ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
ऋषि: - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्रो मधुश्च
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तुभ्यं॑ हिन्वा॒नो व॑सिष्ट॒ गा अ॒पोऽधु॑क्षन्त्सी॒मवि॑भि॒रद्रि॑भि॒र्नरः॑। पिबे॑न्द्र॒ स्वाहा॒ प्रहु॑तं॒ वष॑ट्कृतं हो॒त्रादा सोमं॑ प्रथ॒मो य ईशि॑षे॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑म् । हि॒न्वा॒नः । व॒सि॒ष्ट॒ । गाः । अ॒पः । अधु॑क्षन् । सी॒म् । अवि॑ऽभिः । अद्रि॑ऽभिः । नरः॑ । पिब॑ । इ॒न्द्र॒ । स्वाहा॑ । प्रऽहु॑तम् । वष॑ट्ऽकृतम् । हो॒त्रात् । आ । सोम॑म् । प्र॒थ॒मः । यः । ईशि॑षे ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्यं हिन्वानो वसिष्ट गा अपोऽधुक्षन्त्सीमविभिरद्रिभिर्नरः। पिबेन्द्र स्वाहा प्रहुतं वषट्कृतं होत्रादा सोमं प्रथमो य ईशिषे॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्यम्। हिन्वानः। वसिष्ट। गाः। अपः। अधुक्षन्। सीम्। अविऽभिः। अद्रिऽभिः। नरः। पिब। इन्द्र। स्वाहा। प्रऽहुतम्। वषट्ऽकृतम्। होत्रात्। आ। सोमम्। प्रथमः। यः। ईशिषे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्गुणानाह।
अन्वयः
हे इन्द्र यो हिन्वानस्तुभ्यं वसिष्ट हे नरो भवन्तोऽविभिरद्रिभिः सह सीमादित्य इव गा अपोऽधुक्षन्। हे इन्द्र प्रथमस्त्वं स्वाहा प्रहुतं होत्राद्वषट्कृतं सोममा पिब यस्त्वं सर्वानीशिषे स स्वयमपि तथा भव ॥१॥
पदार्थः
(तुभ्यम्) (हिन्वानः) वर्द्धयन् (वसिष्ट) वसेत् (गाः) वाचः (अपः) प्राणान् (अधुक्षन्) प्रपूरयन्तु (सीम्) आदित्यः (अविभिः) रक्षकैः (अद्रिभिः) मेघैः (नरः) नायकाः (पिब) (इन्द्र) यज्ञपते (स्वाहा) सत्क्रियया (प्रहुतम्) प्रकृष्टतया गृहीतम् (वषट्कृतम्) क्रियया निष्पादितम् (होत्रात्) दानात् (आ) (सोमम्) सदोषधिरसम् (प्रथमः) आदिमः (यः) (ईशिषे) ऐश्वर्यवान् भवेः ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये यज्ञानुष्ठानेन जलं संशोध्य तज्जन्यमोषधिरसं पीत्वा धर्म्मानुष्ठानेनैश्वर्यं स्वार्थं परार्थं च वर्द्धयन्ति ते सर्वतो वर्द्धन्ते ॥१॥
हिन्दी (1)
विषय
अब छः चा वाले छत्तीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के गुणों का वर्णन करते हैं ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) यज्ञपति ! जो (हिन्वानः) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (वसिष्ट) वसे वा, हे (नरः) नायक सर्वोत्तम जनों ! आप लोग (अविभिः) रक्षा करनेवाले (अद्रिभिः) मेघों के साथ (सीम्) आदित्य के समान (गाः) वाणी और (अपः) प्राणों को (अधुक्षन्) पूर्ण करो, हे (इन्द्र) यज्ञपते ! (प्रथमः) आदिभूत आप (स्वाहा) उत्तम क्रिया के साथ (प्रहुतम्) अत्युत्तमता से गृहीत (होत्रात्) दान के कारण (वषट्कृतम्) क्रिया से सिद्ध किये हुए (सोमम्) उत्तम ओषधियों के रस को (आ, पिब) अच्छे प्रकार पीओ (यः) जो आप सबके (ईशिषे) ईश्वर हो अर्थात् स्वामी अधिपति हो, वह आप भी वैसे होओ ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो यज्ञानुष्ठान से जल को शुद्ध कर उससे उत्पन्न हुए ओषधियों के रस को पीकर धर्म के अनुष्ठान से ऐश्वर्य अपने या औरों के लिये बढ़ाते हैं, वे सब ओर से बढ़ते हैं ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणा.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे यज्ञानुष्ठानाने जल शुद्ध करून त्यापासून उत्पन्न झालेल्या औषधींचा रस प्राशन करून धर्माच्या अनुष्ठानाने आपल्यासाठी किंवा इतरांसाठी ऐश्वर्य वाढवितात ते चहूकडून समृद्ध होतात. ॥ १ ॥
English (1)
Meaning
Indra, yajnapati, first and prime power who rule the world, let the person invoking you and rising in life settle down in peace and security for your sake. May the people like children of Aditi, mother Earth, receive the best of cows, lands and the holy Word and the best of water and energy with protective showers of the clouds. Indra, drink up the libations of soma, offered with dedication with the words ‘Svaha’ and ‘vashat’ from our yajna.
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