ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
अत्रि॒मनु॑ स्व॒राज्य॑म॒ग्निमु॒क्थानि॑ वावृधुः। विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॑ दधे॥
स्वर सहित पद पाठअत्रि॑म् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् । अ॒ग्निम् । उ॒क्थानि॑ । व॒वृ॒धुः॒ । विश्वाः॑ । अधि॑ । श्रियः॑ । द॒धे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्रिमनु स्वराज्यमग्निमुक्थानि वावृधुः। विश्वा अधि श्रियो दधे॥
स्वर रहित पद पाठअत्रिम्। अनु। स्वऽराज्यम्। अग्निम्। उक्थानि। ववृधुः। विश्वाः। अधि। श्रियः। दधे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यान्युक्थान्यत्रिं स्वराज्यमग्निं चानु वावृधुर्यथा तैर्विश्वाः श्रियोऽहमधिदधे तथा युष्माभिरप्याचरणीयम् ॥५॥
पदार्थः
(अत्रिम्) अत्तारम् (अनु) (स्वराज्यम्) स्वप्रकाशवन्तम् (अग्निम्) विद्युतम् (उक्थानि) वक्तुं योग्यानि वचनानि (वावृधुः) वर्द्धयन्ति (विश्वाः) अखिलाः (अधि) (श्रियः) लक्ष्मीः (दधे) उपरि दधाति ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विदुषां योग्यताऽस्ति यैरुपदेशैरग्न्यादिपदार्थविद्या राज्यश्रियश्च वर्द्धेरँस्तैः सर्वानुद्योगिनः सम्पादयन्तु ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (उक्थानि) कहने योग्य वचन (अत्रिम्) सब पदार्थ भक्षण करनेवाले (स्वराज्यम्) अपने प्रकाश से युक्त (अग्निम्) बिजुली रूप अग्नि को (अनु,वावृधुः) अनुकूलता से बढ़ाते हैं, और जैसे उनसे (विश्वाः) समस्त (श्रियः) धनों को (अधि,दधे) अधिक-अधिक मैं धारण करता हूँ, वैसे तुमको भी धारण करना चाहिये ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों की योग्यता है, कि जिन उपदेशों से अग्न्यादि पदार्थविद्या राज्यलक्ष्मी बढ़े, उनसे सबको उद्योगी करें ॥५॥
विषय
अत्रि व स्वराज्य
पदार्थ
१. हमारे जीवनों में (अत्रिम् अनु) = अत्रि का लक्ष्य करके [अनुर्लक्षणे] (उक्थानि वावृधुः) = प्रभु के स्तोत्र बढ़ते हैं, अर्थात् हम इसलिए प्रभु के स्तोत्रों को करते हैं कि हम अत्रि बन सकेंहमारे जीवन से 'काम-क्रोध-लोभ' ये तीनों ही आसुरभाव लुप्त हो जाएँ। २. इसी प्रकार (स्वराज्यम्) = अनु–आत्मशासन का लक्ष्य करके हमारे जीवन में प्रभु के स्तोत्र बढ़ते हैं। प्रभु-स्तवन से हम आत्मसंयमवाले होते हैं और इस प्रकार वे प्रभु (विश्वाः) = सब श्(रियः) = श्रियों को (अधिदधे) = आधिक्येन धारण करते हैं, जो भी पुरुष 'अत्रि व स्वराज्य' बनता है, 'काम, क्रोध, लोभ' से ऊपर उठता है तथा अपना शासन अपने आप करता है' वह श्रीसम्पन्न जीवनवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अत्रि व स्वराज्य बनने के लिए ख़ूब ही प्रभुस्तवन करें। इसी प्रकार हमारा जीवन श्रीसम्पन्न बनेगा।
विषय
सूर्यवत् उत्तम नायक के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( अत्रिम् ) सब पदार्थों में विद्यमान्, स्वयंप्रकाश, अग्नि को लक्ष्य कर ( उक्थानि ) यज्ञादि में उत्तम वचन बढ़ते हैं और वह ( विश्वाः श्रियः दधे ) शोभा कान्तियों को धारता है उसी प्रकार यह जो ( विश्वा श्रियः ) समस्त राज्य लक्ष्मियों को ( अभि दधे ) अपने वश में रखता है। उस ही ( अत्रिम् ) ऐश्वर्य के भोक्ता ( स्वराज्यम् ) अपनी राजसत्ता के स्वामी, ( अग्निम् ) अग्रणी नायक को ( अनु ) लक्ष्य करके ( उक्थानि ) नानास्तुति वचन ( वावृधुः ) बढ़ते हैं। यहां, हृदय में सर्वत्र विद्यमान् होने से परमेश्वर ‘अत्रि’ है । वह स्वयंप्रकाश होने से ‘स्वराज्य’ है । उस अग्रणी अनादि प्रभु को लक्ष्य करके सब (उक्थानि) वेद वचन उसको बढ़ाते, स्तुति करते हैं । वह सब विभूतियों को धारण करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १ गायत्री । २ निचृत् पिपीलिकामध्या गायत्री। ३, ५ निचृद्गायत्री। ४ विराड् गायत्री। ६ निचृदनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
अत्रिमनु स्वराज्यम्,अग्निमुक्थानि वावृध:।
विश्वा अधि श्रियो दधे।। ऋ•२.८.५
वैदिक भजन ११४७ वां
राग देस
गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
ताल छपताल १० मात्रा
कर्म फल को भोगने इस देह में आए
जीवात्मा को त्रिविध दु:ख सताए
कर्म फल........
