Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 14 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अध्व॑र्यवो॒ यो दि॒व्यस्य॒ वस्वो॒ यः पार्थि॑वस्य॒ क्षम्य॑स्य॒ राजा॑। तमूर्द॑रं॒ न पृ॑णता॒ यवे॒नेन्द्रं॒ सोमे॑भि॒स्तदपो॑ वो अस्तु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध्व॑र्यवः । यः । दि॒व्यस्य॑ । वस्वः॑ । यः । पार्थि॑वस्य । क्षम्य॑स्य । राजा॑ । तम् । ऊर्द॑रम् । न । पृ॒ण॒त॒ । यवे॑न । इन्द्र॑म् । सोमे॑भिः । तत् । अपः॑ । वः॒ । अ॒स्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध्वर्यवो यो दिव्यस्य वस्वो यः पार्थिवस्य क्षम्यस्य राजा। तमूर्दरं न पृणता यवेनेन्द्रं सोमेभिस्तदपो वो अस्तु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध्वर्यवः। यः। दिव्यस्य। वस्वः। यः। पार्थिवस्य। क्षम्यस्य। राजा। तम्। ऊर्दरम्। न। पृणत। यवेन। इन्द्रम्। सोमेभिः। तत्। अपः। वः। अस्तु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अध्वर्यवो यो दिव्यस्य वस्वो यः पार्थिवस्य क्षम्यस्य मध्ये वो राजाऽस्तु तमिन्द्रं यवेनोर्दरन्न सोमेभिः पृणत तदपः प्राप्नुत ॥११॥

    पदार्थः

    (अध्वर्यवः) राजसम्बन्धिनः (यः) (दिव्यस्य) दिवि भवस्य (वस्वः) वसोर्धनस्य (यः) (पार्थिवस्य) पृथिव्यां विदितस्य (क्षम्यस्य) क्षमायां साधोः (राजा) (तम्) (ऊर्दरम्) कुसूलम् (न) इव (पृणत) पूरयत। अत्रापि दीर्घः (यवेन) (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तम् (सोमेभिः) ओषधिभिः (तम्) (अपः) (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) भवतु ॥११॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये विद्वांसो धान्येन कुसूलमिव विद्यार्थिनां बुद्धीर्विद्यासुशिक्षाभ्यां पिपुरति ते राजसेव्याः स्युः ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अध्वर्यवः) राजसम्बन्धी विद्वान् जनो (यः) जो (दिव्यस्य) प्रकाश में उत्पन्न हुए (वस्वः) धन को वा (यः) जो (पार्थिवस्य) पृथिवी में विदित (क्षम्यस्य) सहनशीलता में उत्तम उसके बीच (वः) तुम्हारे लिये (राजा) राजा (अस्तु) हो (तम्) उस (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् को (यवेन) यव अन्न से जैसे (ऊर्दरम्) मटका को वा डिहरा को (न) वैसे (सोमेभिः) सोमादि ओषधियों से (पृणत) पूरो परिपूर्ण करो (तत्) उस (अपः) कर्म को प्राप्त होओ ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन धान्य अन्न से मटका वा डिहरा को जैसे वैसे विद्यार्थियों की बुद्धियों को विद्या और उत्तम शिक्षा से तृप्त करते हैं, वे राजा को सेवने योग्य हों ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    लोकत्रयी की सम्पत्ति

    पदार्थ

    १. (अध्वर्यवः) = हे यज्ञशील पुरुषो! (यः) = जो प्रभु (दिव्यस्य वस्वः) = द्युलोक के धन का (राजा) = राजा है (यः) = जो (पार्थिवस्य) = [पृथिवी अन्तरिक्षं] अन्तरिक्ष के धन का राजा है और जो (क्षम्यस्य) = इस पृथिवी के धन का राजा है। शरीर में द्युलोक 'मस्तिष्क' है, इसका धन 'ज्ञान' है । अन्तरिक्ष 'हृदय' है, इसका धन 'श्रद्धा व उपासना' है। पृथिवी 'शरीर' है, इसका धन 'शक्ति व दृढ़ता' है। इस ज्ञान, श्रद्धा व शक्ति को देनेवाले वे प्रभु ही हैं । २. (तम्) = उस (इन्द्रम्) = प्रभु को (सोमेभिः) = सोमों से इस प्रकार (पृणता) = प्रीणित करो (न) = जैसे (यवेन) = जौ से (ऊर्दरम्) = ऊखल को भरते हैं। हे अध्वर्युवो ! (वः) = तुम्हारा (तदपः) = यही मुख्य कर्म (अस्तु) = हो [तत् अपः] । जीव का मौलिक कर्त्तव्य सोमरक्षण ही है। यही उसे सब 'दिव्य-अन्तरिक्ष व पार्थिव' धनों को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से मस्तिष्क ज्ञानदीप्त होता है, हृदय श्रद्धा से पूर्ण होता है और शरीर शक्तिसम्पन्न बनता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शत्रु दमन, प्रजाजनों और राजपुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अध्वर्यवः) प्रजा पालन को चाहने और परस्पर हिंसा को न चाहने के इच्छुक पुरुषो ! ( यः) जो ( दिव्यस्य ) व्यवहार योग्य व्यापार से प्राप्त ( वस्वः ) धन का, और ( यः ) जो ( पार्थिवस्य ) पृथिवी से प्राप्त होने वाले अन्न, सुवर्ण आदि और ( क्षम्यस्य ) क्षमा अर्थात् भूमि से प्राप्त होने वाले क्षेत्र, सेना, पशु हस्ति आदि का भी ( राजा ) राजा स्वामी है। उस ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् पुरुष को ( यवेन ऊर्दरं न ) यव या अनाज से भड़ोले के समान ( सोमेभिः ) नाना ऐश्वर्यों से ( पृणात ) पूर्ण करो । ( वः ) हे नायको ! नाना अध्यक्ष जनो ! ( वः ) तुम्हारा ( अपः ) कर्म ही ( तत् अस्तु ) वह रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ४, ९, १०, १२ त्रिष्टुप् । २, ६,८ निचृत् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्पङ्क्तिः । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे माठ धान्याने भरतात तसे विद्वान लोक विद्यार्थ्यांच्या बुद्धीला विद्या व उत्तम शिक्षणाने तृप्त करतात. त्यांचा राजाने स्वीकार करावा. ॥ ११ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    High priests of yajnic action and advancement, citizens of the world, serve Indra who is ruler of the light of heaven, the wealth of earth and the sweets of love and tolerance. Fill his kingdom to overflowing as farmers fill the stores with food and drink. Let the life on earth sparkle with streams of soma and shine with the glow of health and joy. Let that be your karma of divine dedication. Let that be the dynamics of human society.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Loyalty to the Ruler is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned Statesman ! in the presence of nor Head of the State, you should prove your resourcefulness, wealth, reputation and tolerance. You should ensure that the State warehouses are stocked to capacity and you should be full with SOMA and other herbal plants. You should act on the above lines in your life.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the wise persons keep their warehouses or store-pans full of food grains, the same way they provide knowledge and education to their pupils. The ruler feels happy at it.

    Foot Notes

    (अध्वर्यवः ) राजसम्बधिनः । = State officials. (वस्वः) वसोर्धनस्य । = Of wealth. (क्षम्यस्य) क्षमायां साधोः = Of the one who is generous in forgiveness.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top