पर्वत कहलाती है। इस अविद्यारूप पर्वत में ही ईर्ष्या का निवास है। अज्ञानवश ही मनुष्य ईर्ष्या करता है । यह ईर्ष्या सब शान्ति को उचाट कर देने के कारण यहाँ 'शंबर' नामक असुर के रूप में चित्रित हुई है। मनुष्य साधना में चलता-चलता है। चालीसवें वर्ष में भी वह अपने में ईर्ष्या को देखता है । इस वर्ष तक जीवन की सम्पूर्णता हो जाती है, परन्तु ईर्ष्या अभी भी बची रहती है। (यः) = जो (पर्वतेषु क्षियन्तम्) = अज्ञानरूप पर्वत में निवास करनेवाली (शंबरम्) = शान्ति पर परदा डाल देनेवाली इस ईर्ष्या को (चत्वारिंश्यां शरदि) = चालीसवें वर्ष में भी मनुष्य में (अन्वविन्दत्) = पीछा करते हुए पाता है—'चालीसवें वर्ष में भी मनुष्य इससे ऊपर नहीं उठ पाया है' ऐसा देखता है और (ओजायमानम्) = अत्यन्त ओजस्वी की तरह आचरण करते हुए (शयानम्) = हमारे अन्दर ही निवास करनेवाले (दानुम्) = हमारा खण्डन व विनाश करनेवाले (अहिम्) = इस अशुभ वृत्तिरूप सर्प को जघान नष्ट करता है। ईर्ष्या एक सर्पिणी है, जो अपने विष से हमें जलाती रहती है 'ईर्ष्यालोर्मृतं मनः ' । २. (यः) = जो यह हमारी ईर्ष्यावृत्ति को नष्ट करनेवाला है, (जनासः) = हे लोगो ! (सः इन्द्रः) = वही परमैश्वर्यशाली प्रभु है । प्रभुस्मरण से मनुष्य इन भौतिक प्रलोभनों में फंसने से बचता है। भौतिक प्रलोभन ही नहीं रहे तो ईर्ष्या का प्रश्न ही जाता रहता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - ईर्ष्या से ऊपर उठना बड़ा कठिन है। प्रभुस्मरण ही हमें इससे ऊपर उठाता है। ईर्ष्या से दूर करके प्रभु हमें फिर से शान्ति प्राप्त कराते हैं ।

