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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो र॒ध्रस्य॑ चोदि॒ता यः कृ॒शस्य॒ यो ब्र॒ह्मणो॒ नाध॑मानस्य की॒रेः। युक्तग्रा॑व्णो॒ यो॑ऽवि॒ता सु॑शि॒प्रः सु॒तसो॑मस्य॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । र॒ध्रस्य॑ । चो॒दि॒ता । यः । कृ॒शस्य॑ । यः । ब्र॒ह्मणः॑ । नाध॑मानस्य । की॒रेः । यु॒क्तऽग्रा॑व्णः । यः । अ॒वि॒ता । सु॒ऽशि॒प्रः । सु॒तऽसो॑मस्य । सः । ज॒ना॒सः॒ । इन्द्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो रध्रस्य चोदिता यः कृशस्य यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरेः। युक्तग्राव्णो योऽविता सुशिप्रः सुतसोमस्य स जनास इन्द्रः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। रध्रस्य। चोदिता। यः। कृशस्य। यः। ब्रह्मणः। नाधमानस्य। कीरेः। युक्तऽग्राव्णः। यः। अविता। सुऽशिप्रः। सुतऽसोमस्य। सः। जनासः। इन्द्रः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरविषयमाह।

    अन्वयः

    हे जनासो यो रध्रस्य यो कृशस्य यो नाधमानस्य यो ब्रह्मणो युक्तग्राव्णो किरेश्चोदिता यः सुशिप्रः सुतसोमस्याऽविता स इन्द्रः परमेश्वरोऽस्ति ॥६॥

    पदार्थः

    (यः) (रध्रस्य) हिंसकस्य (चोदिता) प्रेरकः (यः) (कृशस्य) दुर्बलस्य (यः) (ब्रह्मणः) (नाधमानस्य) सकलैश्वर्यप्रापकस्य (कीरे:) सकलविद्यास्तोतुः (युक्तग्राव्णः) युक्ता ग्रावाणो मेघाः पाषाणा वा यस्मिँस्तस्य (यः) (अविता) रक्षक: (सुशिप्रः) शोभनानि शिप्राणि सेवनानि यस्मिन् सः। अत्र शेवृ धातोः पृषोदरादिनेष्टसिद्धिः। (सुतसोमस्य) सुता उत्पादिताः सोमाः पदार्था येन तस्य (सः) (जनासः) (इन्द्रः) ॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्यास्तमेव जगदुत्पत्तिस्थितिप्रलयकर्त्तारं सकलविद्यायुक्तस्य वेदस्य प्रज्ञापकं परमेश्वरं यूयमुपाध्वम् ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (जनासः) मनुष्यो ! (यः) जो (रध्रस्य) हिंसा करनेवाले का (यः) को (कृशस्य) दुर्बल का (यः) जो (नाधमानस्य) समस्त ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले का (यः) जो (ब्रह्मणः) वेद का (युक्तग्राव्णः) और जिसमें मेघ वा पत्थरयुक्त हैं उस पदार्थ का (कीरे:) तथा सकल विद्याओं की स्तुति प्रशंसा करनेहारे का (चोदिता) प्रेरणा करनेवाला वा (यः) जो (सुशिप्रः) ऐसा है कि जिसमें सुन्दर सेवन होते और (सुतसोमस्य) जिसने उत्पन्न किये सोमादि अच्छे पदार्थ उसकी (अविता) रक्षा करनेवाला है (सः) वह (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर है ॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! उसी परमेश्वर की उपासना तुम करो कि जो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकर्त्ता तथा सकल विद्यायुक्त वेद का उत्तम ज्ञान करानेवाला है ॥६॥

