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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ग्रावा॑णेव॒ तदिदर्थं॑ जरेथे॒ गृध्रे॑व वृ॒क्षं नि॑धि॒मन्त॒मच्छ॑। ब्र॒ह्माणे॑व वि॒दथ॑ उक्थ॒शासा॑ दू॒तेव॒ हव्या॒ जन्या॑ पुरु॒त्रा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग्रावा॑णाऽइव । तत् । इत् । अर्थ॑म् । ज॒रे॒थे॒ इति॑ । गृध्रा॑ऽइव । वृ॒क्षम् । नि॒धि॒ऽमन्त॑म् । अच्छ॑ । ब्र॒ह्माणा॑ऽइव । वि॒दथे॑ । उ॒क्थ॒ऽशसा॑ । दू॒ताऽइ॑व । हव्या॑ । जन्या॑ । पु॒रु॒ऽत्रा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ग्रावाणेव तदिदर्थं जरेथे गृध्रेव वृक्षं निधिमन्तमच्छ। ब्रह्माणेव विदथ उक्थशासा दूतेव हव्या जन्या पुरुत्रा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ग्रावाणाऽइव। तत्। इत्। अर्थम्। जरेथे इति। गृध्राऽइव। वृक्षम्। निधिऽमन्तम्। अच्छ। ब्रह्माणाऽइव। विदथे। उक्थऽशासा। दूताऽइव। हव्या। जन्या। पुरुऽत्रा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वाय्वग्निगुणानाह।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यौ वाय्वग्नी ग्रावाणेव तदर्थमिदेव जरेथे विदथे गृध्रेव निधिमन्तं वृक्षमच्छ जरेथे ब्रह्माणेवोक्थशासा दूतेव हव्या जन्या पुरुत्रा वर्त्तेते तौ यूयं संप्रयोजयत ॥१॥

    पदार्थः

    (ग्रावाणेव) मेघाविव (तत्) एव (अर्थम्) द्रव्यम् (जरेथे) जरयतः (गृध्रेव) गृध्रा इव (वृक्षम्) वृश्चनीयं जलं स्थलं वा (निधिमन्तम्) बहवो निधयो विद्यन्ते यस्मिंस्तम् (अच्छ) (ब्रह्माणेव) यथा समग्रवेदविदौ (विदथे) शिल्पाख्ययज्ञे (उक्थशासा) उक्ता उक्था शासा शासनानि ययोस्तौ (दूतेव) दूतवद्वर्त्तमानौ (हव्या) आदातुमर्हौ (जन्या) जनितारौ (पुरुत्रा) पुरुषु बहुषु पदार्थेषु वर्त्तमानौ ॥१॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये वह्न्यादयः पदार्था मेघवत्पक्षिवद्विद्वद्वद्दूतवच्च कार्यसाधकाः सन्ति तान् विज्ञाय प्रयोजनानि साधनीयानि ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब उनतालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में वायु और अग्नि के गुणों को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जो वायु और अग्नि (ग्रावाणेव) दो मेघों के समान (तत्) उस (अर्थम्, इत्) द्रव्य को ही (जरेथे) नष्ट करते वा (विदथे) शिल्प यज्ञ में (गृध्रेव) गृद्धों के समान (निधिमन्तम्) जिसमें बहुत निधि धनकोष विद्यमान उस (वृक्षम्) छेदन करने योग्य जलस्थल को (अच्छ) अच्छे प्रकार नष्ट करते (ब्रह्माणेव) और जैसे समस्त वेदवेत्ता जन हों वैसे वर्त्तमान (उक्थशासा) वा जिनकी शिक्षायें कही हुई हैं उन (दूतेव) दूतों के समान वर्त्तमान (हव्या) तथा ग्रहण करने योग्य (जन्या) अनेक पदार्थों की उत्पत्ति करनेवाले (पुरुत्रा) और बहुत पदार्थों में वर्त्तमान हैं उन वायु और अग्नि का अच्छे प्रकार प्रयोग तुम लोग करो ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो वह्नि आदि पदार्थ मेघ वा पक्षियों तथा विद्वानों और दूत के समान कार्य्यसिद्धि करनेवाले हैं, उनको जानके प्रयोजनों को सिद्ध करना चाहिये ॥१॥