आध्यात्मिक आधि भौतिक आधिदैविक कष्ट दुख
मन के ही द्वारा यह होते हैं अनुभूत
आओ निज आत्मा को अत्रि बनायें
कर्मफल.........
मनोवांछित दिव्य पदार्थ मिले ना
अध्यात्म की जो विफल होवे साधना
मन बुद्धि के दोष आध्यात्मिक दु:ख लाये
कर्मफल..........
यदि देह- इन्द्रियां रुग्ण होती जाएं
और अशक्ति का कारण बनती जाएं
आधिभौतिक दु:ख तो बस यही कहलाए
कर्मफल...........
अनावृष्टि अति वृष्टि भूकंप दुर्भिक्ष
दैवी उपद्रव है मन को अनिच्छ
आधिदैविक दु:ख बिन बताए आ जाए।।
कर्म फल..........
भाग २
कर्मफल को भोगने इस देह में आए
जीवात्मा को त्रिविध दु:ख सताए
कर्म फल..........
त्रिविध दु:ख जिस आत्मा को संयम सिखाए
जो विचलित ना होवे वो 'अत्रि ' कहलाए
वह आत्म-स्वराज्य अधिकारी बन जाए
कर्मफल......
अत्रि होकर आत्मा स्वराज को पाये
मन बुद्धि प्राणादि पर विजयी हो जाए
ना फिर कोई दु:ख दर्द मन को सताए
कर्म फल.......
यह आत्मत्रि मानव श्रेया, शोभा पाये
स्वराष्ट्र स्वराज्य का राजा बन जाए
विरोधी विद्रोही भी सब हार जाए
कर्मफल.........
आओ !आत्मा को हम अत्रि बनाएं
इसी को स्वराज-आराधक बनाएं
आध्यात्मिक शोभा का हम गौरव बढ़ायें
कर्मफल........
२२.९.२०२३
११.४५ रात्रि
शब्दार्थ:-
त्रिविध दु:ख= शआध्यात्मिक,आधिभौतिक आधिदैविकदुख
विफल= निरर्थक ,बिना फल का
रुग्ण= बीमार,
दुर्भिक्ष=अकाल
अनिच्छ= इच्छा रहित
'अत्रि' = त्रिविध संतापों एवं त्रिविध दु:खों से रहित आत्मा
श्रेया= प्रतिभा ,गरिमा
शोभा= सुन्दरता ,कान्ति
विद्रोही= बागी, वैरी
आराधक= भक्ति, पूजा करने वाला
🕉🧘♂️
द्वितीय श्रृंखला का १४० वां वैदिक भजन और अब तक का ११४७ वां वैदिक भजन🎧
वैदिक श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं
🙏🌹🪗🎸🎻🪕
Vyakhya
आत्मा का स्वराज्य
कर्म फल भोगने तथा नवीन कार्य करने के लिए शरीर में आया हुआ मनुष्य का जीवात्मा बहुत बार त्रिविध दुखों से संतप्त होता रहता है। यह त्रिविध दु:ख हैं-- आध्यात्मिक दु:ख आधिभौतिक दु:ख आधिदैविक दु:ख। दु:ख तो तीनों ही मन द्वारा आत्मा को अनुभव होते हैं,पर दु:खों का कारण त्रिविध होने से, दु:ख त्रिविध कहे गए हैं। आध्यात्मिक दु:ख किसी मनोवांछित दिव्य पदार्थ प्राप्त न होने के कारण, आध्यात्मिक साधना के सफल होने के कारण या आत्मा, मन, बुद्धि आदि के सदोष हो जाने के कारण अनुभूत होते हैं । आधिभौतिक दु:ख शरीर एवं इन्द्रियों के रुग्ण अशक्त आदि हो जाने के कारण होते हैं। आधिदैविक दु:ख अतिवृष्टि, अनावृष्टि, विद्युत्पात दुर्भिक्ष या भूकम्प आदि दैवी उपद्रवों के कारण होते हैं। आत्मिक वाचिक और शारीरिक दोष अथवा आत्मा, मन एवं शरीर के दु:ख भी त्रिविद्ध संताप कहलाते हैं। यह सब त्रिविध दु:ख संताप या दोष जिस आत्मा में नहीं रहते वह आत्मा अत्रि कहलाता है। वह 'अत्रि' ही आत्म-स्वराज्य का अधिकारी होता है। अन्यथा जब तक मनुष्य का आत्मा त्रिविध दु:खों या दोषों से संतृप्त रहता है ,तब तक वह अपने शरीर मन प्राण इन्द्रिय आदि प्रजाओं का सर्वतन्त्र स्वतन्त्र अधीश्वर नहीं कहला सकता। 