ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
धृत॑व्रता॒ आदि॑त्या॒ इषि॑रा आ॒रे मत्क॑र्त रह॒सूरि॒वागः॑। शृ॒ण्व॒तो वो॒ वरु॑ण॒ मित्र॒ देवा॑ भ॒द्रस्य॑ वि॒द्वाँ अव॑से हुवे वः॥
स्वर सहित पद पाठधृत॑ऽव्रताः । आदि॑त्याः । इषि॑राः । आ॒रे । मत् । क॒र्त॒ । र॒ह॒सूःऽइ॑व । आगः॑ । शृ॒ण्व॒तः । वः॒ । वरु॑ण । मित्र॑ । देवाः॑ । भ॒द्रस्य॑ । वि॒द्वान् । अव॑से । हु॒वे॒ । वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धृतव्रता आदित्या इषिरा आरे मत्कर्त रहसूरिवागः। शृण्वतो वो वरुण मित्र देवा भद्रस्य विद्वाँ अवसे हुवे वः॥
स्वर रहित पद पाठधृतऽव्रताः। आदित्याः। इषिराः। आरे। मत्। कर्त। रहसूःऽइव। आगः। शृण्वतः। वः। वरुण। मित्र। देवाः। भद्रस्य। विद्वान्। अवसे। हुवे। वः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह।
अन्वयः
हे आदित्या इव इषिरा धृतव्रता देवा विद्वांसो यूयं मदारे सत्यं कर्त्त रहसूरिवागो मा कुरुत। विद्वानहं शृण्वतो वोऽवसे हुवे। वोऽपराधं नाशयेयम्। हे वरुण मित्र त्वं भद्रस्याऽवसे प्रवर्त्तस्व ॥१॥
पदार्थः
(धृतव्रताः) धृतानि व्रतानि यैस्ते (आदित्याः) सूर्य्यवद्विद्याप्रकाशकाः (इषिराः) ज्ञानवन्तः (आरे) समीपे दूरे वा (मत्) मम व्यत्ययेन पञ्चमी (कर्त्त) कुरुत (रहसूरिव) या रह एकान्ते सूते सा (आगः) अपराधम् (शृण्वत:) (वः) युष्मान् (वरुण) अत्युत्कृष्ट (मित्र) (देवाः) विद्वांसः (भद्रस्य) कल्याणस्य (विद्वान्) (अवसे) रक्षणादिने (हुवे) (वः) युष्मान् ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये धर्माचारिणः सर्वेषामधर्मात् पृथग् रक्षणे प्रवर्त्तमानास्ते कल्याणमाप्नुवन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब उन्तीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के विषय को कहते हैं।
पदार्थ
हे (आदित्याः) सूर्य्य के तुल्य विद्या के प्रकाशक (इषिराः) ज्ञानयुक्त (धृतव्रताः) नियमों को धारण किए हुए (देवाः) विद्वान् लोगो ! तुम (मत्) मेरे (आरे) दूर वा समीप में सत्य को प्रवृत्त (कर्त्त) करो (रहसूरिव) एकान्त में जननेवाली व्यभिचारिणी के तुल्य (आगः) अपराध को मत करो (विद्वान्) विद्वान् मैं (शृण्वतः) सुनते हुए (वः) आपको (अवसे) रक्षा आदि के लिये (हुवे) बुलाता हूँ (वः) तुम लोगों के अपराध को मैं नष्ट करूँ। हे (वरुण) सर्वोत्तम (मित्र) मित्र ! आप (भद्रस्य) कल्याण की रक्षा के लिये प्रवृत्त हों ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो धर्माचरण करनेवाले अधर्म से पृथक् सबको रखने में प्रवर्त्तमान हैं, वे कल्याण को प्राप्त होते हैं ॥१॥
विषय
धृतव्रत, आदित्य व इषिर
पदार्थ
१. (इव) = जिस प्रकार (रहसूः) = एकान्त में-विजन में बच्चों को जन्म देनेवाली कोई अविवाहित युवति उत्पन्न बच्चे को अपने से दूर करने के लिए यत्नशील होती है, इस प्रकार हे (धृतव्रताः) = व्रतों के धारण करनेवाले (आदित्या:) = सूर्यसम तेजस्वी अथवा सूर्य के समान प्रकाश को फैलानेवाले (इषिरा:) = जातिमय जीवनवाले देवो! (मत्) = मेरे से (आगः) = अपराध को (आरे कर्त) = दूर करो। आपके उपदेश व प्रेरणा से मेरा जीवन निष्पाप बने। मैं भी आपकी तरह 'धृतव्रत-आदित्य व इषिर' बनूँ । २. हे (वरुण) = पापनिवारक (मित्र) = सबके साथ स्नेह करनेवाले ! (देवा:) = प्रकाशमय जीवनवाले लोगो! (वः) = आपकी (भद्रस्य विद्वान्) = भद्रता को जानता हुआ मैं (शृण्वतः वः) = मेरी प्रार्थना