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    विषय

    'ग्रावाणा- गृध्रा ब्रह्माणा- दूता'

    पदार्थ

    १. गत सूक्त के अन्तिम मन्त्र के अनुसार त्रिलोक का धन प्राप्त होने पर प्रस्तुत सूक्त के देवता 'अश्विनौ', अर्थात् हमारे प्राणापान ग्रावाणा इव दो स्तोताओं की तरह होते हैं। ये (इत्) = निश्चय से (तद् अर्थम्) = उस सर्वव्यापक [तन् विस्तारे] गन्तव्य [ऋ गतौ] प्रभु का ही जरेथे स्तवन करते हैं। हमारे प्राणापानों से प्रभु के नाम का ही जप चलता है। २. ये प्राणापान (गृध्रा इव) = दो गृध्र पक्षियों के समान होते हैं। जैसे वे निवासस्थानभूत (वृक्षम्) = वृक्ष की ओर जाते हैं उसी प्रकार ये (निधिमन्तम् अच्छ) = ऐश्वर्यसम्पन्न इस पञ्चकोशात्मक शरीर की ओर जाते हैं। यह शरीर अन्नमयकोश में 'तेज' प्राणमय में 'वीर्य' मनोमय में 'बल व ओज' विज्ञानमय में 'ज्ञान', मन्यु तथा आनन्दमय में 'सहस्' रूप ऐश्वर्यवाला है। इस निधिमान् शरीर को ये प्राणापान प्राप्त होते हैं । प्राणसाधना से ही वस्तुतः यह सब ऐश्वर्य प्राप्त होता है । ३. ये प्राणापान (ब्रह्माणा इव) = दो ब्रह्मपाठी वेदज्ञ ब्राह्मणों के समान हैं। (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में ये (उक्थशासा) = स्तोत्रों का शंसन करनेवाले हैं। प्राणसाधना से बुद्धि तीव्र होकर ही तो मनुष्य ब्रह्मपाठी बन पाता है। ५. (दूता इव) = ये प्राणापान दूतों के समान हैं। (हव्या) = ये पुकारने योग्य हैं। जैसे हम अन्य राष्ट्रों के दूतों को आमन्त्रित करते हैं, इसी प्रकार ये प्राणापान प्रभु के हव्य दूतों के समान हैं। (जन्या) = ये लोगों का हित करनेवाले हैं और (पुरुत्रा) = पालक व पूरक तथा त्राण करनेवाले हैं। प्राणसाधना से ही सब हित सम्भव होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणापान द्वारा प्रभु का स्तवन होता है। ये शरीर को ऐश्वर्य सम्पन्न बनाते हैं ज्ञानवृद्धि के ये कारण हैं तथा प्रभु के दूतों के समान हैं। ये हमारा भला ही भला करते हैं ।

