ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 34/ मन्त्र 10
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्र॒ ओष॑धीरसनो॒दहा॑नि॒ वन॒स्पतीँ॑रसनोद॒न्तरि॑क्षम्। बि॒भेद॑ ब॒लं नु॑नु॒दे विवा॒चोऽथा॑भवद्दमि॒ताभिक्र॑तूनाम्॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । ओष॑धीः । अ॒स॒नो॒त् । अहा॑नि । व॒न॒स्पती॑न् । अ॒स॒नो॒त् । अ॒न्तरि॑क्षम् । बि॒भेद॑ । व॒लम् । नु॒नु॒दे । विऽवा॑चः । अथ॑ । अ॒भ॒व॒त् । द॒मि॒ता । अ॒भिऽक्र॑तूनाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र ओषधीरसनोदहानि वनस्पतीँरसनोदन्तरिक्षम्। बिभेद बलं नुनुदे विवाचोऽथाभवद्दमिताभिक्रतूनाम्॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। ओषधीः। असनोत्। अहानि। वनस्पतीन्। असनोत्। अन्तरिक्षम्। बिभेद। बलम्। नुनुदे। विऽवाचः। अथ। अभवत्। दमिता। अभिऽक्रतूनाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 34; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजादिजनैः किं कर्त्तव्यमित्याह।
अन्वयः
स राजेन्द्रोऽहानि नित्यमोषधीरसनोद्वनस्पतीनसनोदन्तरिक्षं बलं च बिभेद विवाचो नुनुदेऽथाभिक्रतूनां दमिताऽभवत् ॥१०॥
पदार्थः
(इन्द्रः) ऐश्वर्य्यप्रदः (ओषधीः) सोमाद्याः (असनोत्) सुनुयात् (अहानि) दिनानि (वनस्पतीन्) अश्वत्थादीन् (असनोत्) सुनुयात् (अन्तरिक्षम्) उदकम्। अन्तरिक्षमित्युदकना०। निघं० १। १२। (बिभेद) भिन्द्यात् (बलम्) (नुनुदे) प्रेरयेत् (विवाचः) विविधा वाणीः (अथ) (अभवत्) भवेत् (दमिता) नियन्ता (अभिक्रतूनाम्) आभिमुख्येन क्रतुः कर्म येषां तेषां बलीयसां शत्रूणाम् ॥१०॥
भावार्थः
राजादिजनैः प्रत्यहमोषधिरसं निर्माय तद्रसपानं विद्यावाक्प्रचारणं सर्वेषां प्रज्ञानां स्वप्रज्ञाधिक्येन दमनं च कर्त्तव्यं यत आरोग्यं विद्याप्रभावाश्च प्रतिदिनं वर्धेरन् ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजादि जनों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
वह (इन्द्रः) ऐश्वर्य्य देनेवाला राजा (अहानि) दिनों दिन (ओषधीः) सोम आदि ओषधियों को (असनोत्) देवै (वनस्पतीन्) पीपल आदि वनस्पतियों को (असनोत्) देवै (अन्तरिक्षम्) जल और (बलम्) बल का (बिभेद) भेदन करै (विवाचः) अनेक प्रकार की वाणियों की (नुनुदे) प्रेरणा करै (अथ) और भी (अभिक्रतूनाम्) सहसा शीघ्र कर्म करनेवाले शत्रुओं को (दमिता) दमन करनेवाला (अभवत्) होवै ॥१०॥
भावार्थ
राजा आदि श्रेष्ठ जनों को चाहिये कि प्रतिदिन ओषधियों के रसादि उत्पन्न कर उनके रस का पान विद्यासम्बन्धी वाणी का प्रचार और सब जनों की बुद्धियों का अपनी बुद्धि से भी अधिकता के सहित दमन अर्थात् विषयों से निवृत्ति करैं, जिससे आरोग्य और विद्याओं के प्रभाव प्रतिदिन बढ़ैं ॥१०॥
विषय
वल-विभेदन व ज्ञानवाक्-प्रेरण
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = वह शक्तिशाली प्रभु (ओषधी:) = ओषधियों को (असनोत्) = हमारे लिए देते हैं । इन ओषधियों का ठीक प्रयोग हमारे जीवनों को नीरोग बनाता है। वे प्रभु ही (अहानि) = कार्यों को पूर्णता तक ले जाने के लिए दिनों को हमारे लिए देते हैं। वे प्रभु ही (वनस्पतीन्) = शरीर की रक्षा के लिए वनस्पतियों को हमारे लिए (असनोत्) = देते हैं। शरीर-रक्षण के लिए इन्हीं का हमें प्रयोग करना है-माँस-भोजनों का नहीं। वे प्रभु (अन्तरिक्षम्) = इस विशाल अन्तरिक्ष को भी हमारे लिए प्राप्त कराते हैं। दिन के लिए प्रयुक्त 'अ-हन्' शब्द इस बात का संकेत करता है कि हमें इसका एक-एक क्षण उपयुक्त करना है-इसे नष्ट नहीं करना। 