ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
ऋषिः - सोमाहुतिर्भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिपाद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
शुचिः॑ पावक॒ वन्द्योऽग्ने॑ बृ॒हद्वि रो॑चसे। त्वं घृ॒तेभि॒राहु॑तः॥
स्वर सहित पद पाठशुचिः॑ । पा॒व॒क॒ । वन्द्यः॑ । अग्ने॑ । बृ॒हत् । वि । रो॒च॒से॒ । त्वम् । घृ॒तेभिः॑ । आऽहु॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुचिः पावक वन्द्योऽग्ने बृहद्वि रोचसे। त्वं घृतेभिराहुतः॥
स्वर रहित पद पाठशुचिः। पावक। वन्द्यः। अग्ने। बृहत्। वि। रोचसे। त्वम्। घृतेभिः। आऽहुतः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे पावकाऽग्ने घृतेभिः प्रदीप्तोऽग्निरिव शुचिर्वन्द्य आहुतस्त्वं बृहद्विरोचसे स सत्कर्त्तव्योऽसि ॥४॥
पदार्थः
(शुचिः) पवित्रः (पावकः) पवित्रकर्त्तः (वन्द्यः) स्तोतुमर्हः (अग्ने) अग्निवत्प्रकाशमान विद्वन् (बृहत्) महत् (वि) विशेषे (रोचसे) प्रकाशसे (त्वम्) (घृतेभिः) आज्यादिभिः (आहुतः) आमन्त्रितः ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा घृतादिभिः प्रज्वालितः पवित्रकर्त्ताऽग्निर्बहु रोचते तथा सत्कृतो विद्वान् बहु उपकारं करोति ॥४॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (पावक) पवित्र करनेवाले (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान ! (घृतेभिः) घी आदि पदार्थों से अग्नि के समान (शुचिः) पवित्र (वन्द्यः) स्तुति के योग्य (आहुतः) आमन्त्रित (त्वम्) आप (बृहत्) बहुत (विरोचसे) प्रकाशमान होते हैं, सो सत्कार करने योग्य हैं ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे घी आदि पदार्थों से प्रज्वलित किया हुआ पवित्र करनेवाला अग्नि बहुत प्रकाशित होता है, वैसे सत्कार पाया हुआ विद्वान् जन बहुत उपकार करता है ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा घृत इत्यादी पदार्थांनी प्रज्वलित केलेला अग्नी अत्यंत प्रकाशमान असतो, तसे सत्कारित विद्वान अत्यंत उपकारक असतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, pure and brilliant, burning, cleansing and creating, you are the power adorable, refulgent, shining bright, vast and mighty. And among us you are invoked, kindled, raised and fed and raised into flames of light and fire with profuse libations of ghrta in joint yajna.
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