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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्र॒ श्रेष्ठा॑नि॒ द्रवि॑णानि धेहि॒ चित्तिं॒ दक्ष॑स्य सुभग॒त्वम॒स्मे। पोषं॑ रयी॒णामरि॑ष्टिं त॒नूनां॑ स्वा॒द्मानं॑ वा॒चः सु॑दिन॒त्वमह्ना॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । ष्रेष्ठा॑नि । द्रवि॑णानि । धे॒हि॒ । चित्ति॑म् । दक्ष॑स्य । सु॒ऽभ॒ग॒त्वम् । अ॒स्मे इति॑ । पोष॑म् । र॒यी॒णाम् । अरि॑ष्टिम् । त॒नूना॑म् । स्वा॒द्मान॑म् । वा॒चः । सु॒दि॒न॒ऽत्वम् । अह्ना॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्तिं दक्षस्य सुभगत्वमस्मे। पोषं रयीणामरिष्टिं तनूनां स्वाद्मानं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। ष्रेष्ठानि। द्रविणानि। धेहि। चित्तिम्। दक्षस्य। सुऽभगत्वम्। अस्मे इति। पोषम्। रयीणाम्। अरिष्टिम्। तनूनाम्। स्वाद्मानम्। वाचः। सुदिनऽत्वम्। अह्नाम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 21; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र त्वमीश्वर इवाऽस्मे दक्षस्य चित्तिं सुभगत्वं पोषं रयीणां तनूनामरिष्टिं वाचः स्वाद्मानमह्नां सुदिनत्वं श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि ॥६॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) सर्वेश्वर इव वर्त्तमान (श्रेष्ठानि) धर्म्मजानि (द्रविणानि) धनानि (धेहि) (चित्तम्) चिन्वन्ति विद्यां यया ताम् (दक्षस्य) बलस्य (सुभगत्वम्) अत्युत्तमैश्वर्यम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (पोषम्) पुष्टिम् (रयीणाम्) धनानाम् (अरिष्टिम्) अहिंसाम् (तनूनाम्) शरीराणाम् (स्वाद्मानम्) स्वादिष्टं भोगम् (वाचः) वाण्याः बोधम् (सुदिनत्वम्) उत्तमदिनस्य भावम् (अह्नाम्) दिनानाम् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिर्यथा परमेश्वरेण सर्वाणि वस्तूनि निर्माय सर्वेभ्यो हितानि साधितानि सन्ति तथा सर्वेषां कल्याणाय नित्यं प्रयतितव्यम् ॥६॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या॥ इत्येकविंशतितमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (6)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सभों के अधिपति के समान वर्त्तमान (अस्मे) हम लोगों के लिये (दक्षस्य) बल की (चित्तिम्) उस प्रकृति को जिससे कि विद्या को इकट्ठा करते हैं और (सुभगत्वम्) अत्युत्तम ऐश्वर्य (पोषम्) पुष्टि तथा (रयीणाम्) धन और (तनूनाम्) शरीरों की (अरिष्टिम्) रक्षा (वाचः) वाणी के बोध (स्वाद्मानम्) स्वादिष्ट भोग (अह्नाम्) दिनों के (सुदिनत्वम्) सुदिनपन और (श्रेष्ठानि) धर्मज्ञ (द्रविणानि) धनों को (धेहि) धारण कीजिये ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को जैसे परमेश्वर ने समस्त वस्तुओं को उत्पन्न कर सबके लिये हित रूप सिद्ध कराई हैं, वैसे सबके कल्याण के लिये नित्य प्रयत्न करना चाहिये ॥६॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये॥ यह इक्कीसवाँ सूक्त और सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = ( इन्द्र ) = हे परमैश्वर्ययुक्त परमात्मन्! ( अस्मे ) = हमको ( श्रेष्ठानि ) = श्रेष्ठ ( द्रविणानि ) = धन, ( दक्षस्य ) = बल सम्बन्धी ( चित्तिम् ) = ज्ञान ( सुभगत्वम्  )  = सब प्रकार का उत्तम ऐश्वर्य, ( रयीणाम् ) = धनों की ( पोषम् ) = बढ़ती ( तनूनाम् ) = शरीरों की ( अरिष्टिम् ) = आरोग्यता ( वाचः ) = वाणी की ( स्वाद्मानम् ) = मधुरता और ( अह्नाम् ) = दिनों का ( सुदिनत्वम् )= सुख पूर्वक बीतना  ( धेहि ) = दो ।

