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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अध्व॑र्यवो॒ यः स्वश्नं॑ ज॒घान॒ यः शुष्ण॑म॒शुषं॒ यो व्यं॑सम्। यः पिप्रुं॒ नमु॑चिं॒ यो रु॑धि॒क्रां तस्मा॒ इन्द्रा॒यान्ध॑सो जुहोत॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध्व॑र्यवः । यः । सु । अश्न॑म् । ज॒घान॑ । यः । शुष्ण॑म् । अ॒शुष॑म् । यः । विऽअं॑सम् । यः । पिप्रु॑म् । नमु॑चिम् । यः । रु॒धि॒ऽक्राम् । तस्मै॑ । इन्द्रा॑य । अन्ध॑सः । जु॒हो॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध्वर्यवो यः स्वश्नं जघान यः शुष्णमशुषं यो व्यंसम्। यः पिप्रुं नमुचिं यो रुधिक्रां तस्मा इन्द्रायान्धसो जुहोत॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध्वर्यवः। यः। सु। अश्नम्। जघान। यः। शुष्णम्। अशुषम्। यः। विऽअंसम्। यः। पिप्रुम्। नमुचिम्। यः। रुधिऽक्राम्। तस्मै। इन्द्राय। अन्धसः। जुहोत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अध्वर्ययो यूयं यः सूर्यः स्वश्नमिव शत्रुं जघान यः शुष्णमशुषं यो व्यंसं करोति यः नमुचिं पिप्रुं यो रुधिक्रान्निपातयति तस्मा इन्द्रायांधसो यूयं जुहोत ॥५॥

    पदार्थः

    (अध्वर्यवः) (यः) (सु) सुष्ठु (अश्नम्) मेघम् (जघान) (यः) (शुष्णम्) शुष्कम् (अशुषम्) आर्द्रम् (यः) (व्यंसम्) विगता अंसा यस्मात्तम् (यः) (पिप्रुम्) पालकम् (नमुचिम्) योऽधर्मं न मुञ्चति (यः) (रुधिक्राम्) यो रुधीनावरकान् क्रामति तम् (तस्मै) (इन्द्राय) सूर्यायेव सेनेशाय (अन्धसः) अन्नस्य (जुहोत) दत्त ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो जनो यथा सूर्यो मेघं धृत्वा वर्षति तथा यो करं गृहीत्वा पुनर्ददाति दुष्टान्निरोध्य श्रेष्ठान्निरोधयति स सेनापतिर्भवितुं योग्यः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले उपदेश में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अध्वर्यवः) अपने को यज्ञ कर्म की इच्छा करने वा सबके प्रियाचरण करनेवालो तुम (यः) जो जन सूर्य जैसे (स्वश्नम्) सुन्दर मेघ को वैसे शत्रु को (जघान) मारता है वा (यः) जो (शुष्णम्) सूखे पदार्थ को (अशुषम्) गीला वा (यः) जो (व्यंसम्) शत्रु को निर्भुज करता वा (यः) जो (नमुचिम्) अधर्मात्मा (पिप्रुम्) प्रजापालक अर्थात् राजा को वा (यः) जो (रुधिक्राम्) राज्य व्यवहारों के रोकनेवालों को निरन्तर गिराता है (तस्मै) उस (इन्द्राय) सूर्य के समान सेनापति के लिये (अन्धसः) अन्न (जुहोत) देओ ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य जैसे सूर्य मेघ को धारण कर वर्षाता है, वैसे जो कर को लेकर फिर देता है, दुष्टों को रोकवा के श्रेष्ठों को यथा समय रोकता, वह सेनापति होने योग्य है ॥५॥

