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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    ए॒ता वो॑ व॒श्म्युद्य॑ता यजत्रा॒ अत॑क्षन्ना॒यवो॒ नव्य॑से॒ सम्। श्र॒व॒स्यवो॒ वाजं॑ चका॒नाः सप्ति॒र्न रथ्यो॒ अह॑ धी॒तिम॑श्याः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ता । वः॒ । व॒श्मि॒ । उ॒त्ऽय॑ता । य॒ज॒त्राः॒ । अत॑क्षन् । आ॒यवः॑ । नव्य॑से । सम् । श्र॒व॒स्यवः॑ । वाज॑म् । च॒का॒नाः । सप्तिः॑ । न । रथ्यः॑ । अह॑ । धी॒तिम् । अ॒श्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एता वो वश्म्युद्यता यजत्रा अतक्षन्नायवो नव्यसे सम्। श्रवस्यवो वाजं चकानाः सप्तिर्न रथ्यो अह धीतिमश्याः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एता। वः। वश्मि। उत्ऽयता। यजत्राः। अतक्षन्। आयवः। नव्यसे। सम्। श्रवस्यवः। वाजम्। चकानाः। सप्तिः। न। रथ्यः। अह। धीतिम्। अश्याः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 31; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यथा वाजं चकानाः श्रवस्यवो यजत्रा आयवो नव्यसे रथ्यः सप्तिर्न समतक्षन् तथा व एतोद्यताऽहं वश्मि। हे विद्वन् यथा त्वमहधीतिमश्यास्तथाऽहं प्राप्नुयाम ॥७॥

    पदार्थः

    (एता) एतानि (वः) युष्माकम् (वश्मि) कामये (उद्यता) उत्कृष्टतया यतानि गृहीतानि (यजत्राः) सङ्गन्तारः (अतक्षन्) तनू कुर्वन्ति (आयवः) मनुष्याः। आयव इति मनुष्यना० निघं० १। १४ (न) इव (रथ्यः) यो रथं वहति सः (अह) विनिग्रहे (धीतिम्) (अश्याः) प्राप्नुयाः ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यद्यद्विद्वांसः कामयन्ते तत्तत्सदा कामनीयं यथैव उपदिशेयुस्तथा तच्छ्रुत्वा निश्चित्य ग्रहीतव्यं करणीयञ्चेति ॥७॥ अत्र विद्वद्विदुषीगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इत्येकाधिकत्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जैसे (वाजम्) विज्ञान को (चकानाः) चाहते हुए (श्रवस्यवः) अपने को अन्न वा शास्त्र सुनने की इच्छा करते हुए (यजत्राः) मेल-मिलाप रखते हुए (आयवः) मनुष्य (नव्यसे) अति नवीन जन के लिये (रथ्यः) रथ के चलानेवाले (सप्तिः) घोड़े के (न) तुल्य विचारणीय विषय को (सम्,अतक्षन्) सम्यक् सूक्ष्म करते हैं अर्थात् अच्छे प्रकार ग्रहण किये वचनों को मैं (वश्मि) चाहता हूँ, हे विद्वन् ! जैसे आप (अह) नियमपूर्वक (धीतिम्) धैर्य को (अश्याः) प्राप्त होओ वैसे मैं भी धैर्य को प्राप्त होऊँ ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि जिस-जिस पदार्थ की कामना विद्वान् लोग करें, उस-उसकी कामना करें। जैसे विद्वान् लोग उपदेश करें, वैसे उसको सुन निश्चय कर स्वीकार और अनुष्ठान किया करें ॥७॥ इस मन्त्र में विद्वान् और विदुषी स्त्रियों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह इकत्तीसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    श्रवस्यवः-वाजं चकानाः