     

    भावार्थ

    भावार्थ = हे दयामय जगत्पिता परमात्मन्! हमको कृपा करके श्रेष्ठ धन दो। जिस ज्ञान से हमें सब प्रकार का बल प्राप्त हो सके, वैसा ज्ञान हमको दो । सब प्रकार का उत्तम से उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करो। भगवन्! आपके पुत्र हम लोगों को धनों की वृद्धि, शरीर की आरोग्यता, वाणी की मधुरता, दिनों का सुख से बीतना दो। यह सब पदार्थ प्रसन्न होकर, आप अपने प्रेमी भक्तों को प्रदान करते हैं। इसलिए अपने प्रेम और भक्ति का भी हमें दान दो ।

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    विषय

    श्रेष्ठ धन

    शब्दार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यशाली परमात्मन् ! (अस्मे ) हम लोगों के लिए (श्रेष्ठानि) श्रेष्ठ (द्रविणानि) धन, ऐश्वर्य (धेहि) प्रदान की जिए । (दक्षस्य) उत्साह का (चित्तिम्) ज्ञान दीजिए । (सुभगत्वम्) उत्तम सौभाग्य दीजिए । (रयीणाम् पोषम्) धनों की पुष्टि दीजिए (तनूनाम्) शरीरों की (अरिष्टिम) अक्षति, नीरोगिता प्रदान कीजिए (वाचः) वाणी का (स्वाद्मानम्) मिठास दीजिए और (सुदिनत्वम् अह्नाम्) दिनों का सुदिनत्व दीजिए ।

    भावार्थ

    भक्त भगवान् से श्रेष्ठ धन प्रदान करने की प्रार्थना करता है । वह श्रेष्ठ धन कौन-सा है जिसे एक भक्त चाहता है । १. हमारे मनों में उत्साह होना चाहिए क्योंकि जागृति के अभाव में कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता । २. हमारा भाग्य उत्तम होना चाहिए । ३. हमारे पास धन-धान्य और ऐश्वर्य की पुष्टि होनी चाहिए । ४. हमारे शरीर नीरोग, सबल, सुदृढ़ होने चाहिएँ । ५. हमारी वाणी में माधुर्य और मिठास होना चाहिए । हम मीठा और मधुर ही बोले । ६. हमारे दिन सुदिन बनें । हमारे दिन उत्तम प्रकार व्यतीत होने चाहिए ।

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    विषय

    श्रेष्ठ द्रविण

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (श्रेष्ठानि द्रविणानि अस्मे धेहि) = श्रेष्ठ धनों का हमारे लिए धारण करिए। [क] सबसे प्रथम तो दक्षस्य कार्यों को करने में कुशल पुरुष की (चित्तिम्) = चेतना हमें प्राप्त कराइए । हम कभी भी कर्ममार्ग में कुण्ठमस्तिष्क [Confused], न हो जाएँ-हम प्रत्येक समस्या को सुलझा करके आगे बढ़नेवाले हों। [ख] (सुभगत्वम्) = हमें सौभाग्यसम्पन्न बनाइए। हमारी प्रत्येक क्रिया में यश व श्री टपके । [ग] (रयीणां पोषम्) = धनों के पोषण हमें प्राप्त कराइए । हम जीवन यात्रा के लिए आवश्यक धनों का पोषण करनेवाले हों [घ] (तनूनाम् अरिष्टिम्) = शरीरों की अहिंसा को, अर्थात् स्वास्थ्य को हमें प्राप्त कराइए । [ङ] (वाचः स्वाद्मानम्) = वाणी की स्वादुता को-माधुर्य को हमें दीजिए तथा [च] (अह्नाम् सुदिनत्वम्) = दिनों की शोभनता को दीजिये, अर्थात् हमारा एक-एक दिन बड़ा सुन्दर व्यतीत हो । २. जीवनयात्रा के सौन्दर्य के लिए उल्लिखित छह बातें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं - हम कुशलता से कार्यों को करनेवाले हों, सौभाग्यसम्पन्न हमारे काम हों, धनों की कमी न हो, शरीर स्वस्थ हों, वाणी मधुर हो तथा एकएक दिन सुन्दर व्यतीत हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- गतमन्त्र में संकेतित द्रविणों का प्रस्तुत मन्त्र में परिगणन हुआ है। इन द्रविणों के होने पर जीवन सफल हो जाता है। सम्पूर्ण सूक्त इस भाव को व्यक्त कर रहा है कि प्रभु ही हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं। हम अकेले काम-क्रोध आदि को जीत नहीं सकते। प्रभु ही हमें विजयी बनाते हैं। और उपासकों को श्रेष्ठ द्रविण प्राप्त कराके यात्रा को सुन्दरता से पूर्ण करने में सक्षम करते हैं। अतः हमें सदा उस प्रभु का उपासन करना चाहिये

