ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रः॑ स्व॒र्षा ज॒नय॒न्नहा॑नि जि॒गायो॒शिग्भिः॒ पृत॑ना अभि॒ष्टिः। प्रारो॑चय॒न्मन॑वे के॒तुमह्ना॒मवि॑न्द॒ज्ज्योति॑र्बृह॒ते रणा॑य॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । स्वः॒ऽसा । ज॒नय॑न् । अहा॑नि । जि॒गाय॑ । उ॒शिक्ऽभिः॑ । पृत॑नाः । अ॒भि॒ष्टिः । प्र । अ॒रो॒च॒य॒त् । मन॑वे । के॒तुम् । अह्ना॑म् । अवि॑न्दत् । ज्योतिः॑ । बृ॒ह॒ते । रणा॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भिः पृतना अभिष्टिः। प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नामविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। स्वःऽसा। जनयन्। अहानि। जिगाय। उशिक्ऽभिः। पृतनाः। अभिष्टिः। प्र। अरोचयत्। मनवे। केतुम्। अह्नाम्। अविन्दत्। ज्योतिः। बृहते। रणाय॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 34; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यः स्वर्षा अभिष्टिरिन्द्रः पृतना अहानि सूर्य्य इव जनयन्नुशिग्भिः शत्रून् जिगाय बृहते रणायाऽह्नां ज्योतिरिव मनवे केतुमविन्दत्सङ्ग्रामं प्रारोचयत्स एव विजयविभूषितः स्यात् ॥४॥
पदार्थः
(इन्द्रः) सूर्य इव तेजस्वी (स्वर्षाः) यः स्वः सुखं सनति विभजति सः (जनयन्) प्रकटयन् (अहानि) दिनानि (जिगाय) जयेत् (उशिग्भिः) कामयमानैर्वीरैः (पृतनाः) वीरसेनाः (अभिष्टिः) अभिमुखा इष्टिः सङ्गतिर्यस्य सः (प्र, अरोचयत्) रोचयेत् (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (केतुम्) प्रज्ञाम् (अह्नाम्) दिनानाम् (अविन्दत्) विन्देत् प्राप्नुयात् (ज्योतिः) युद्धविद्याप्रकाशम् (बृहते) महते (रणाय) सङ्ग्रामाय ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजानः सर्वेभ्योऽधिकं प्रयत्नं युद्धविद्यायां कुर्युस्ते सुहर्षितैर्युद्धाय रुचिं प्रदर्शितैर्वीरैः सह शत्रून् जित्वा सूर्य्यस्येव विजयप्रकाशं प्रथयेरन् ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
जो (स्वर्षाः) सुख के विभाग करने (अभिष्टिः) सन्मुख मेल करनेवाले (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश तेजस्वी (पृतनाः) वीर पुरुषों की सेनाओं और (अहानि) दिनों को सूर्य्य के सदृश (जनयन्) प्रकट करनेवाला पुरुष (उशिग्भिः) युद्ध की इच्छा रखते हुए वीरों के साथ शत्रुओं को (जिगाय) जीते (बृहते) बड़े (रणाय) संग्राम के लिये (अह्नाम्) दिनों के (ज्योतिः) युद्ध की विद्या के प्रकाश को (मनवे) और मनन करनेवाले मनुष्य के लिये (केतुम्) बुद्धि को (अविन्दत्) प्राप्त होवे और संग्राम का (प्र) (अरोचयत्) उत्तम प्रकार प्रकाश करै, वही पुरुष विजयरूप आभूषण से शोभित होवे ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा लोग सम्पूर्ण जनों से अधिक प्रयत्न युद्धविद्या में करैं, वे उत्तम प्रकार प्रसन्नतायुक्त जो कि युद्ध के लिये पारितोषिक आदि से रुचि दिखाये गये वीर लोग उनके साथ शत्रुओं को जीतकर सूर्य्य के सदृश विजय के प्रकाश को प्रकट करैं ॥४॥
विषय
प्रकाश-प्राप्ति
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (अहानि) = दिन के प्रकाशों को (जनयन्) = उत्पन्न करता हुआ (स्वर्ष:) = सुख प्राप्त करानेवाला है। वह (अभिष्टिः) = शत्रुओं का अभिभावुक प्रभु (उशिग्भिः) = शत्रुवध की कामनावाले इन उपासकों के साथ (पृतना:) = शत्रु-सैन्यों को जिगाय जीतता है। वस्तुतः विजय तो प्रभु ही करते हैं। जीव की यदि विजय की कामना हो, उसके लिये वह यत्न करे, प्रभु उसे विजय अवश्य प्राप्त कराते हैं । (२) मनवे-विचारशील पुरुष के लिए अह्नां केतुम् दिनों के प्रकाश को प्रारोचयत् दीप्त करते हैं। इन विचारशील पुरुषों के अन्दर भी उसी प्रकार प्रकाश होता है, जैसा कि बाहिर । बृहते रणाय इस काम-क्रोध-लोभ के साथ चलनेवाले महान् संग्राम के लिए ज्योतिः=प्रकाश को अविन्दत् प्रभु प्राप्त कराते हैं। प्रकाश प्राप्त कराते हैं, जिससे कि वह कामादि शत्रुओं को पराभूत
