ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 36/ मन्त्र 6
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - मित्रावरुणौ नभस्यश्च
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
जु॒षेथां॑ य॒ज्ञं बोध॑तं॒ हव॑स्य मे स॒त्तो होता॑ नि॒विदः॑ पू॒र्व्या अनु॑। अच्छा॒ राजा॑ना॒ नम॑ एत्या॒वृतं॑ प्रशा॒स्त्रादा पि॑बतं सो॒म्यं मधु॑॥
स्वर सहित पद पाठजु॒षेथा॑म् । य॒ज्ञम् । बोध॑तम् । हव॑स्य । मे॒ । स॒त्तः । होता॑ । नि॒ऽविदः॑ । पू॒र्व्याः । अनु॑ । अच्छ॑ । राजा॑ना । नमः॑ । ए॒ति॒ । आ॒ऽवृत॑म् । प्र॒ऽशा॒स्त्रात् । आ । पि॒ब॒त॒म् । सो॒म्यम् । मधु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जुषेथां यज्ञं बोधतं हवस्य मे सत्तो होता निविदः पूर्व्या अनु। अच्छा राजाना नम एत्यावृतं प्रशास्त्रादा पिबतं सोम्यं मधु॥
स्वर रहित पद पाठजुषेथाम्। यज्ञम्। बोधतम्। हवस्य। मे। सत्तः। होता। निऽविदः। पूर्व्याः। अनु। अच्छ। राजाना। नमः। एति। आऽवृतम्। प्रऽशास्त्रात्। आ। पिबतम्। सोम्यम्। मधु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 36; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे राजाना मे हवस्य यज्ञं जुषेथां पूर्व्या निविदोऽच्छानुबोधतं यथा सत्तो होता आवृतं नम एति तथा युवां प्रशास्त्रात्सोम्यं मध्वा पिबतम् ॥६॥
पदार्थः
(जुषेथाम्) सेवेथाम् (यज्ञम्) विद्वत्सत्कारादिकम् (बोधतम्) विजानीतम् (हवस्य) दातुमादातुमर्हस्य (मे) मम (सत्तः) प्रतिष्ठितः (होता) दाता (निविदः) नितरां विदन्ति याभ्यस्ता वाचः। निविदिति वाङ्नाम निघं० १। ११। (पूर्व्याः) पूर्वैर्विद्वद्भिः सेविताः (अनु) (अच्छ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (राजाना) देदीप्यमानावध्यापकोपदेशकौ (नमः) अन्नम् (एति) आप्नोति (आवृतम्) समन्तादाच्छादितम् (प्रशास्त्रात्) (आ) (पिबतम्) (सोम्यम्) यत्सोममर्हति तत् (मधु) मधुरगुणोपेतम् ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथाऽध्यापका उपदेष्टारश्च युष्मान्प्रति प्रीत्या विद्यादानसत्योपदेशाभ्यां सह वर्त्तन्ते तथा यूयमपि वर्त्तध्वमिति ॥६॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति षट्त्रिंशत्तमं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गः सप्तमोऽध्यायश्च समाप्तः ॥ श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते ग्वेदभाष्ये द्वितीयाष्टके सप्तमोऽध्याय आदितः पञ्चदशोऽध्यायः परिपूर्णः। इति ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (राजाना) राजजनो ! (मे) मेरे (हवस्य) देने-लेने योग्य व्यवहारसम्बन्धी (यज्ञम्) विद्वानों के सत्कार आदि काम को (जुषेथाम्) सेवो (पूर्व्याः) पूर्व विद्वानों ने सेवन की हुई (निविदः) जिनसे निरन्तर विषयों को जानते हैं उन वाणियों को (अच्छ, अनु, बोधतम्) अच्छे प्रकार अनुकूलता से जानो जैसे (सत्तः) प्रतिष्ठित (होता) देनेवाला (आवृतम्) अत्युत्तमता से ढपे हुए (नमः) अन्न को (एति) प्राप्त होता है वैसे तुम दोनों (प्रशास्त्रात्) उत्तम शिक्षा करनेवाले से (सोम्यम्) शान्ति वा शीतलता के योग्य (मधु) मधुर गुणयुक्त रस को (आ, पिबतम्) अच्छे प्रकार पिओ ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पढ़ाने वा उपदेश करनेवाले आप लोगों के प्रति प्रीति से विद्यादान और सत्योपदेश के साथ वर्त्तमान हैं, वैसे आप भी वर्त्तें ॥६॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह छत्तीसवाँ सूक्त पच्चीसवाँ वर्ग और सप्तमाध्याय समाप्त हुआ ॥
विषय
शक्तिरक्षण व स्वायत्तशासन
पदार्थ
१. यह सोमपान करने की कामनावाला-शक्तिरक्षण की कामनावाला 'गृत्समद' समझता है कि रागद्वेष की वृत्तियाँ भी सोमरक्षण के प्रतिकूल होती हैं। सोमरक्षण के लिए इनसे ऊपर उठना भी आवश्यक है। सो यह 'मित्रावरुणौ' को सम्बोधन करता हुआ कहता है कि तुम (यज्ञं जुषेथाम्) = मेरे जीवनयज्ञ का सेवन करो। मेरे जीवन में मित्र और वरुण का निवास हो– मैं सदा स्नेह व निर्देषता की वृत्ति से चलूँ । (मे हवस्य बोधतम्) = मेरी पुकार को आप जानो मेरी प्रार्थना को आप सुनो। (पूर्व्या:) = सृष्टि के प्रारम्भ में दी गई (निविदः) = ऋचाओं के (अनु) = अनुसार (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला यह आपका उपासक (सत्तः) = इस शरीररूप-वेदि में स्थित हुआ है। मैं यथासम्भव अपने जीवन को वेदज्ञान के अनुसार चलाने का प्रयत्न करता हूँ। इस शरीर में होता बनकर स्थित होता हूँ । २. हे (राजाना) = दीप्त होनेवाले तथा मेरे जीवन का नियमन करनेवाले मित्रावरुणो ! यह (आवृतम्) = सब दृष्टियों से वरण किया गया, अर्थात् सब दृष्टियों से जो महत्त्वपूर्ण है वह (नमः) = सोमरूप अन्न [नमः = अन्न] (अच्छा एति) = आपकी ओर आता है- आपको प्राप्त होता है। आप इस (सोम्यम् मधु) = सोम सम्बन्धी सारभूत वस्तु को (प्रशास्त्रात्) = प्रकृष्ट शासन के दृष्टिकोण से (आपिबतम्) = पीनेवाले होओ। इस सोम के शरीर में ही व्यापन से शरीर में रोगों व वासनाओं का शासन न होकर, हमारा अपना शासन बना रहता है। शरीर के हम स्वयं शासक होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - स्नेह व निर्देषता को अपनाकर हम सोमरक्षण करनेवाले बनें। इसके रक्षण से शरीर पर हमारा शासन होगा न कि रोगों व वासनाओं का । सूक्त का भाव यह है कि हम सोम का शरीर में रक्षण करेंगे तो [क] हम दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाले बनेंगे [ख] हमारा जीवन पवित्र होगा [ग] सब इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहेगी [घ] शरीर में अग्नितत्त्व ठीक स्थिति में होगा [ङ] हमें नृम्ण, सह व ओज प्राप्त होगा [च] हम अपने शासक स्वयं होंगे। इस सोमरक्षण का ही महत्त्व अगले सूक्त में भी द्रष्टव्य है -
विषय
राष्ट्र के शासकों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( राजाना ) उत्तम गुणों से चमकने वाले राजा रानी के समान स्त्री पुरुषो ! आप लोग ( मे ) मेरे ( हवस्य ) ग्रहण करने योग्य ज्ञान के ( यज्ञं ) सत्संग योग्य दान का ( जुषेथाम् ) प्रेम से सेवन किया करो । जब ( होता ) ज्ञान का देने वाला विद्वान् ( सत्तः ) अच्छी प्रकार विराजे तब आप दोनों ( नमः अच्छ एत्य ) विनयपूर्वक उसके समक्ष आकर ( प्रशास्त्रात् ) उत्तम प्रवचन करने वाले विद्वान् से ( पूर्व्याः निविदः ) पूर्व विद्वानों से सेवन की और प्रवचन की गयी वेदवाणियों को ( अनु बोधतम् ) अच्छी प्रकार ज्ञान करो वा ( पूर्व्याः निविदः ) पूर्व की पुरातन वेद वाणी से ( मे हवस्य ) आत्मा के ग्राह्य ( यज्ञं ) और उपास्य परम आत्मा के स्वरूप को ( अनु बोधतम् ) निरन्तर ज्ञान करो । और ( सोम्यं ) शान्तिदायक ( मधु ) अन्न के समान ही ( आवृतं ) सब प्रकार से छुपे, अप्रकट ( सोम्यं मधु ) उत्तम शिष्यों के योग्य ‘मधु’ ब्रह्म ज्ञान का (आ पिबतम्) अच्छी प्रकार ग्रहण करो । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥ इति सप्तमोऽध्यायः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ १ इन्द्रो मधुश्च। २ मरुतो माधवश्च। ३ त्वष्टा शुक्रश्च। ४ अग्निः शुचिश्च। ५ इन्द्रो नभश्च। ६ मित्रावरुणौ नभस्यश्च देवताः॥ छन्दः— १,४ स्वराट् त्रिष्टुप् । ३ ५, ६ भुरिक त्रिष्टुप् । २, ३ जगती ॥ षडृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे अध्यापक, उपदेशक तुमच्याबरोबर प्रेमाने विद्यादान करून सत्योपदेशाने वागतात तसे तुम्हीही वागा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O brilliant Mitra and Varuna, friendly lord of the rule of law, administrators and people of the earth, join and participate in my yajna for the nation in honour of the Lord. Listen and appreciate the revealing voices of knowledge gifted by the saints and scholars old and new. Just as the yajaka seated and established in yajnic acts of creation and development receives the gifts of food and sustenance from yajna well-preserved, so you too receive the gifts of peace and prosperity from the scholars of Shastras and enjoy the honey sweets of the good life.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O illustrious teachers and preachers ! accept with love my this invocation and Yajna in the form of the respect shown to the wise etc. (May you know well the meaning of the respect shown to the wise etc.). May you know well the meaning of the mantras learnt by the ancient seers. As a respectable liberal donor obtains food well covered from all sides, in the same manner both of you, drink, the sweet Soma libation prepared under the Shastrtic methods.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! the teachers and preachers deal with you lovingly by way of imparting knowledge and delivering sermons regarding truth. Likewise, you should treat them with love and respect.
Foot Notes
(यज्ञम् ) विद्यात्सत्कारदिकम्। = Yajna in the form of the respect shown to the wise, association of the enlightened persons and donation. (निविदः) नितरां विदन्ति याभ्यस्ता वाचः | निविदिति वाङ्नाम् (NG. 1-11) =The Vedic speech which gives good knowledge. (राजाना ) देदीप्यमानावध्यापकोदेशको । राजाना is from राजृ-दीप्तौ to Shine. = Resplendent or illustrious teachers and preachers.
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