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    Bhajan

     वैदिक भजन ११४० वां
                     ‌ ‌‌‌‌‌‌‌          राग रागेश्वरी
                  गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
                              ताल अद्धा
    धन शान्ति का प्रभु हमको देना 
    मन दु:खी अशान्त कभी रहे ना ।। 
    धन शान्ति का..... 

    १) दक्षस्य चित्तिं-- उत्साह सत्कर्म का ज्ञान

    कर्तव्य कर्म का ज्ञान बढ़े 
    और मन उत्साह से बढ़ता रहे 
    अनुष्ठान सुकर्म का करता रहे(२) 
    कोरे ज्ञान से सफलता मिले ना 
    धन शान्ति का........ 

    २) सुभगत्वं = सौभाग्य

    साधन हो पर सौभाग्य न हो 
    प्रतिबन्ध खड़ा हो जाता है 
    सौभाग्य दुर्भाग्य है अपने अधीन (२) 
    भाग्य कर्मानुसार ही बनता रहे ।। 
    धन शान्ति का.......... 
    परिवर्तन फल का हो ना सके 
    फल सुख-दु:ख देकर ही तो हटे 
    इसलिए तो सुधीजन सुकर्म करें(२) 
    पुरुषार्थ में आलस्य कोई करे ना ।। 
    धन शान्ति का ....... 

    ३) पोषं रयिणाम =धन -पुष्टि 

    कर्म- भाग्य पौरुष का है संगम 
    जो दिलाता रहता पूजित धन 
    पाते प्रभु- सन्दृष्टि हरदम (२) 
    और अभाव तो कोई भी रहे ना ।।
    धन शान्ति का ......... 
    मन दु:की........ 
                 ‌  ‌‌‌           भाग २
    धन शान्ति का प्रभु हमको देना 
    मन दु:खी अशान्त कभी रहे ना

    ३) पोषं रयिणाम=धन की पुष्टि

    जीवन में जो धन का हो परिमाण 
    'कहा वयं स्याम पतयो रयिणाम ' 
    कर्म भाग्य पुरुषार्थ प्रारब्ध मिलके 
    धन- वृद्धि का पहनाते गहना 
    धन शान्ति का....... 

    ४) अरिष्ट तनुनाम= शरीर की अक्षति 

    है देह धर्म का सुख- साधन 
    यह निरोग रहे तो है मनभावन 
    हो शरीर हमारा वज्र सामान (२) 
    इसकी अक्षति का ध्यान करना 
    धन शान्ति का........ 

    ५) स्वाद्माना =वाचा वाणी की मिठास 

    जल -आग का वाणी काम करे
    मृदुभाषी हो तो नाम करे 
    तलवार का घाव तो भर जाता (२) 
    कटु वाणी का घाव कभी भरे ना 
    धन शान्ति का ........‌
    हृदय घाव भरे यह मृदु वाणी 
    बने देवजुष्ट सुधी- सुजानी 
    जिसको सुन हर्षित हो प्राणी (२) 
    हृदय द्वेष-ईर्ष्या से तो भरे ना 
    धन शान्ति का....... 

