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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 38/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - सविता छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वया॑ हि॒तमप्य॑म॒प्सु भा॒गं धन्वान्वा मृ॑ग॒यसो॒ वि त॑स्थुः। वना॑नि॒ विभ्यो॒ नकि॑रस्य॒ तानि॑ व्र॒ता दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्मि॑नन्ति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वया॑ । हि॒तम् । अप्य॑म् । अ॒प्ऽसु । भा॒गम् । धन्व॑ । अनु॑ । आ । मृ॒ग॒यसः॑ । वि । त॒स्थुः॒ । वना॑नि । विऽभ्यः॑ । नकिः॑ । अ॒स्य॒ । तानि॑ । व्र॒ता । दे॒वस्य॑ । स॒वि॒तुः । मि॒न॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वया हितमप्यमप्सु भागं धन्वान्वा मृगयसो वि तस्थुः। वनानि विभ्यो नकिरस्य तानि व्रता देवस्य सवितुर्मिनन्ति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वया। हितम्। अप्यम्। अप्ऽसु। भागम्। धन्व। अनु। आ। मृगयसः। वि। तस्थुः। वनानि। विऽभ्यः। नकिः। अस्य। तानि। व्रता। देवस्य। सवितुः। मिनन्ति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 38; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरविषयमाह।

    अन्वयः

    हे जगदीश्वर यत्त्वया सह वर्त्तमाना मृगयसः प्राणिनोऽप्सु हितमप्यं भागमन्वा तस्थुर्विभ्यो धन्व वनानि च त्वया निर्मितानि तानि तवाऽस्य सवितुर्देवस्य व्रता केऽपि नकिर्विमिनन्ति ॥७॥

    पदार्थः

    (त्वया) (हितम्) (अप्यम्) अप्सु प्राणेषु भवम् (अप्सु) जलेषु (भागम्) भजनीयम् (धन्व) अन्तरिक्षम्। धन्वेत्यन्तरिक्षना० निघं० १। ३। (अनु) (आ) (मृगयसः) मृगादयः (वि) (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वनानि) (विभ्यः) पक्षिभ्यः (नकिः)(अस्य) (तानि) (व्रता) व्रतानि गुणकर्मशीलानि (देवस्य) कमनीयस्य (सवितुः) सकलैश्वर्य्यं प्रापयत ईश्वरस्य (मिनन्ति) हिंसन्ति ॥७॥

    भावार्थः

    यदीश्वरो भूम्यादिकं भोग्यान्पेयाञ्चूष्यान्लेह्यान्पदार्थान् न निर्मिमीत तर्हि कोऽपि शरीरं जीवनं च धर्त्तुं न शक्नुयात्। ईश्वरेण यदर्था ये नियमाः संस्थापितास्तदुल्लङ्घनं कर्त्तुं कोऽपि समर्थो न भवति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे जगदीश्वर ! जो (त्वया) आपके नियम के साथ वर्त्तमान (मृगयसः) मृग आदि वन्य प्राणी (अप्सु) जलों में (हितम्) स्थापित किये हुए वा (अप्यम्) प्राणों में प्रसिद्ध हुए (भागम्) सेवन करने योग्य अंश को (अनु,आ,तस्थुः) अनुकूलता से प्राप्त होते हैं तथा (विभ्यः) पक्षियों के लिये (धन्व) अन्तरिक्ष और (वनानि) वनों को आपने बनाया (तानि) उन (अस्य) इन आप (सवितुः) सकलैश्वर्य्य को प्राप्त करनेवाले (देवस्य) मनोहर ईश्वर के (व्रता) गुण-कर्म-स्वभावों को कोई भी (नकिः) नहीं (विमिनन्ति) नष्ट करते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    यदि ईश्वर भूमि आदि स्थान तथा भोग्य-पेय-चूष्य-लेह्य पदार्थों को न बनावे तो कोई भी शरीर और जीवन को धारण नहीं कर सकता, ईश्वर ने जिनके अर्थ जो नियम स्थापन किये हैं, उसके उल्लङ्घन करने को कोई समर्थ नहीं होता ॥७॥