को सुननेवाले आप लोगों को अवसे रक्षण के लिये (हुवे) = पुकारता हूँ। आपके सम्पर्क में मैं भी 'वरुण-मित्र व देव' बन पाता हूँ। धृतव्रत होने से 'वरुण' होता हूँ । वरुण पाशी है- मैं भी व्रतों के पाशों से अपने को जकड़ता हूँ। आदित्य होने से 'मित्र' बनता हूँ । सूर्य के समान प्रकाश को फैलाता हुआ पापगर्त में गिरने से अपने को बचा पाता हूँ । इषिर व गतिशील बनकर 'देव' बनता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ- हम धृतव्रतं, आदित्य व इषिर बनें ।
विषय
व्रतधारी विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( धृतव्रताः ) नियम व्यवस्थाओं के स्थिर करने और प्रजा के रक्षण शिक्षण आदि के व्रतों को धारण और रक्षा करने हारे ! ( आदित्याः ) तेजस्वी विद्वान् वीर पुरुषो ! आप लोग ( इषिराः ) प्रबल इच्छा, ज्ञान और कर्म वाले होकर ( रहसूः ) एकान्त में सन्तानोत्पत्ति करने वाली व्यभिचारिणी स्त्री के समान ( आगः ) पाप आदि अपराध को ( मत् ) मुझ प्रजाजन से ( आरे ) दूर ही ( कर्त्त ) करो । हे ( वरुण, मित्र, देवाः ) सर्वश्रेष्ठ राजन् ! मित्रवद् गुरो ! न्यायकारिन् ! हे विद्वान् पुरुषो ! ( शृण्वतः वः ) आप लोगों के सुनते हुए मैं ( विद्वान् ) ज्ञानवान् पुरुष ( वः ) आप लोगों को ( भद्रस्य अवसे ) प्रजा के सुख और कल्याण की रक्षा करने और प्रजा का भद्र, सुख कल्याण, ऐश्वर्य का दान देने के लिये आप से ( हुवे ) प्रार्थना करता हूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः ॥ विश्वदेवा देवता ॥ छन्दः- १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६, ७ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे धर्माचरण करतात, सर्वांना अधर्मापासून पृथक ठेवतात, त्यांचे कल्याण होते. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ye lights of the world of life and spirit, brilliant as the suns, upholders of law and pious vows of discipline, dynamic masters of refreshing knowledge and wisdom, remove from me far and near sin and pollution like a fallen woman’s. Ye divine souls of the world, Varuna, lord supreme, Mitra, friend of life and humanity, brilliant scholar and teacher, all you who listen, I invoke and call upon you for the protection of truth and goodness in life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of learned people are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O sun — like enlighter, well-versed, discipline holders, learned, persons ! take me to the adjacent and distant (direct and indirect) truths. Let me not act like a guilty debauch. I call upon you to listen to my request for protection, so that my sins or crimes are finished. You are the best friend, and therefore take our care.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who act piously and keep others also aloof from sins, they prosper.
Foot Notes
(धृतव्रताः ) घृतानि व्रतानि यैस्ते = Well disciplined. (इषिरा:) ज्ञानवन्तः । = Well-versed. (आरे) समीपे दूरे वा । = Adjacent or distant. (रहसूरिव) या रह एकान्ते सूते सा । = The woman who bears a child through illicit alliance.
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