ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 37/ मन्त्र 11
ऋषि: - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - ऋषभः
अ॒र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॒ह्यथो॑ शक्र परा॒वतः॑। उ॒ लो॒को यस्ते॑ अद्रिव॒ इन्द्रे॒ह तत॒ आ ग॑हि॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वा॒ऽवतः॑ । नः॒ । आ । ग॒हि॒ । अथो॒ इति॑ । श॒क्र॒ । प॒रा॒ऽवतः॑ । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कः । यः । ते॒ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । इन्द्र॑ । इ॒ह । ततः॑ । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वावतो न आ गह्यथो शक्र परावतः। उ लोको यस्ते अद्रिव इन्द्रेह तत आ गहि॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाऽवतः। नः। आ। गहि। अथो इति। शक्र। पराऽवतः। ऊँ इति। लोकः। यः। ते। अद्रिऽवः। इन्द्र। इह। ततः। आ। गहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 37; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजप्रजाजनविषयं परस्परेणाह।
अन्वयः
हे अद्रिवः शक्रेन्द्र इह यस्ते लोकोऽस्ति तस्मादर्वावतो न आगह्यथो परावतो न आगहि तत उ अन्यत्र गच्छ ॥११॥
पदार्थः
(अर्वावतः) अर्वाचीनात् (नः) अस्मान् (आ) (गहि) आगच्छ प्राप्नुहि (अथो) आनन्तर्ये (शक्र) शक्तिमन् (परावतः) दूरात् (उ) (लोकः) निवासस्थानम् (यः) (ते) तव (अद्रिवः) अद्रयो बहवो मेघा विद्यन्ते यस्य सूर्यस्य तद्वद्वर्त्तमान (इन्द्र) ऐश्वर्य्येण सुखप्रद (इह) अस्मिन् संसारे (ततः) तस्मात् (आ) (गहि) ॥११॥
भावार्थः
यथा मनुष्याः प्रीत्या राजानमाह्वयेयुस्तत्सामीप्यं स स्वदेशादागच्छेत् तस्मादन्यत्र गच्छेदेवं राजप्रजाजनाः परस्परेषु स्नेहवर्धनाय कर्माणि सततं कुर्युरिति ॥११॥ अत्र राजप्रजाकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तत्रिंशत्तमं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (1)
विषय
अब राजा और प्रजाविषय को परस्पर सम्बन्ध से कहते हैं।
पदार्थ
हे (अद्रिवः) बहुत मेघों से युक्त सूर्य के सदृश वर्त्तमान (शक्र) सामर्थ्यवान् (इन्द्र) ऐश्वर्य्य से सुख के दाता ! (इह) इस संसार में (यः) जो (ते) आपका (लोकः) निवासस्थान है इस स्थान से (नः) हम लोगों को (आ, गहि) प्राप्त हूजिये (अथो) इसके अनन्तर (परावतः) दूर से भी हम लोगों को प्राप्त हूजिये (ततः) और इससे (आगहि) उत्तम प्रकार अन्य स्थान में जाइये ॥११॥
भावार्थ
जैसे मनुष्य लोग प्रीति से राजा को बुलावैं और वह राजा उन प्रजाजनों के समीप अपने देश से प्राप्त हो और उस देश से अन्य देश में भी जाय, इस प्रकार राजा और प्रजा जन परस्पर स्नेह की वृद्धि के लिये कर्मों को निरन्तर करैं ॥११॥ इस सूक्त में राजा और प्रजा के कामों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस सूक्त से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सैंतीसवाँ सूक्त और बाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे माणसांनी प्रेमाने आमंत्रित केल्यास राजा आपल्या देशातील प्रजेला भेटतो, तसे त्याने इतर देशातही जावे. राजा व प्रजा यांनी परस्पर सतत स्नेह वर्धनाचे कार्य करावे. ॥ ११ ॥
English (1)
Meaning
Indra, lord of might, ruler of the clouds, wielder of the thunderbolt and refulgent as the sun, come to us from far and from near, wherever you are. And whatever or wherever your abode, from there come to us here and now.
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