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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अपान्नपात् छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अश्व॒स्यात्र॒ जनि॑मा॒स्य च॒ स्व॑र्द्रु॒हो रि॒षः सं॒पृचः॑ पाहि सू॒रीन्। आ॒मासु॑ पू॒र्षु प॒रो अ॑प्रमृ॒ष्यं नारा॑तयो॒ वि न॑श॒न्नानृ॑तानि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्व॑स्य । अत्र॑ । जनि॑म । अ॒स्य । च॒ । स्वः॑ । द्रु॒हः । रि॒षः । स॒म्ऽपृचः॑ । पा॒हि॒ । सू॒रीन् । आ॒मासु॑ । पू॒र्षु । प॒रः । अ॒प्र॒ऽमृ॒ष्यम् । न । अरा॑तयः । वि । न॒श॒न् । न । अनृ॑तानि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वस्यात्र जनिमास्य च स्वर्द्रुहो रिषः संपृचः पाहि सूरीन्। आमासु पूर्षु परो अप्रमृष्यं नारातयो वि नशन्नानृतानि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वस्य। अत्र। जनिम। अस्य। च। स्वः। द्रुहः। रिषः। सम्ऽपृचः। पाहि। सूरीन्। आमासु। पूर्षु। परः। अप्रऽमृष्यम्। न। अरातयः। वि। नशन्। न। अनृतानि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    यतोऽत्राऽस्याऽश्वस्य जनिम भवति तस्मादत्र स्वर्वर्द्धते यः परस्त्वमामासु पूर्षु द्रुहो रिषः संपृचः सूरीनप्रमृष्यं च पाहि त्वामरातयो न पीडयन्ति अनृतानि न विनशन् प्राप्नुवन्ति ॥६॥

    पदार्थः

    (अश्वस्य) वीर्यप्रदातुमर्हतः। अश्व इति महन्नाम। निघं० ३। ३। (अत्र) अस्मिन् व्यवहारे (जनिम) जन्म (अस्य) (च) (स्वः) सुखम् (द्रुहः) द्रोग्धुरीर्ष्यकात् (रिषः) हिंसकात् (संपृचः) संयुक्तात् (पाहि) रक्ष (सूरीन्) विदुषः (आमासु) गृहे भवासु (पूर्षु) पुरीषु (परः) प्रकृष्टः (अप्रमृष्यम्) सोढुमनर्हम् (न) (अरातयः) शत्रवः (वि) (नशन्) आप्नुवन्ति। नशतीति व्याप्तिकर्मा निघं० २। १८। (न) (अनृतानि) मिथ्याकर्माणि ॥६॥

    भावार्थः

    यस्मिन्कुले महान्तो मनुष्या जायन्ते तत्र सुखमेधते यत्र शरीरात्मबला मनुष्याः स्युस्तत्र शत्रवः पीडां कर्त्तुं न शक्नुवन्ति न वीर्य्यवन्तोऽनृतान्यधर्मयुक्तानि कर्माणि कर्त्तुमुत्सहन्ते ॥६॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जिससे (अत्र) इस व्यवहार में (अस्य) इस (अश्वस्य) महान् वीर्य्य देनेवाले का (जनिम) जन्म होता है उससे यहाँ (स्वः) सुख बढ़ता है जो (परः) परमोत्तम आप (आमासु) घर में हुई (पूर्षु) पूरियों में (द्रुहः) ईर्ष्यक (रिषः) हिंसा और (संपृचः) संयोग करनेवालों के (सूरीन्) सम्बन्धी विद्वानों को (अप्रमृष्यम्,च) और सहने को न योग्य व्यवहारों को (पाहि) रक्षा करो और आपको (अरातयः) शत्रुजन (न) नहीं पीड़ा देने तथा (अनृतानि) मिथ्या कर्मों को (न) नहीं (विनशन्) विशेषता से प्राप्त होते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    जिस कुल के बीच बड़े महात्मा जन उत्पन्न होते हैं, वहाँ सुख बढ़ता है और जहाँ शरीर और आत्मा के बलयुक्त मनुष्य हों, वहाँ शत्रुजन पीड़ा नहीं कर सकते हैं और बलवान् पुरुष झूँठ अधर्मयुक्त कामों का उत्साह नहीं करते हैं ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या कुलात मोठे महात्मा लोक उत्पन्न होतात तेथे सुख वाढते व जेथे शरीर व आत्म्याने बलवान माणसे असतात तेथे शत्रू त्रास देत नाहीत. बलवान पुरुष खोट्या अधर्मयुक्त कामात उत्साही नसतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In the dynamics of water, fire and vital energy lies the source of virility, fertility and generation of the species. Herein lies the source of pleasure and happiness. O brilliant lord of generosity, protect the good and the pious people from the hateful, violent and destructive associates and encounters. It is perfect, beyond all stages short of ripeness in nature. Nothing false, opposed or negative can pollute or destroy it.

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