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    विषय

    रेगिस्तानों में भी जल की सुलभता

    पदार्थ

    १. (त्वया) = हे सवितः देव! आप के द्वारा (हितम्) = रखे हुए (अप्यं भागम्) = जल सम्बन्धी सेवनीय अंश को (अप्सु) = प्रजाओं में (मृगयसः) = अन्वेषण करनेवाले लोग (धन्वा) = निर्जल मरुस्थलों में भी (अनु आवितस्थुः) = अनुक्रमेण समन्तात् अधिष्ठित करते हैं। रेगिस्तान में भी परमेश्वर की व्यवस्था के अनुसार इस सूर्य द्वारा वृष्टि होकर ऐसे शाद्वल प्रदेशों का सन्निवेश होता है, जहाँ कि लोगों के लिए यह जल सुलभ होता है और वह स्थान मनुष्यों के निवास योग्य बन जाता है । २. यह सूर्य (विभ्यः) = पक्षियों के लिए भी (वनानि) = [जीवनं भुवनं वनम्-उदकम्] जलों को प्राप्त कराता है। सूर्य, परमेश्वर की व्यवस्था के अनुसार गति करता हुआ जलों को वाष्पीभूत करके अन्तरिक्ष में पहुँचाता है। वहाँ से वृष्टि होकर सर्वत्र जल की प्राप्ति होती है। (अस्य सवितुः देवस्य) = इस प्रेरक प्रकाशमय सूर्य के (तानि व्रता) = उन व्रतों को (नकिः मिनन्ति) = कोई भी हिंसित नहीं करता । सूर्य के ये कर्म अविहतरूप से निरन्तर चलते हैं। इनसे सर्वत्र जल सुलभ होता है, वह जल जो कि प्राणियों का प्राण है 'आपोमयाः प्राणाः' ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु सूर्य द्वारा वृष्टि करके रेगिस्तानों में भी जल को सुलभ कर देते हैं।

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    विषय

    विजिगीषुवत् समावर्त्तन करके लौटते स्नातक का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य ( अप्सु अप्यं भागं दधाति ) अन्तरिक्ष प्रदेशों में किरणों द्वारा जलीय अंश को या जलों में प्राणहितकारी अन्नादि सेव्य अंश को धर देता है और ( धन्व ) मरु प्रदेश में ही ( मृगयसः ) जल एवं खाद्य अंश ढूंढने वाले प्राणि गण ( विभ्यः वनानि इव ) प्राणियों के निमित्त वनों में शिकारियों, व्याधों के समान ( अनु वितस्थुः ) ढूंढते फिरते हैं वे भी सूर्य के नियम बद्ध कर्मों को विनाश नहीं कर सकते उसी प्रकार हे राजन् ! हे विद्वन् ! ( त्वया ) तू भी ( अप्सु ) समीप प्राप्त प्रजाजनों में ( अप्यं ) ज्ञान और कर्म के योग्य वा आप्त प्रजाओं के प्राप्त करने योग्य ( भागं हितं ) सेवनीय ऐश्वर्य को स्थापित कर, ( मृगयसः अध्यं भागं धन्व ) मृग गण मरु देश में जिस प्रकार जल को ढूंढते २ फिरा करते हैं और ( मृगयसः विभ्यः वनानि ) जिस प्रकार मृग या व्यसनी लोग पक्षियों के लिये वनों २ भटकते हैं उसी प्रकार ( मृगयसः ) ऐश्वर्य और ज्ञान की खोज लगाने वाले जिज्ञासु और धनार्थी लोग ( धन्व ) धन युक्त प्रदेश और ज्ञान-जल से युक्त पुरुष को ( वि तस्थुः ) विविध प्रकार से प्राप्त हों और ( मृगयसः ) खोजी लोग ही ( विभ्यः ) अपने प्राणों और विद्वानों के लिये ( वनानि ) सेवनीय ज्ञानों और प्रकाशों और भोग्य पदार्थों को प्राप्त हो । ( देवस्य सवितुः ) सर्वज्ञान और ऐश्वर्य के दाता, ( सवितुः ) ऐश्वर्यवान् शासक, ज्ञान गर्भ से उत्पादक विद्वान् पुरुष के ( तानि व्रता ) उन सभी नाना व्रतों, नियमों को ( नकिः मिनन्ति ) कोई कभी नाश नहीं करें, नहीं तोड़ें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ सविता देवता ॥ छन्दः– १, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् ३, ४, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७,८ स्वराट् पङ्क्तिः ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एका दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराने जर भूमी इत्यादी स्थान व भोज्य, पेय, चोष्य (चोखण्यायोग्य) लेह्य (चाटण्यायोग्य) पदार्थ बनविले नसते तर कुणीही शरीर धारण केले नसते. ईश्वराने ज्यांच्यासाठी नियम बनविलेले आहेत त्यांचे उल्लंघन करण्यास कोणी समर्थ होऊ शकत नाही. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord creator and ruler of existence, by you is created and provided life-giving energy in the waters. By you is created the sky, by you the forests, for the birds and the deer to fly, to roam and play. Those rules and laws of divine Savita they never violate, who can? No one does.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Lord of the world! these deer and other animals created by You seek water which is essential for their lives. You have created the firmament and forests for the birds, None can transgress or disobey these rules statutes of God, who is the Creator of the world.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If God would not create various articles on earth to be drunk, licked, sucked or otherwise eaten by different beings, none can sustain body and life. The rules of laws made by God for different creatures can not be transgressed by any one.

    Foot Notes

    (अप्यम्) अप्सु प्राणेषु भवम् । आपो वै प्राणा: (Stph. 3, 8, 2, 4) = Beneficial to the life or vital energy. (धन्व) अन्तरिक्षम। धन्वेत्यन्तरिक्ष्णाम्। = (NG 1/3) (भागम्) भजनीयम्। = Desirable, acceptable.

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