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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अपान्नपात् छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्मै ब॑हू॒नाम॑व॒माय॒ सख्ये॑ य॒ज्ञैर्वि॑धेम॒ नम॑सा ह॒विर्भिः॑। सं सानु॒ मार्ज्मि॒ दिधि॑षामि॒ बिल्मै॒र्दधा॒म्यन्नैः॒ परि॑ वन्द ऋ॒ग्भिः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । ब॒हू॒नाम् । अ॒व॒माय॑ । सख्ये॑ । य॒ज्ञैः । वि॒धे॒म॒ । नम॑सा । ह॒विःऽभिः॑ । सम् । सानु॑ । मार्ज्मि॑ । दिधि॑षामि । बिल्मैः॑ । दधा॑मि । अन्नैः॑ । परि॑ । व॒न्दे॒ । ऋ॒क्ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मै बहूनामवमाय सख्ये यज्ञैर्विधेम नमसा हविर्भिः। सं सानु मार्ज्मि दिधिषामि बिल्मैर्दधाम्यन्नैः परि वन्द ऋग्भिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै। बहूनाम्। अवमाय। सख्ये। यज्ञैः। विधेम। नमसा। हविःऽभिः। सम्। सानु। मार्ज्मि। दिधिषामि। बिल्मैः। दधामि। अन्नैः। परि। वन्दे। ऋक्ऽभिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 12
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या वयं यथाऽस्मा अवमाय बहूनां सख्ये नमसा हविर्भिर्यज्ञैर्विधेम यथाहं यस्य सानु संमार्ज्मि दिधिषामि बिल्मैरन्नैर्दधामि ग्भिः परिवन्दे तथा तं यूयमपि परिचरत ॥१२॥

    पदार्थः

    (अस्मै) (बहूनाम्) पदार्थानां मध्ये (अवमाय) अवराय रक्षकाय वा (सख्ये) मित्राय (यज्ञैः) सङ्गताभिः क्रियाभिः (विधेम) प्राप्नुयात् सेवेमहि वा। विधेमेति गतिकर्मा। निघं० २। १४। परिचरणकर्मा च निघं० ३। ५। (नमसा) अन्नाद्येन (हविर्भिः) अन्नं दातुं चार्हैः (सम्) (सानु) संसेवनीयम् (मार्ज्मि) शोधयामि (दिधिषामि) शब्दयाम्युपदिशामि (बिल्मैः) प्रदीप्तसाधनैः (दधामि) (अन्नैः) सुसँस्कृतैरन्नादिभिः (परि) (वन्दे) स्तौमि (ग्भिः) मन्त्रैः ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मनुष्या बहूनान्मध्यात्सखायं प्रीणयन्ति तस्मा अन्नपानादीनि प्रयच्छन्ति परस्परं हितमुपदिशन्ति तथा स्वयमप्येता विद्याः प्राप्यान्यान्प्रत्युपदिशेयुरैश्वर्य्यम् अवाप्यान्येभ्यः प्रयच्छेयुः ॥१२॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! हम लोग जैसे (अस्मै) इस (अवमाय) न्यून वा रक्षा करनेवाले (बहूनाम्) बहुत पदार्थों के बीच (सख्ये) मित्र के लिये (नमसा) अन्नादि पदार्थ (हविर्भिः) खाने वा देने योग्य पदार्थ और (यज्ञैः) मिली हुई क्रियाओं से उत्तम व्यवहार को (विधेम) प्राप्त हों वा उसकी सेवा करें वा जैसे मैं जिसके (सानु) अच्छे प्रकार सेवने योग्य पदार्थ को (सं,मार्ज्मि) अच्छा शुद्ध करूँ तथा (दिधिषामि) उपदेश करूँ वा (बिल्मैः) उत्तम दीप्ति को प्राप्त साधनों से युक्त (अन्नैः) अच्छा संस्कार किये हुए अन्नादि पदार्थों से (दधामि) धारण करता हूँ (ग्भिः) मन्त्रों से (परिवन्दे) सब ओर से स्तुति करता हूँ, उसकी तुम लोग भी सेवा करो ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य बहुतों में से अपने मित्र को तृप्त करते हैं वा उसके लिये अन्नपानादि देते हैं, परस्पर हित का उपदेश करते हैं, वैसे सब भी इतनी विद्याओं को प्राप्त होकर औरों क प्रति उपदेश करें तथा ऐश्वर्य को होके औरों के लिये दें ॥१२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी माणसे पुष्कळ माणसांतून आपल्या मित्रांना तृप्त करतात, त्यांना अन्नपान इत्यादी देतात, परस्पर हिताचा उपदेश करतात तसे स्वतःही विद्या प्राप्त करून इतरांना उपदेश करावा व ऐश्वर्य प्राप्त करून इतरांनाही द्यावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We serve this Apam-napat, golden energy, with yajnas and feed it with food and sacrifices in the midst of many powers of nature for the good of our closest friends. I refine it in the vedi, sustain it by degrees with fuel, feed it with food and sacrifices and celebrate it with exalting songs of Rks.

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