ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
ऋषि: - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अध्व॑र्यवो॒ यः श॒तं शम्ब॑रस्य॒ पुरो॑ बि॒भेदाश्म॑नेव पू॒र्वीः। यो व॒र्चिनः॑ श॒तमिन्द्रः॑ स॒हस्र॑म॒पाव॑प॒द्भर॑ता॒ सोम॑मस्मै॥
स्वर सहित पद पाठअध्व॑र्यवः । यः । श॒तम् । शम्ब॑रस्य । पुरः॑ । बि॒भेद॑ । अश्म॑नाऽइव । पू॒र्वीः । यः । व॒र्चिनः॑ । श॒तम् । इन्द्रः॑ । स॒हस्र॑म् । अ॒पऽअव॑पत् । भर॑त॒ । सोम॑म् । अ॒स्मै॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध्वर्यवो यः शतं शम्बरस्य पुरो बिभेदाश्मनेव पूर्वीः। यो वर्चिनः शतमिन्द्रः सहस्रमपावपद्भरता सोममस्मै॥
स्वर रहित पद पाठअध्वर्यवः। यः। शतम्। शम्बरस्य। पुरः। बिभेद। अश्मनाऽइव। पूर्वीः। यः। वर्चिनः। शतम्। इन्द्रः। सहस्रम्। अपऽअवपत्। भरत। सोमम्। अस्मै॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अध्वर्यवो वो यूयं यः शम्बरस्य शतं पुरोघटमश्मनेव बिभेद य इन्द्रो वर्चिनः शतं सहस्रं च पूर्वीरपावपत्तद्वदस्मै सोमं भरत ॥६॥
पदार्थः
(अध्वर्यवः) युद्धयज्ञसिद्धिकराः (यः) (शतम्) (शम्बरस्य) शं सुखं वृणोति येन तस्य मेघस्य (पुरः) पुराणी (बिभेद) भिनत्ति (अश्मनेव) यथाऽश्मना घटं तथा (पूर्वीः) पूर्वं भूताः प्रजाः (यः) (वर्चिनः) प्रदीप्तस्य (शतम्) (इन्द्रः) (सहस्रम्) (अपावपत्) अधोवपति (भरत) धरत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः (सोमम्) ऐश्वर्यम् (अस्मै) सेनेशाय ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा सूर्यो विद्युद्वा मेघस्यासंख्याः पुरीश्छिनत्ति पृथिव्यामपरिमितं जलं पातयति तथा यः प्रजार्थमैश्वर्यं धरति तं सततं सत्कुरुत ॥६॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अध्वर्यवः) युद्धरूप यज्ञ की सिद्धि करनेवालो तुम लोगों में से (यः) जो (शम्बरस्य) सुख जिससे स्वीकार किया जाता उस मेघ के (शतम्) सौ (पुरः) पुरों को जैसे घड़े को (अश्मनेव) पत्थर से वैसे (बिभेद) छिन्न भिन्न करता है (यः) जो (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (वर्चिनः) प्रदीप्त अपने सर्व बस से देदीप्यमान राजा के (शतम्) सौ और (सहस्रम्) हजार (पूर्वीः) पहिले हुई प्रजाओं को (अपावपत्) नीचा करता है (अस्मै) इस सेनेश के लिये (सोमम्) ऐश्वर्य को (भरत) धारण करो ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो जैसे सूर्य वा बिजुली मेघ की असंख्य नगरियों को छिन्न-भिन्न करता है, पृथिवी पर अपरिमित जल वर्षाता है, वैसे जो प्रजा के लिये ऐश्वर्य का धारण करता है, उसका निरन्तर सत्कार करो ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा सूर्य (विद्युत) मेघाच्या असंख्य नगरांना छिन्न भिन्न करतो, पृथ्वीवर अपरिमित जलाची वृष्टी करतो, तसे जो प्रजेसाठी ऐश्वर्य धारण करतो त्याचा निरंतर सत्कार करा. ॥ ६ ॥
English (1)
Meaning
High priests of yajna, offer soma yajna to Indra who shatters with a lightning stone blow a hundred well- established strongholds of the demon of darkness who arrests and prevents the joyous waters of life from their natural flow, Indra who digs out and uproots a hundred thousand sins and crimes of the blazing powers of evil and buries them for ever. Regale him with a drink of soma, the universal joy of life.
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