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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    य॒ज्ञेन॑ गा॒तुम॒प्तुरो॑ विविद्रिरे॒ धियो॑ हिन्वा॒ना उ॒शिजो॑ मनी॒षिणः॑। अ॒भि॒स्वरा॑ नि॒षदा॒ गा अ॑व॒स्यव॒ इन्द्रे॑ हिन्वा॒ना द्रवि॑णान्याशत॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञेन॑ । गा॒तुम् । अ॒प्ऽतुरः॑ । वि॒वि॒द्रि॒रे॒ । धियः॑ । हि॒न्वा॒नाः । उ॒शिजः॑ । म॒नी॒षिणः॑ । अ॒भि॒ऽस्वरा॑ । नि॒ऽसदा॑ । गाः । अ॒व॒स्यवः॑ । इन्द्रे॑ । हि॒न्वा॒नाः । द्रवि॑णानि । आ॒श॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञेन गातुमप्तुरो विविद्रिरे धियो हिन्वाना उशिजो मनीषिणः। अभिस्वरा निषदा गा अवस्यव इन्द्रे हिन्वाना द्रविणान्याशत॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञेन। गातुम्। अप्ऽतुरः। विविद्रिरे। धियः। हिन्वानाः। उशिजः। मनीषिणः। अभिऽस्वरा। निऽसदा। गाः। अवस्यवः। इन्द्रे। हिन्वानाः। द्रविणानि। आशत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 21; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    ये गातुमप्तुरोऽभिस्वरा निषदा गा अवस्यव इन्द्रे हिन्वाना उषिजो धियो हिन्वानो मनीषिणो यज्ञेन विद्यासुशीले विविद्रिरे ते द्रविणान्याशत ॥५॥

    पदार्थः

    (यज्ञेन) सङ्गत्याख्येन (गातुम्) पृथिवीम् (अप्तुरः) प्राप्नुवन्तः (विविद्रिरे) लभन्ते (धियः) प्रज्ञाः (हिन्वानाः) वर्द्धयमानाः (उशिजः) कमितारः (मनीषिणः) मनस ईषिणः (अभिस्वरा) अभितः सर्वतः स्वरा वाणी तया। अत्र सुपां सुलुगिति डादेशः स्वर इति वाङ्नामसु निघं० १। ११ (निषदा) ये नित्यं सभायां सीदन्ति तैः। अत्रापि तृतीयाया डादेशः (गाः) पृथिवीः (अवस्यवः) आत्मनोऽवो रक्षामिच्छन्तः (इन्द्रे) विद्युदादिपदार्थे (हिन्वानाः) (द्रविणानि) धनानि यशांसि वा (आशत) प्राप्नुवन्ति ॥५॥

    भावार्थः

    नहि कश्चिदपि सत्सङ्गेन योगाभ्यासेन विद्यया प्रज्ञया विना पूर्णा विद्यां धनं च प्राप्तुमर्हति ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (गातुम्) पृथिवी को (अप्तुरः) प्राप्त हुए (अभिस्वरा) सब ओर की वाणियों और (निषदा) नित्य जो सभा में स्थित होते उनसे (गाः) पृथिवियों को (अवस्यवः) अपनी रक्षारूप माननेवाले (इन्द्रे) बिजली आदि पदार्थ में (हिन्वानाः) वृद्धि को प्राप्त होते (उषिजः) मनोहर (धियः) बुद्धियों को (हिन्वानाः) बढ़ाते हुए (मनीषिणः) मनीषी जन (यज्ञेन) यज्ञ से विद्या और सुन्दर शील को (विविद्रिरे) प्राप्त होते हैं वे (द्रविणानि) धन वा यशों को (आशत) प्राप्त होते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    कोई भी जन सत्संग-योगाभ्यास-विद्या और उत्तम बुद्धि के बिना पूर्ण विद्या और धन पाने को योग्य नहीं होता है ॥५॥

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    विषय

    सफलता के साधन

    शब्दार्थ

    (अप्तुरः) कर्मशील (उशिज:) कामनाशील (मनीषिण:) मननशील (धिय:) अपनी बुद्धियो को (हिन्वान:) गति देते हुए (यज्ञे ) सर्वस्व समर्पण के द्वारा (गातुम्) सफलता-प्राप्ति के मार्ग को (विविद्रिरे) प्राप्त किया करते हैं । (अवस्यव:) रक्षाभिलाषी वे (निषदा) एकान्त में (अभिस्वरा) ऊँचे और सुन्दर स्वर से (गा:) अपनी वाणियों को (इन्द्रे) ऐश्वर्यशाली परमात्मा में (हिन्वान:) लगाते हुए (द्रविणानि) विविध प्रकार के ऐश्वर्यो को (आशत) प्राप्त किया करते हैं ।

    भावार्थ

    संसार में प्रत्येक व्यक्ति सफलता चाहता है परन्तु वह सफलता मिल किसे सकती है ? वेद सफलता के साधनों का विधान करता है - १. सफल वे होते हैं जो कर्मशील हैं, जो हर समय किसी-न-किसी कार्य में लगे रहते हैं । २. सफल वे होते हैं जिनमें कामना हो । कामनाहीन निकम्मों को सफलता नहीं मिल सकती । ३. सफल वे होते हैं जो मननशील बुद्धिवाले होते हैं । ४. सफल वे होते हैं जो अपनी बुद्धियों को हरकत=गति देते रहते हैं । ५. सफल वे होते हैं जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व त्यागने के लिए उद्यत रहते हैं । ६. सफल वे होते हैं जो एकान्त में बैठकर ऊँचे और मधुर स्वर में अपनी वाणी को ईश्वर में लगाकर उससे तेज, बल और शक्ति की याचना करते हैं ।