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    विषय

    स्वश्नं जघान

    पदार्थ

    १. हे (अध्वर्यवः) = हिंसारहित यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होनेवाले मन व इन्द्रियो ! (यः) = जो प्रभु (स्वश्नम्) = स्वादिष्ट पदार्थों के खाने की वृत्ति-खाने के चस्के को जघान नष्ट कर देते हैं । (यः) = जो (शुष्णम्) = हमें सुखा डालनेवाले (अशुषम्) = स्वयं न सूखनेवाले 'काम' को नष्ट कर देते हैं । (यः) = जो (व्यंसम्) = [व्यंस्- to deceive, chear] छलकपट को हमारे से दूर करते हैं । २. (यः पिपुं) = जो प्रभु अपने ही पेट भरने की वृत्ति को [प्रा पूरणे] नष्ट करते हैं। (नमुचिम्) = अन्त तक पीछा न छोड़नेवाली अहंकार की वृत्ति को दूर करते हैं। (यः) = जो (रुधिक्राम्) = [रुध् मर्यादा में रोकना, क्रम्- उल्लंघन करना] मर्यादोल्लंघनवृत्ति को नष्ट करते हैं। (तस्मा इन्द्राय) = उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (अन्धसः) = इस सोम की (जुहोत) = अपने में आहुति दो। सोमरक्षण करने पर ही प्रभुप्राप्ति सम्भव है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण द्वारा हम प्रभुदर्शन के योग्य बनें। वे प्रभु ही 'स्वश्न, शुष्ण, व्यंस, पिप्रु, नमुचि व रुधिक्रा' आदि असुरों का संहार करते हैं।

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    विषय

    शत्रु दमन, प्रजाजनों और राजपुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अध्वर्यवः ) प्रजा में परस्पर के नाश को न चाहने वाले व्यवस्थापक लोगो ! ( यः ) जो ( अश्नं ) प्रजा को खाजानेवाले दुष्ट पुरुष को (जधान) नाश या दण्डित करता है ( यः शुष्णम् ) जो प्रजा के रक्त शोषण करने वाले और ( अशुषं ) स्वयं किसी से शोषण या निर्बल न किया जा सकने योग्य अदम्य शत्रु को भी मार सके, ( यः वि-अंसं ) जो विविध अंसों, प्रजा पीड़क उपायों वाले दुष्ट को दण्डित करता है । (यः) जो ( पिप्रुम् ) अपना ही पेट भरने वाले, ( नमुचिं ) अधर्म को न त्यागने योग्य, अथवा जिसे दण्ड दिये बिना कभी न छोड़ा जा सके उस अवश्य दण्ड योग्य को दण्डित करे । ( यः ) जो ( रुधिक्राम् ) रुधि अर्थात् प्रजाओं को पाप करने से रोकने वाली नियम, मर्यादाओं, तथा, जल के सेतु बन्ध, बाड़, खाई परकोट, आदि को भी लांघ जाने वाले का नाश करे ( तस्मै इन्द्राय ) उस शत्रुनाशक वीरपुरुष के लिये ( अन्धसः ) समस्त अन्न आदि नाना उपभोग योग्य पदार्थ ( जुहोत ) प्रदान करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ४, ९, १०, १२ त्रिष्टुप् । २, ६,८ निचृत् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्पङ्क्तिः । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य मेघांना धारण करतो व वृष्टी करवितो तसा जो माणूस कर घेऊन पुन्हा देतो, दुष्टांना रोखून श्रेष्ठांना योग्य वेळी संरक्षित करतो तो सेनापती होण्यायोग्य आहे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    High priests of yajna, invoke, invite, honour and offer homage with food and love to Indra who breaks through the clouds of ignorance, who prevents the thriving social suckers and converts deserts into fertile fields, who breaks the shoulders of lawless powers, who fights and defeats the self-server and the persistent evil doer, and who brings to book those who cross the bounds of preventive law. Do him honour in the yajna of love and dedication.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of State administration moves on.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    o performers of the Yajnas ! you should honor a Commander who is brilliant like sun and thrashes his enemies like the clouds. Such a Commander should be capable to disarm his foes and law-breakers, who are unrighteous and a betters in crime.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun draws water or moisture from the earth and then again it rains down, thus making the people happy and prosperous. Likewise, a ruler collects taxes from the people and in exchange provides welfare and justice. One who can discharge this onerous duty, he should be made the Commander.

    Foot Notes

    (अश्नम् ) मेघम् = Clouds. (शुष्णम्) शुष्कम् । = Dry. (अशुषम् ) आर्द्रम् = Wet, not dry. (व्यंसम् ) विगता असां यस्मात्तम् । = Making enemy disarmed. (पिप्रम् ) पालकम् । = Protector of people. (रुधिकाम्) यो रुधीनावरकान् कामति तम् = The law breakers. (अंधसः ) अन्नस्य | = Food grains.

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