'अत्रि' होकर आत्मा जब स्वराज्य प्राप्त कर लेता है,अपनी इच्छा अनुसार मन, बुद्धि,प्राण, इन्द्रिय शरीर आदि को संचालित करने लगता है तब उक्थ अर्थात् मन,इन्द्रियों आदि द्वारा किए जाने वाले स्तुति गीत उसे बढ़ाने लगते हैं ,समृद्ध और महिमन्वित करने लगते हैं । केशव राज्य के पश्चात आत्मा समस्त स्त्रियों को स्वभाव को धारण कर लेता है। राष्ट्र में एक सम्राट की जो स्थिति होती है,वह शरीर में उसकी हो जाती है। जैसे स्वराज्य- काल में राष्ट्र की समस्त गतिविधि उसके सम्राट के अधीन होती है,कोई उसके साथ विद्रोह नहीं कर सकता, वह सर्वविध शोभाओं से सम्पन्न होता है वैसे ही स्वराज्य- अवस्था में आत्मा भी समस्त श्रियों को शोभा को धारण कर लेता है । राष्ट्र में एक सम्राट की जो स्थिति होती है वह शरीर में उसकी हो जाती है। जैसे स्वराज्य काल में, राष्ट्र की समस्त गतिविधि उसके सम्राट के अधीन होती है, कोई उसके साथ विद्रोह नहीं कर सकता, वह सर्वविद्या शोभाओं से सम्पन्न होता है,वैसे ही स्वराज्य अवस्था में आत्मा भी श्री संपन्न दैवी संपदाओं से युक्त तथा दुष्ट प्रवृत्तियों के उपद्रउपद्रवों से विहीन हो जाता है ।
आओ! हम भी आत्मा को अत्रि बनाएं, स्वराज का आराधक बनाएं, स्तुतियों का पात्र बनाएं और अंतत: उसे समस्त आध्यात्मिक शोभाओं एवं गरिमाओं से अलंकृत कर लें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वानांच्या उपदेशांनी अग्नी इत्यादी पदार्थविद्या, राज्यलक्ष्मी वाढते. त्याद्वारे सर्वांना उद्योगी बनवावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Holy words of praise and appreciation advance and celebrate Agni, light and power of the world, self- refulgent, free and self-governing, which devours the offerings of yajna and yields the beauty and fragrance of life beyond all three kinds of physical, mental and spiritual ailments and discomfort. For that reason I bear and abide by it above all other wealth and beauty of the world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Because of capability of scientists and technologists, a State becomes prosperous.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O persons! these scientists and technologists discover energy in the form of power, which in return brings increased production and self-sustenance and prosperity in a balanced way. As I seek and achieve all sorts of prosperity, let you should also emulate it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. The scientists and technologists should bring their state on the path of prosperity and tell the people about the means and methods to be used to procure it. It ultimately requires efforts to make the people hard-working and industrious.
Foot Notes
(अतिम्) अत्तारम् । = Which consumes all. (स्वराज्यम्) स्वप्रकाशवन्तम् ।= Self generating or self-sustenance. (उक्थानि) वक्त योग्यानि [वचनानि । = The words which may bring inspiration among the people. (अधिश्रियः) लक्ष्मी | = Vast wealth. (दघे ) उपरि दधाति । To hold in abundance.
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