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    विषय

    विद्वानों वीरों और उत्तम स्त्री पुरुषों एवं वर वधू के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ! हे विद्वान् और वीर पुरुषो ! ( ग्रावाणा इव ) जिस प्रकार दो बड़ी शिलाएं, चक्की के दोनों पाट, या सिल बट्टा दोनों मिलकर ( अर्थं जरेथे ) किसी भी पदार्थ को पीस कूट कर नष्ट कर देते हैं या जीर्ण, महीन, सूक्ष्मकर और पचने योग्य कर देते हैं और जिस प्रकार ( ग्रावाणा इव ) दो महामेघ या मेघ और वायु मिलकर ( अर्थं ) अर्थ अर्थात् अर्ति, ताप, पीड़ा को ( जरेथे ) नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार आप दोनों ( ग्रावाणा ) उत्तम वचनों और उपदेशों को कहने वाले होकर ( तत् इत् ) उसी परम, उपादेय ( अर्थं ) अर्थ, अर्थात् प्राप्त करने योग्य परम तत्व ब्रह्म का ( जरेथे ) उपदेश करो, वा, ( अर्थं जरेथे ) अति पीड़ाजनक शत्रु का नाश करो । अथवा मेघों के समान पीड़ा को शान्त करो । ( गृध्रा इव वृक्षं ) जिस प्रकार गीधों का जोड़ा वृक्ष पर अपनी आयु शेष करता है। उसी प्रकार तुम दोनों ( वृक्षं ) वृक्ष के समान भूमि को प्राप्त कर स्थित हुए, ( निधिमन्तं ) कोश, खजाने के स्वामी को ( अच्छ ) सदा प्राप्त करो। ( ब्रह्मणा इव विइथे ) यज्ञ में जिस प्रकार दो विद्वान् ब्राह्मण ( उक्थशासा ) उक्थ अर्थात् उत्तम वेदों के सूक्तों को कहने वाले होकर ( जरेथे ) वेद मन्त्रों का उच्चारण करते हैं उसी प्रकार आप दोनों ( विदथे ) ज्ञान उपदेश करने के अवसर में ( ब्रह्माणा ) वेद के विद्वान् ( उक्थशासा ) उत्तम वचन कहने वाले होकर ( जरेथे ) उपदेश करो । ( दूता इव ) और जिस प्रकार दो दूत ( हव्या ) हव अर्थात् युद्धों के अवसरों में संधि विग्रह कराने में कुशल ( जन्या ) जनों के हितकारक होकर ( पुरुत्रा ) बहुत से पुरुषों के त्राण करने वाले होकर ( जरेथे ) अपना संदेश कहते हैं उसी प्रकार तुम दोनों भी ( हव्या ) उत्तम वचनों के योग्य ( जन्या ) उत्तम सन्तान उत्पन्न करने वाले और ( पुरुत्रा ) बहुतसों के रक्षक एवं बहुत पदार्थों के स्वामी होकर ( जरेथे ) जीवन यापन करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप। ४, ७, ८ त्रिष्टुप। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात वायू व अग्नी इत्यादी पदार्थ किंवा विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे अग्नी इत्यादी पदार्थ मेघ व पक्ष्याप्रमाणे, विद्वानाप्रमाणे व दूताप्रमाणे कार्यसिद्धी करणारे असतात, त्यांना जाणून प्रयोजन सिद्ध करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of life’s heat and light, breath of being and energy, spirit of passion and action, complementary currents of the circuit of existence, you approach the earth like two clouds of rain to augment her wealth. You come like two eager birds and sit on the tree of life laden with fruit to enjoy yourselves to the full. In the yajna of development, you are two priests who chant the hymns of celebration and prayer. And in life in general, you are like two welcome harbingers who create and help us create the abundance of earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The nature and components of the air and fire are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! you should properly utilize air and fire like the two clouds that alleviate heat and rains; or like the two vultures who spend their life on a tree; or like the two needy persons who approach a wealthy person; or like two mantra-reciting Brahmanas in a Yajna in the form of technology or otherwise. They are also comparable with the royal messengers in the land and welcomed by many people. They are acceptable and harbingers of happiness because of their presence on several occasions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Fire, water and other articles which accomplish various purposes like the clouds, the birds and the messengers-they all should be known properly and be utilized for the accomplishment of desirable objects.

    Foot Notes

    (ग्रावाणेव) मेघाविव | ग्रावा इति मेघनाम (NG. 1, 10) = Like the clouds. (विदये) शिल्पाख्ये यज्ञे । विदथ इति यज्ञनाम (NG. 3, 17) = The Yajna is here particularly for the technology. (हव्या ) आदातुमर्हौ। =Acceptable. (जन्या) जनितारौ। = Producers or harbingers of happiness. (पुरुत्रा ) पुरुषु बहुषु पदार्थेषु वर्त्तमानौ । = Present in many things.

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