'अन्तरिक्ष' शब्द का संकेत यह है कि हमें हृदयान्तरिक्ष में किसी भी भाव की अति नहीं होने देनी। सब बातों में मध्य मार्ग को अपनाना है। [२] ऐसा होने पर वे प्रभु (वलम्) = [Veil] ज्ञान पर परदे के रूप में आ जानेवाले इस वासनारूप वलासुर को (बिभेद) = विदीर्ण करते हैं। वि-वाच:- ज्ञान की उत्कृष्ट वाणियों को नुनुदे-हमारे में प्रेरित करते हैं। वासना विनष्ट होने पर ज्ञान दीप्त होता ही है। अथ - अब वासना- विनाश होकर ज्ञानदीप्ति होने पर अभिक्रतूनाम्-(अभि आभिमुख्येन क्रतुः युद्धार्थं कर्म येषां ते वलीयांसः शत्रवः सा०) यज्ञादि कर्मों में विघ्न करनेवाले प्रबल शत्रुओं के दमिता- दमन करनेवाले अभवत् होते हैं। हमारे अन्दर यज्ञादि उत्तम कर्मों के विरोधी विचार उत्पन्न ही नहीं होते। अशुभ विचारों का दमन होता है और शुभ विचारों का उत्त्थान ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ने हमारे लिए ओषधि, वनस्पतियाँ, दिन व अन्तरिक्ष को प्राप्त कराया है। प्रभु हमारे ज्ञान के आचरण को दूर करके हमारे में ज्ञानवाणियों को प्रेरित करते हैं।
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुष (अहानि) सभी दिनों, सदा (ओषधीः असनोत्) प्रजा में आरोग्य बढ़ाने के लिये ओषधियों का वितरण करावे। वह (वनस्पतीः असनोत्) स्थान २ पर बड़े, छायादार, फलदार वृक्षों को लगावे। (अन्तरिक्षम् असनोत्) जल का प्रबन्ध करे, स्थान पर जलाशय, प्याऊ आदि बनवावे। (वलं बिभेद) बल अर्थात् सैन्य को विभाग करे, छावनी २ में बांट कर रक्खे। वह (विवाचः) विविध प्रकार की वाणियों और आज्ञाओं को (नुनुदे) दे, (अथ) और प्रतिस्पर्द्धियों, शत्रुओं का (दमिता) दमन करने वाला (अभवत्) हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ११ त्रिष्टुप्॥ ४, ५, ७ १० निचृत्त्रिष्टुप्। ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ६, ८ भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजा व श्रेष्ठ लोकांनी दररोज औषधींचे रस इत्यादी उत्पन्न करून त्यांच्या रसाचे पान, विद्यासंबंधी वाणीचा प्रचार व आपल्या बुद्धीपेक्षाही अधिक शत्रूंच्या बुद्धीचे दमन करावे, ज्यामुळे आरोग्य व विद्यांचा प्रभाव दररोज वाढावा. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra gives us herbs and tonics everyday. He gives us waters of the firmament. He opens up the sources of strength and energy. He stimulates the organs of speech and inspires articulation and the growth of various languages. And he is the controller of the men of impetuous action to a steady state of balance in thought and will.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king and others do is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Let Indra (mighty king) divide the days (make a time-table to plan out all activities.) Let him extract juice of the herbs and plants like the Soma, Pippal etc. Let him make arrangement to have rains from the firmament by creating clouds (through the Yajnas), and diminish his foes like cloud. Let him utter inspiring words and be the controller of his powerful and active adversaries.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the king and officers of the State to prepare the invigorating juice of the herbs and drink it in order to spread knowledge and use of noble words and to surpass the intellect of the wicked persons with the superiority of their wisdom. It results in the growth of health and the effect of good knowledge every day.
Foot Notes
(नुनुदे) प्रेरयेत् । = May he impel ( दमिता ) नियन्ता | = Controller (अभिक़तूनाम् ) अभि मुख्येन ऋतु: कर्म येषां तेषां बलीयसां शत्रूणाम् । ऋतुरिति कर्मनाम (NG 2,1) = Of the powerful and active enemies.
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