    ६) सुदिनत्व मह्नाम= अच्छे दिन हों

    दिन, शुभ दिन में ही बदलते रहें 
    वेद शास्त्र-ग्रंथ भी पढ़ते रहें 
    निद्रा व्यसन कलह को तज के (२) 
    और मनविकारों में कभी रहे ना 
    धन शान्ति का......... 
    मन दु:की........ 
             ‌‌‌‌              १.९ २०२३
            ‌‌‌‌‌‌‌‌     ‌‌‌          ११.५० रात्रि
              ‌‌                 शब्दार्थ:-
    अनुष्ठान= नियम पूर्वक आरम्भ करना
    प्रतिबंध= रुकावट, बाधा
    सुधी= बुद्धिमान
    पौरुष= पराक्रम
    सन्दृष्टि= वह दृष्टि जो सब अवस्थाओं में सब पदार्थों को
    देखने के समय समान हो। 
    वयं स्याम पतयो रयिणाम= हम धन के स्वामी बनें
    प्रारब्ध=भाग्य
    अक्षति= हानि का ना होना
    देवजुष्ट=देवताओं द्वारा सेवित किया हुआ

    🕉🧘‍♂️द्वितीय श्रृंखला का गाया 133 वां वैदिक भजन और अबतक का ११४० वां  गाया हुआ वैदिक भजन🙏

    वैदिक श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं🙏
     

    Vyakhya

    इन्द्र श्रेष्ठ धन दे
    १) दक्षस्य चित्तिम्= उत्साह सत्कर्म का ज्ञान
    जीवन में सफलता के लिए सबसे पूर्व कर्तव्य कर्म का ज्ञान होना चाहिए और उसे कम के लिए भरपूर उत्साह भी होना चाहिए । कोरे ज्ञान से कभी सफलता प्राप्त नहीं होती । ना ही ढीले ढाले बेढ़गे, , आस्था रहित भाव से किया कर्म सफल होता है अतः सबसे प्रथम उत्साह पूर्ण सुकर्म का ज्ञान और अनुष्ठान होना चाहिए। 
    २)सुभगत्वं= सौभाग्य
    सारे साधन हो और भाग्य अच्छा ना हो तो महान प्रबन्ध खड़ा हो जाता है, किन्तु सौभाग्य दुर्भाग्य का मिलना मनुष्य के अपने अधीन है। इस सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए ही भगवान् ने पहले 'दक्ष की चित्ति' का विधान किया अर्थात् भाग्य कर्म अनुसार ही बनेगा। पिछले में परिवर्तन नहीं हो सकता। आगे को भाग्य अच्छा बने इसके लिए कर्म करने की आवश्यकता है। इसी भाव से योगीराज पतंजलि जी ने ' हेयं दु:खमनागतम्'-कहा। पूर्व कर्म का फल स्वरुप दु:ख भोगना ही पड़ेगा, जो वर्तमान में फल उन्मुख है वह फल देकर ही हटेगा भविष्यत् दु:ख से बचा रहे इसके लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। भाग्य कर्माचीन है, यह सर्वथा निश्चित है।
    ३) पोषं रयिणाम्= धन की पुष्टि
    सांसारिक जीवन में धन की आवश्यकता का अपलाप नहीं किया जा सकता। वेद में प्रार्थना भी है 
    'वयं स्याम पतयो रयीणाम्'(ऋ॰१०.१२१.१०) हम धनों के स्वामी होवें। दूसरे स्थान पर कहा है:- हे अग्ने धनाभिलाषी मनुष्य के लिए तेरी संदृष्टि वस्वी= धनदात्री
      हो। कर्म और भाग्य पुरुषार्थ और प्रारब्ध मिलकर धन वृद्धि के साधन देते हैं। 
    ४-अरिष्टिं तनूनाम्= शरीर की अक्षति
    वैद्य कहते हैं  शरीर धर्म का साधन है अतः शरीर सदा निरोगी रहे बलवान रहे। हमारा शरीर वज्रमान हो। 
    ५)स्वद्मानं वाच:= वाणी की मिठास
    वाणी आज और जल दोनों का कार्य करती है। संतृप्त हृदय को मधुर वाणी उपदेश कुशल अपने वॉक कौशल से शांत करके उनके तप मिटा देता है और इसी वाणी से झगड़ा भी होते हैं तलवार का घाव भर जाता है किंतु वाणी की चोट नहीं भारती अतः वाणी का संभाल कर प्रयोग करना चाहिए। संध्या में 'ओ३म् स्वाहा पुनातु कंठे' का मनन करो। 