    पदार्थ

    १. हे (यजत्राः) = पूजनीय देवो! मैं (एता) = इन (वः) = आपके (उद्यता) = उद्यत स्तुतिवचनों को [वश्मि] = चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि सदा आपका स्तवन करनेवाला बनूँ । २. (आयवः) = गतिशील मनुष्य (श्रवस्यवः) = उत्तम ज्ञान की कामनावाला होते हुए तथा (वाजं चकानाः) = शक्ति की कामना करते (नव्यसे) = आपके स्तवन के लिए (समतक्षन्) = स्तुतिवचनों का निर्माण करते हैं। देवों के स्तवन से स्तोता की वृत्ति भी दिव्य बनती है और वह अपने ज्ञान और शक्ति को बढ़ा पाता है । ३. हे देवो! आपका यह स्तोता (रथ्यः सप्तिः न) = रथ में जुते उत्तम घोड़े की भाँति (अह) = निश्चय से (धीतिम्) = [धीति=कर्म नि० २.२४] कर्म को (अश्या:) = प्राप्त हो । इसका सारा समय उत्तम कर्मों में ही व्यतीत हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम देवों का स्तवन करें- ज्ञान और शक्ति की कामना करें तथा कर्मों में लगे रहें । सूक्त का सार यही है कि हम जीवन को दिव्य बनाने का प्रयत्न करें। अगले सूक्त में भी इसी विषय को द्यावापृथिवी के आराधन से आरम्भ करते हैं ।

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    विषय

    श्रेष्ठ, विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( यजत्राः ) परस्पर मिलकर एक संग काम करने वाले ( आयवः ) शिल्पी लोग ( नव्यसे ) स्तुतियोग्य स्वामी के लिये ( उद्-यता ) उत्तम कोटि के प्रयत्नसाध्य पदार्थ ( सम् अतक्षन् ) बनाते हैं। और वे उससे ( श्रवस्यवः ) धन, अन्न और यश की इच्छा करते और ( वाजं चकानाः ) ऐश्वर्य या बल अधिकार की कामना करते हैं । इसी प्रकार ( यजत्राः ) यज्ञ, उपासना और दान करने वाले ( आ यवः ) ज्ञानी लोग ( नव्यसे ) अतिस्तुत्य परमेश्वर के लिये ( उद्-यता ) उत्तम रूप से हृदय से उठे, भावपूर्ण स्तुति वचनों को ( सम् अतक्षन् ) प्रकट करते हैं । वे ( श्रवस्यवः ) ज्ञान की और ( वाजं ) ऐश्वर्य, और बल की ( चकानाः ) कामना करते हैं । हे विद्वान् पुरुषो ! मैं ( वः ) आप लोगों के ( एता ) इन उत्तम वचनों उपायनों को स्वामी के समान ( वश्मि ) नित्य चाहता और स्वीकार करता हूं । ( रथ्यः सप्तिः न ) रथ में लगा अश्व जिस प्रकार ( वाजम् ) बड़े वेग को प्राप्त करके मार्ग व्यापता है उसी प्रकार ( अह ) निश्चय से तुम जीव गण ( रथ्यः ) रमण योग्य देह में विद्यमान ( सप्तिः ) देह में देहान्तर जाने वाले होकर ( वाजम् ) नाना ऐश्वर्य और अन्नादि कर्म फल ( अश्याः ) भोग करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः– १, २, ४ जगती । ३ विराट् जगती । ५ निचृज्जगती । ६ त्रिष्टुप् । ७ पङ्क्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्या ज्या पदार्थाची कामना विद्वान लोक करतात त्याची कामना माणसांनी करावी. विद्वान लोक उपदेश करतात तो ऐकून, स्वीकारून, निश्चय करून अनुष्ठान करावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    These acts and higher gifts of yours, O powers and performers of yajnic creation in love and association, I crave and pray for, which men of desire in search of knowledge and fame, progress and prosperity, beautifully refine and advance, and which progress in knowledge, power and piety, O man of devotion and endeavour, you too, like a pioneer of the chariot caravan of humanity, may attain.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The men's duties are again described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the horses carry the chariot very fast, the same way the persons who are desirous of knowledge and material benefits or holy books, they discuss the important points in details, and thereafter explain the same to others. I wish you to accept the underlying truth of the accepted words. O learned person ! let me also have the firm endurance like you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The common man should also aspire to seek the same things which a learned person seeks. After listening to the sermons of the learned persons, you should also accept and act upon them in accordance with it.

    Foot Notes

    (वश्मि) कामये। = Desire. (उद्यता) उत्कृष्टतया यतानि गृहीतानि। = Well accepted. (आयव:) मनुष्याः। आयव इति मनुष्यनाम (N.G. 2-3) = Men. (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवोन्नं श्रवणं वेच्छन्तः = Desirous of seeking food or sermons. (सप्तिः) अश्वः । = Horse.

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