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    विषय

    मार्गदर्शन व द्रविणप्राप्ति

    पदार्थ

    १. (यज्ञेन) = उपासना के द्वारा [यज् देवपूजा] (गातुम्) = मार्ग को (विविद्रिरे) = जान पाते हैं। कौन ? [क] (अप्तुरः) = कर्मों को त्वरा से करनेवाले कर्मों को अपने अन्दर प्रेरित करनेवाले । [ख] (धियः हिन्वानाः) = बुद्धियों को अपने अन्दर प्रेरित करनेवाले। [ग] (उशिजः) = प्रभुप्राप्ति की कामना वाले [घ] (मनीषिणः) = बुद्धिमान्– बुद्धि द्वारा मन का शासन करनेवाले। ये लोग उपासना द्वारा हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनते हैं और अपने कर्तव्यमार्ग का ज्ञान प्राप्त करते हैं । २. ये (अवस्यवः) = रक्षण की कामनावाले (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (गाःहिन्वाना:) = स्तुतिवचनों को प्रेरित करते हुए (अभिस्वराः) = दिन के दोनों ओर प्रातः व सायं प्रभु के नामों का उच्चारण करने द्वारा तथा (निषदा) = प्रभु के चरणों में नम्रता से बैठने द्वारा [नि+सद्] (द्रविणा नि) = जीवनयात्रा को सुन्दरता से चलानेवाले धनों को (आशत) = व्याप्त करते हैं। इन धनों को प्राप्त करके वे सुन्दरता से जीवनयात्रा पूर्ण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ – उपासना के दो लाभ हैं [क] मार्गदर्शन [ख] द्रविणप्राप्ति ।

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    विषय

    जीव का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यज्ञेन ) उपासना, सत्संगति और यज्ञरूप दान आदि श्रेष्ठ कर्म और उपास्य परमेश्वर से ( अप्तुरः ) कर्मों और बुद्धियों को प्राप्त करने वाले, ( उशिजः ) कामनावान्, ( मनीषिणः ) मेधावी, बुद्धिमान्, मनस्वी पुरुष ( धियः ) अपनी बुद्धियों और उत्तम कर्मों की (हिन्वानाः) वृद्धि और उन्नति करते हुए ( गातुम् विविद्रिरे ) उत्तम ज्ञान मार्ग को प्राप्त कर लेते हैं अथवा वे ( गातुम् अतुरः धियः ) सत् ज्ञान मार्ग प्राप्त करके प्रज्ञानों और उत्तम कर्मों का ( विविद्रिरे ) ज्ञान लाभ करते हैं । वे ( इन्द्रे ) ऐश्वर्यवान् साक्षात् द्रष्टा प्रभु या आचार्य के अधीन ही शिष्य के समान ( हिन्वानाः ) अपनी वृद्धि और उन्नति करते हुए ( अभिस्वरा ) सब प्रकार का उपदेश देने वाली, वेदवाणी, (निषदा) समीप बैठकर प्राप्त करने योग्य उपनिषद् ब्रह्मविद्या से ( अवस्यवः ) अपनी रक्षा, ज्ञान, सद्गति आत्मतृप्ति आदि की आकाक्षां करते हुए ( गाः ) उत्तम वाणियों और ( द्रविणानि ) उत्तम ऐश्वर्यों बलों और ज्ञानों को ( आशत ) प्राप्त करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २ स्वराट् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ४ विराट् जगती । ५ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणतीही माणसे सत्संग, योगाभ्यास, विद्या व उत्तम बुद्धीशिवाय पूर्ण विद्या व धन प्राप्त करू शकत नाहीत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Inspired pioneers, aspiring warriors and wise visionaries applying their thought, imagination and will in association, working with cooperation and united action in sustained yajna carve new paths of progress across the earth. Speaking together with a united voice, sitting together in assembly, acting together on the field for preservation and progress, exploiting natural energy and invoking the blessings of Indra in yajna, they reclaim lands of the earth and win wealths of the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of scholars is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those who speak chosen words in the assembly and with people of this earth, they persistently add to their knowledge about the energy in their own interest. Thus, they multiply their wisdom and become sober and acquire learning and good behavior through the Yajnas. Such people earn reputation and wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The key to acquire learning and wealth is conditional if that person stays in the company of noble persons, practices Yoga and applies his wisdom.

    Foot Notes

    (गातुम् ) पृथिवीम् । = To the earth. ( विविद्विरे ) लभन्ते ।= Achieve or get. ( हिन्वाना: ) वर्द्धयमानाः। = Multiplying. (उशिज:) कमितारः । = Desirous ones. (अभिस्वरा ) अभितः सर्वतः स्वरा वाणी तथा । अत्न सुपां सुलुगिति डादेश: । स्वर इति वाङ्नाम (N.G. 1, 11 ) = The speech or group of words which bring knowledge from all sides. (निषदा) ये नित्यं सभायां सीदन्ति तैः । अत्नापि तृतीयाया डादेश:= Those who regularly attend the assembly meets. (आशत) प्राप्नुवन्ति । = Acquire.

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