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    विषय

    जीव का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! गुरो ! राजन् ! आप ( अस्मे ) हम में ( श्रेष्ठानि ) सर्वोत्तम ( द्रविणानि ) ज्ञान और धन और बल वीर्य, ( धेहि ) धारण करो प्रदान करो, ( दक्षस्य ) बल और क्रिया सामर्थ्यवान् पुरुष की ( चित्तिम् ) सुचित्तता, चेतना, सावधानता और ( सुभगत्वम् ) उत्तम ऐश्वर्य प्रदान कर । ( रयीणां पोषं ) ऐश्चर्यों की वृद्धि, ( तनूनां अरिष्टिम् ) शरीरों की रोगरहितता, और ( वाचः स्वाद्मानं ) वाणी की मधुरता वा जिह्वा के लिये उत्तम भोजन और ( अन्हां सुदिनत्वम् ) दिनों का सुदिन पन ( धेहि ) प्रदान कर । इति सप्तविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २ स्वराट् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ४ विराट् जगती । ५ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. परमेश्वराने जशा संपूर्ण वस्तू सर्वांच्या कल्याणासाठी उत्पन्न केलेल्या आहेत तसा सर्वांच्या कल्याणासाठी प्रयत्न केला पाहिजे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of the world, bless us with the best of strength and power, high intelligence and awareness, beauty and delicacy of art and expertise, abundance of wealth and prosperity, health and security of senses and body, sweetness of speech and style, and peace and brightness of days and nights.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of learned person is more intensely explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (learned person) ! it is You Who get us strength and urge for learning. You give us great prosperity nourishing, wealth and protective bodies. Let us acquire ideal speech and tasteful meals, so that our days (life ) are happy and we hold the adorable wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is good who has blessed the learned persons with all the niceties, which are aimed at doing good for all. Likewise, those learned persons should also endeavor for the welfare of all.

    Foot Notes

    (श्रेष्ठानि ) धर्मजानि। = Full of righteousness. (द्रविणानि) धनानि = Wealth. Riches. (चितिम्) चिन्वन्ति विद्या यया ताम् = The nature to acquire knowledge. (सुभगत्वम् ) अत्युत्तमैश्वर्यम् । = The best prosperity. (स्वाद्मानम् ) स्वादिष्टं भोगम् । = Tasteful meals. (सुदिनत्वम्) उत्तमदिनस्य भावम् = Good days (life).

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

     

    ইন্দ্র শ্রেষ্ঠানি দ্রবিণানি ধেহি চিত্তিং দক্ষস্য সুভগত্বমস্মে।

    পোষং রয়ীণামরিষ্টিং তনূনাং স্বাদ্মানং বাচঃ সুদিনত্বমহ্নাম্ ।।৫৯।।

    (ঋগ্বেদ ২।২১।৬)

    পদার্থঃ (ইন্দ্র) হে পরমৈশ্বর্যযুক্ত পরমাত্মা! (অস্মে) আমাদেরকে (শ্রেষ্ঠানি) শ্রেষ্ঠ (দ্রবিণানি) ধন, (দক্ষস্য) বলের সাথে সম্বন্ধযুক্ত (চিত্তিম্) জ্ঞান, (সুভগত্বম্) সকল প্রকারের উত্তম ঐশ্বর্য, (রয়ীণাম্) ধনের (পোষম্) বৃদ্ধি, (তনূনাম্) শরীরের (অরিষ্টিম্) আরোগ্য, (বাচঃ) বাণীর (স্বাদ্মানম্) মধুরতা ও (অহ্নাম্) প্রতিটি দিনকে (সুদিনত্বম্) সুখ পূর্বক অতিবাহিত করতে (ধেহি) দাও।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে দয়াময় জগৎপিতা পরমাত্মন! আমাদের কৃপা করে শ্রেষ্ঠ ধন প্রদান করো। যে জ্ঞান দ্বারা আমাদের সকল প্রকার বল প্রাপ্ত হতে পারি, সেই জ্ঞান আমাদেরকে দাও। সকল প্রকারের উত্তম হতে উত্তম ঐশ্বর্য প্রদান করো। ভগবান! তোমার সন্তান আমাদের সকলের ধনের বৃদ্ধি, শরীরের আরোগ্য, বাণীর মধুরতা, প্রতিটি দিনকে সুখে অতিবাহন করতে দাও। এই সকল পদার্থ প্রসন্ন হয়ে তুমি তোমার প্রিয় ভক্তকে প্রদান করে থাক। এভাবে তুমি আমাদের অন্তরে ভক্তিরসও দান করো।।৫৯।।

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