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    विषय

    बलवान् राजा, सभापति, जीवात्मा और परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    सूर्य जिस प्रकार ( पर्वतेषु क्षियन्तं ) पर्व वाले मासों में विद्यमान ( शम्बरं ) चन्द्र को ( चत्वारिंश्यां शरदि ) चालीसवें वर्ष में ( अनु अविन्दत् ) पुनः पूर्व स्थान पर ही प्राप्त कराता है या सूर्य जिस प्रकार ( पर्वतेषु ) अभ्र अर्थात् सूक्ष्म मेघों के रूप में रहने वाले ( शम्बरं = संवरम् ) जल को वर्षा रूप में गिरने से रोक रखनेवाले बाधक पदार्थ को भी ( चत्वांरिश्यां शरदि ) चालीसवें वर्ष में, अर्थात् लम्बी से लम्बी चालीस वर्ष की अनावृष्टि के बाद भी ( अनु अविन्दत् ) प्राप्त कराता है अथवा (पर्वतेषु क्षियन्तं शम्बरं अनुअविन्दत् ) जिस प्रकार मेघों में विद्यमान जल को इन्द्र अर्थात् विद्युत् प्राप्त कर लेता है और जिस प्रकार ( पर्वतेषु क्षियन्तं शम्बरं चत्वारिंश्यां शरदि अनुअविन्दत् ) ४० वें वर्ष के उपरान्त पालन शक्ति या पूर्ण ज्ञान से युक्त विद्वानों या देह के पोरुओं में विद्यमान ‘शम्बर’ अर्थात् ‘संवर’ अच्छी प्रकार से गोपनीय या वरण करने योग्य ज्ञानराशि वेद या ब्रह्मज्ञानमय शब्दब्रह्म या ब्रह्मचर्य के पूर्ण बल को युवा पुरुष प्राप्त करता है, उसी प्रकार ( यः ) जो परमेश्वर ( पर्वतेषु ) प्राणिवर्ग को पालन करने वाले जल, वायु, अग्नि आदि तत्वों में ( क्षियन्तं ) विद्यमान ( शम्बरं ) शान्ति प्रदान करनेवाले एवं सबको वरण करने योग्य सर्वश्रेष्ठ स्वरूप को (अनु) निरन्तर ( अविन्दत् ) स्वयं धारता और अन्यों को प्राप्त करता है और ( यः ) जो परमेश्वर ( ओजायमानं ) बल पकड़नेवाले ( अहिम् ) सर्प के समान कुटिल, मेघ के समान हृदयाकाश पर आजानेवाले, ( दानुं ) मर्मच्छेदी, ( शयानं ) हृदय में अव्यक्त रूप से रहने वाले अज्ञान को भी विद्युत् के समान ( जघान ) नष्ट करता है हे ( जनासः ) पुरुषो ! ( सः इन्द्रः ) वही सर्वैश्वर्यवान् परमेश्वर ‘इन्द्र’ है । ( २ ) जो राजा ( पर्वतेषु ) प्रजा के पालक अध्यक्षों के आश्रय या उनके आधीन रहने वाले ( शम्बरं ) शत्रुगण और प्रजागण को शमन करने वाले, शान्तिदायक बल को अपनी ४० वर्ष में अपने अनुकूल रूप से यथावत् प्राप्त कर लेता है और जो बल पराक्रमशील अपने वध्य या आक्रमणकारी अपनी प्रजा के नाशक, छुपे भीतरी और बाहरी शत्रु और काम वेग को भी नाश कर लेता है वह पुरुष पुंगव ‘इन्द्र’ कहाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १–५, १२–१५ त्रिष्टुप् । ६-८, १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप । भुरिक् त्रिष्टुप । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (यः पर्वतेषु क्षियन्तं शम्बरम्) जो मेत्रों में "पर्वत: मेघनाम" [निघं० १।१०] निवास करते हुए रहते हुए शस्वर उदक-जल को "शम्बरम्-उदकनाम" [निघं० १।१२] (चत्वारिश्यां शरदि-अन्वविन्दत्) चालीसवीं शरद तक अनुकूलरूप से प्राप्त किया रहता है बरसाता रहता है वरसा कर छोड़ता है अर्थात् साधारण वर्षा ऋतु से होकर शरद-शीत काल हिमपात की चालीसवें दिन लोक भाषा चालीस दिन के चिल्ले तक मेघ से जल को बरसा कर छोडता है अथवा "स्वधा वै शरद्" (शत० १३|८|१|१४) और "स्वाधा वै पितॄणामन्नम्" (तै० १|६|९|४) स्वधा पितरो के लिए अन्न है "ऋतवः पितरः" (शत० २।४।२।२४) इस प्रकार ऋतुओं के लिए चालीसवीं स्वधा अन्नादि की आहुति वर्षा काल में चालीस दिन तक होने से मेत्रो का जल इन्द्र के आधीन हो जाता है यज्ञ भी लक्षित होता है (य:-ओजायमानं दानु शयानम् अहिं जघान) जिसने बलवान् होते हुए खण्ड खराड करने योग्य या जल को देने वाले फैले हुए मेघ का हनन कर दिया- कर देता है । (जनासः सः-इन्द्रः) हे जनो! वह इन्द्र व्याप्त विद्युद् देव या परमात्मा है ॥११॥

    विशेष

    ऋषि:-गृत्समदः (मेधावी प्रसन्न जन" गृत्स:-मेधाविनाम" [निव० ३।१५]) देवताः-इन्द्रः (अध्यात्म में व्यापक परमात्मा आधिदैविक क्षेत्र में सर्वत्र प्राप्त विद्युत्)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चाळीस वर्षांपर्यंत वृष्टी न झाल्यास कुणाचा प्राण तग धरू शकेल? जर सूर्य जलाला आकर्षित करू शकणार नसेल व वृष्टी करू शकणार नसेल तर कुणाला बल प्राप्त होईल? ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He who finds the vapours of water hidden in the cloud on the fortieth day of autumn (or in the fortieth autumn) and breaks the cloud, heavy with water for showers yet sleeping like a giant, thus releasing the rain- showers: such, O people, is Indra, the mighty Sun.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The power of Surya (Sun) is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the mighty sun takes you up to forty years in life in fairly good health. The rainy and autumn seasons, which create balance in life, they become amiable to you in these forty years. This sun creates by penetrating into dormant clouds. So we should know well about the solar power.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If there is draught and it does not rain for forty years, when sun does not extract water from the earth and there were no rains, no body can achieve or retain strength.

    Foot Notes

    (शम्बरम्) मेघम् । = To the clouds. (पर्वतेषु ) अभ्रेषु = In the clouds. (चत्वारिंश्याम् ) चत्वारिंशतः पूर्णायाम् = For full forty years. (ओजायमानम्) ओजः पराक्रममिवाचरन्तम् = Moving with its vigor. (शयानम् ) कृतशयनमिव वर्त्तमानम् = Like dormant.

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