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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 39/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अश्विनौ छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ओष्ठा॑विव॒ मध्वा॒स्ने वद॑न्ता॒ स्तना॑विव पिप्यतं जी॒वसे॑ नः। नासे॑व नस्त॒न्वो॑ रक्षि॒तारा॒ कर्णा॑विव सु॒श्रुता॑ भूतम॒स्मे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओष्ठौ॑ऽइव । मधु॑ । आ॒स्ने । वद॑न्ता । स्तनौ॑ऽइव । पि॒प्य॒त॒म् । जी॒वसे॑ । नः॒ । नासा॑ऽइव । नः॒ । त॒न्वः॑ । र॒क्षि॒तारा॑ । कर्णौ॑ऽइव । सु॒ऽश्रुता॑ । भू॒त॒म् । अ॒स्मे इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओष्ठाविव मध्वास्ने वदन्ता स्तनाविव पिप्यतं जीवसे नः। नासेव नस्तन्वो रक्षितारा कर्णाविव सुश्रुता भूतमस्मे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओष्ठौऽइव। मधु। आस्ने। वदन्ता। स्तनौऽइव। पिप्यतम्। जीवसे। नः। नासाऽइव। नः। तन्वः। रक्षितारा। कर्णौऽइव। सुऽश्रुता। भूतम्। अस्मे इति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 39; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यूयं यावास्ने मध्वोष्ठाविव वदन्ता जीवसे स्तनाविव नः पिप्यतं नासेव नस्तन्वो रक्षितारा अस्मे कर्णाविव सुश्रुता भूतं तावग्निवायू विदितौ कारयत ॥६॥

    पदार्थः

    (ओष्ठाविव) (मधु) (आस्ने) आस्याय मुखाय (वदन्ता) ब्रुवन्तौ (स्तनाविव) (पिप्यतम्) प्याययतो वर्द्धयतः (जीवसे) जीवितुम् (नः) अस्मभ्यम् (नासेव) नासिके इव (नः) अस्माकम् (तन्वः) शरीरस्य (रक्षितारा) रक्षकौ (कर्णाविव) (सुश्रुता) शोभनं श्रुतं याभ्यान्तौ (भूतम्) भवतः (अस्मे) अस्मभ्यम् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। येऽध्यापका जिह्वया रसमिव स्तनेन दुग्धमिव नासिकया गन्धमिव श्रोत्रेण शब्दमिव सर्वा विद्याः प्रत्यक्षीकारयन्ति ते जगत्पूज्या भवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे विद्वानो! तुम जो (आस्ने) मुख के लिए (मधु) मधुर रस को (ओष्ठाविव) ओष्ठों के समान (वदन्ता) कहते हुए (जीवसे) जीवने को (स्तनाविव) स्तनों के समान (नः) हमारे लिए (पिप्यतम्) बढ़ाते अर्थात् जैसे स्तनों में उत्पन्न हुए दुग्ध से जीवन बढ़ता है, वैसे बढ़ाते (नासेव) और नासिका के समान (नः) हमारे (तन्वः) शरीर की (रक्षितारा) रक्षा करनेवाले वा (अस्मे) हम लोगों के लिये (कर्णाविव) कर्णों के समान (सुश्रुता) जिनसे सुन्दर श्रवण होता है ऐसे (भूतम्) होते हैं उन वायु और अग्नि को विदित कराइये ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो अध्यापक जिह्वा से रस के समान, स्तनों से दुग्ध के समान, नासिका से गन्ध के तुल्य, कान से शब्द के समान समस्त विद्याओं को प्रत्यक्ष कराते हैं, वे जगत्पूज्य होते हैं ॥६॥

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    विषय

    ओष्ठौ-स्तनौ-नासा-कर्णौ

    पदार्थ

    १. (ओष्ठौ इव) = ये प्राणापान दो ओष्ठो की तरह हैं। ये (आस्ने) = मुख में (मधुवदन्ता) = सदा मधुर शब्दों का ही उच्चारण करते हैं। प्राणसाधक की वाणी मधुर होती है-यह कभी कड़वे शब्दों को नहीं बोलता। २. (स्तनौ इव) = ये दो स्तनों की तरह हैं। जैसे स्तन दूध द्वारा बालक का आप्यायन करते हैं, उसी प्रकार ये प्राणापान (नः) = हमें (जीवसे) = उत्कृष्ट जीवन के लिए (पिप्यतम्) = आप्यायित करनेवाले हों। ३. (नासा इव) = ये दो नासाछिद्रों के समान हैं। जैसे ये नासाछिद्र शुद्ध वायु को ग्रहण व अशुद्ध को बाहर फेंकने द्वारा हमारा रक्षण करते हैं, उसीप्रकार ये प्राणापान (नः) = हमारे (तन्वः) = शरीर की (रक्षितारा) = रक्षा करनेवाले हों। ४. (कर्णौ इव) = ये दो कानों की तरह (अस्मे) = हमारे लिए (सुश्रुता) = उत्तम श्रवण करनेवाले (भूतम्) = हों। प्राणसाधना से हमारी प्रवृत्ति सदा उत्तम बातों को सुनने की हो और इस प्रकार यह प्राणसाधना हमारे ज्ञान का वर्धन करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधक की वाणी मधुर होती है, जीवन आप्यायित होता है। शरीर की शक्तियों का रक्षण होता है और उत्तम बातों के सुनने की वृत्ति बनकर ज्ञानवर्धन होता है ।

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    विषय

    विद्वानों वीरों और उत्तम स्त्री पुरुषों एवं वर वधू के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( ओष्ठा इव आस्ने ) मुख के ओठों के समान ( मधु वदन्ता ) मधुर, आनन्दप्रद वचन बोलते हुए ( स्तना इव ) बच्चों को स्तनों के समान ( नः ) हमें ( जीवसे ) जीवन वृद्धि के लिये ( पिप्यतं ) पुष्ट करो। ( नासा इव ) दोनों नाकों के समान ( नः तन्वः रक्षितारा ) हमारे शरीर की रक्षा करनेहारे और ( कर्णा इव ) दो कानों के समान ( अस्मे ) हमारे बीच ( सुश्रुता ) उत्तम रीति से श्रवण करने वाले होकर ( भूतम् ) रहो । ( २ ) उसी प्रकार विद्युत् जलादि भी उत्तम वाद्य के समान बजने और शरीर में बल देने वाले, प्राण शक्ति देनेवाले और उत्तम सूक्ष्म शब्द सुनने के साधन बनें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप। ४, ७, ८ त्रिष्टुप। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे अध्यापक जिह्वेने रसाप्रमाणे, स्तनाने दुधाप्रमाणे, नासिकेद्वारे गंधाप्रमाणे, कानाने शब्दाप्रमाणे संपूर्ण विद्यांना प्रत्यक्ष करवितात ते जगात पूज्य ठरतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like the lips, speaking honey sweet for the mouth, help us to be sweet. Like the mother’s breast, nourish and sustain us to live. Like the nostrils, sustain our body with the breath of life. And like the ears, be listeners for us to give us the voice divine.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of learned persons further moves.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! impart us the knowledge about the fire and air which are like the two lips that enable the mouth to speak sweet words. They are also like two nostrils that preserve our body (through breathings), let them be to us like two ears that hear well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those teachers become venerable in the whole world who make all sciences easily perceptible like the taste with tongue, like the milk from the mother's udders, like the smell or odour with noses and like the sound with the ears.

    Foot Notes

    (पिप्यतम्) प्याययतो वर्द्धयतः । ओ प्यायी - वृद्धौ भ्वा० । = Increase.

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