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    विषय

    प्रेरक प्रभु

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (रक्षस्य) = [रध संराद्धौ] समृद्ध का (चोदिता) = प्रेरक है और (यः) = जो (कृशस्य) = दुर्बल अर्थात् दरिद्र के लिए भी आवश्यक धन का प्रेरक है । (यः) = जो (ब्रह्मणः) = [ब्रह्म, बृहि वृद्धौ] परिवृद्ध ज्ञानी का प्रेरक है तथा (नाधमानस्य) = याचमान-मांगते हुए (कीरेः) = स्तोता को धनों का प्राप्त करानेवाला है। २. (यः) = जो (युक्तग्राव्णः) = [ग्रावा = प्राण श० १४.२.२.३३] प्राणों को योग द्वारा निरुद्ध करके आत्मा में लगानेवाले, (सुतसोमस्य) = अपने अन्दर सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष का (अविता) = रक्षक है (सः) = वह (सुशिप्र:) = उत्तम हनू व नासिका प्राप्त करानेवाला [शोभने शिप्रेयस्मात् सः], हे (जनासः) = लोगो ! (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु है । जो भी व्यक्ति प्रभु का आराधक बनता है वह प्रभुकृपा से सुशिप्र होता है। उसके जबड़े उत्तम होते हैं - वह सदा उत्तम ही भोजनों को खानेवाला बनता है। उस की नासिका उत्तम होती है - वह सदा प्राणायाम का अभ्यासी होकर प्राणों को वश में करता है और उत्तम प्राणशक्तिवाला होता है । के अभ्यासी पुरुषों का प्रेरक व =

    भावार्थ

    भावार्थ – प्रभु ही धनी - निर्धन, ज्ञानी स्तोता व प्राणायाम शासक है।

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    विषय

    बलवान् राजा, सभापति, जीवात्मा और परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( रध्रस्य ) उत्तम रीति से आराधना करने वाले उपासक और दुष्टों को दण्ड देनेवाले, दयाशील वीर पुरुष को (चोदिता) सत् शास्त्रानुकूल प्रेरणा करनेहारा है। और ( यः ) जो ( कृशस्य ) कृश, निर्बल और स्वल्प धन और शक्ति वाले को ( चोदिता ) साहस पूर्वक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा करने वाला है, ( यः ) जो ( ब्रह्मणः ) ब्रह्म, वेद और वेदज्ञ को, प्रेरनेवाला है, वेद का ऋषियों के हृदय में प्रकाश करने वाला, वेदज्ञ विद्वानों को उपदेश द्वारा अन्यों पर अनुग्रह करने के लिये प्रेरित करने वाला है, जो ( नाधमानस्य ) हृदय में पाप कर्मों के लिये पश्चात्ताप करने वाले को पुनः सन्मार्ग में सदाचार पूर्वक रहने की प्रेरणा करने हारा है, और जो ( कीरेः ) स्तुति करनेवाले और उत्तम कार्य करने वाले को उत्तम कार्य करने की प्रेरणा करता है, ( यः ) जो ( शुशिप्रः ) उत्तम ज्ञानों वाला, उत्तम शक्तिशाली होकर ( युक्तग्राव्णः ) ‘ग्रावा’ अर्थात् उपदेश करनेवाले विद्वान् पुरुषों के सत्संग करने वाले का ( अविता ) रक्षक और ( सुत-सोमस्य ) उत्तम ऐश्वर्यों, ज्ञानों और उत्तम शिष्यों को उत्पन्न करने वाले वैश्य विद्वान्, शिष्य और आचार्य इनका जो व्यक्ति (अविता) रक्षक और उनकी इच्छा पूर्ति करने और आनन्द देने हारा है हे ( जनासः ) विद्वान् पुरुषो ! वस्तुतः ( सः इन्द्रः ) वह ऐश्वर्यवान् ‘इन्द्र’ है । (२) इसी प्रकार वह राजा जो ( रध्रस्य चोदिता ) दुष्ट पीड़क वीर को आज्ञा देनेवाला, कृश, निर्बल का रक्षक, ( ब्रह्मणः ) वेद, ज्ञान, धन, अन्न का दाता, याचक, ऐश्वर्य की कामना वाले, स्तुतिशील का प्रेरक, ( युक्त-ग्राव्णः ) ग्रावा अर्थात् शस्त्रास्त्र के बांधने में वीर सैनिक को उत्तेजित करने वाला, उत्तम बलवान् है जो ( सुतसोमस्य ) ऐश्वर्य प्राप्त करने वाले या ईश्वर का भजन करने वाले का रक्षक है वह ऐश्वर्यवान् ‘इन्द्र’ राजा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १–५, १२–१५ त्रिष्टुप् । ६-८, १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप । भुरिक् त्रिष्टुप । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (यः-स्वस्य यः कृशस्य यः ब्रह्मण:-नाधमानस्य कीरे:-चोदिता) जो समृद्ध का "रध संराध्ये" [दिवादि०] जो कृशदरिद्र का जो ब्राह्मण-वैज्ञानिक या वेदवेत्ता का और याचना करते हुए का स्तोता प्रशंसक या उपासक का "कीरिः स्तोतृनाम" [निधं० ३।१६ ] प्रेरक है। य:-युक्तग्राव्णः-अविता) जो युक्त प्रयुक्त किए हैं ग्राव मेघ जिसने या जिसमें ऐसे मेघसम्पादन वर्षणसमर्थ वैज्ञानिक का "ग्रावा मेघनाम" [निघं० १।१०] युक्त है उपयुक्त किए हैं ग्राव विद्वान् जन जिसने अध्ययन द्वारा ऐसे नव ब्रह्मचारी जन का रक्षक है (सुतसोमस्य च) मेवजलों से सोम आदि औषधियां जिसने उत्पन्न करी उसका उपासित किया सोम उत्पादक देव जिसने ऐसे जन का भी रक्षक है (सुशिप्रः) अच्छा शिप्र-सृप सर्पणशील या व्यापनशील "सुशिप्रः-एतेन सृपः 'सर्पणशीलः' इत्येतेन व्याख्यातम्" [निरु० ६ । १६ ] (जनासः सः-इन्द्र:) हे जतो वह इन्द्र है ॥६॥