भावार्थ
भावार्थ- उपासक को प्रभु कर सके ।
विषय
ध्वजा के नीचे प्रजा को लाना
भावार्थ
(इन्द्रः) वह ऐश्वर्यवान् नायक वीर पुरुष (स्वर्षाः) सबका सुख साधन प्रदान करता हुआ (अहानि जनयन्) दिनों को जिस प्रकार सूर्य उत्पन्न करता है उसी प्रकार वह भी (अहानि) न नाश होने वाले सैन्यों को प्रकट करता हुआ (अभिष्टिः) सब ओर संगठन करता हुआ (उशिग्भिः) युद्ध की कामना वाली वीर सेनाओं से (पृतनाः) शत्रु सेनाओं को (जिगाय) विजय करे। वह (मनवे) मननशील राज्य की प्रजा के लाभ और प्रकाशक सूर्य के समान ही (अह्नां केतुम्) अहन्तव्य, बलवान् सैन्यों के ज्ञापक झण्डे के प्रति (प्र अरोचयत्) उनकी सबसे अधिक रुचि और प्रेम उत्पन्न करे। और इस प्रकार (बृहते) बड़े भारी (रणाय) संग्राम विजय के लिये भी (ज्योतिः) तेज और प्रभाव को (अविन्दत्) प्राप्त करे। (२) परमेश्वर सर्व सुखप्रद है, दिनों को प्रकट करता, सर्व-प्रिय, सब मनुष्यों पर विजय पाता, मनुष्यों को ज्ञान देता, रमण करने के लिये प्रकाश प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ११ त्रिष्टुप्॥ ४, ५, ७ १० निचृत्त्रिष्टुप्। ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ६, ८ भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे युद्धविद्येत सर्व लोकांपेक्षा जास्त प्रयत्न करतात त्यांनी प्रसन्नतापूर्वक व्यवहार करणाऱ्या व युद्धात रुची असणाऱ्या वीर पुरुषांसह शत्रूंना जिंकून सूर्यप्रकाशाप्रमाणे विजय प्राप्त करावा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of the showers of joy, reveals and brightens the days, fights the battles alongwith his commandos, and comes out victorious. May he then unfurl the flag of the day’s light and victory and win the light for the mighty battle of life as a whole in the flow of existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the ruler are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That Indra (Commander of the army who is mighty like the sun) shares the happiness with others. He is fond of the association with the intelligent organizers and strengthens the army of his brave warriors. His aim is to fight with the wicked enemies and with the help of his soldiers conquers his hostile enemies. He manifests the strength of his army as the sun manifests the day-light after dispellings the darkness. He applies his brilliant intellect for protection and welfare of the thoughtful persons and throws light on the military techniques in order to attain victory in the great battle.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those kings who train their warriors extensively for waging war against the wicked enemies and conquer them, with their willing cooperation, they spread the light of victory like the sun.
Foot Notes
(उशिग्भिः) कामयमानैवरै:। (उशिग्भि:) वश-कान्ती (अदा० ) कान्ति:-कामना = With the brave warriors willing to fight with their enemies. (स्वर्षा:) य: स्वः सुखं सनति विभजति स: । = One who shares of happiness. (मनवे ) मननशीलाय मनुष्याम ये विद्वांसस्ते मनव: (Stph 8,6,3,18)=For the welfare of a thoughtful person.
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