    विशेष

    ऋषि:-गृत्समदः (मेधावी प्रसन्न जन" गृत्स:-मेधाविनाम" [निव० ३।१५]) देवताः-इन्द्रः (अध्यात्म में व्यापक परमात्मा आधिदैविक क्षेत्र में सर्वत्र प्राप्त विद्युत्)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो जगाची उत्पत्ती, स्थिती, प्रलय करतो व संपूर्ण विद्यायुक्त वेदाचे उत्तम ज्ञान देतो त्या परमेश्वराची तुम्ही उपासना करा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He is inspirer of the obedient worshipper, support of the weak and emaciated, promoter of knowledge and Veda, saviour of the poor and destitute, and strength of the celebrant; he is protector of the person who is dedicated to learning and soma-yajna, commands knowledge and creates the joy of soma in society: Such is Indra O people of the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Knowledge about God is given below.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! it is God who protects a prosperous female person against a killer. He also inspires a scholar of the Vedas and admirers of the learned persons. He inspires them to the path of righteousness and provides His cover of protection to people who are beautiful, because of their noble acts and taking the herbal and Sona juices. Such God is the greatest and glorious.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons should adore only God because He is the basic cause of creation, annihilation and existence of the universe. It is He who is instrumental in securing the eternal knowledge of the Vedas.

    Foot Notes

    (रध्रस्य ) हिंसकस्य |-- Of the killer. ( नाधमानस्य ) सकलैश्वर्यप्रापकस्य । = One who secures all prosperity and wealth. (कीरे:) सकलविद्यास्तोतुः । = Of the admirer of total knowledge. (युक्तग्राव्णः) युक्ता ग्रावाणो मेघाः । पाषाणा वा यस्मिँस्तस्य = Of the one who is full of clouds and stones. (सुशिप्र:) शोभनानि शिप्राणि सेवनानि यस्मिन् सः । अत्न शेवृधातौ: पृषोदरादिनेष्टसिद्धिः = One who is beautifully admired and held.

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