ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ अभूष॒ञ्छ्रियो॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः। म॒हत्तद्वृष्णो॒ असु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पो अ॒मृता॑नि तस्थौ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽतिष्ठ॑न्तम् । परि॑ । विश्वे॑ । अ॒भू॒ष॒न् । श्रियः॑ । वसा॑नः । च॒र॒ति॒ । स्वऽरो॑चिः । म॒हत् । तत् । वृष्णः॑ । असु॑रस्य । नाम॑ । आ । वि॒श्वऽरू॑पः । अ॒मृता॑नि । त॒स्थौ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आतिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छ्रियो वसानश्चरति स्वरोचिः। महत्तद्वृष्णो असुरस्य नामा विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ॥
स्वर रहित पद पाठआऽतिष्ठन्तम्। परि। विश्वे। अभूषन्। श्रियः। वसानः। चरति। स्वऽरोचिः। महत्। तत्। वृष्णः। असुरस्य। नाम। आ। विश्वऽरूपः। अमृतानि। तस्थौ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 38; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सूर्यविषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्यो विश्वरूपः श्रियो वसानः स्वरोचिः सूर्यो वृष्णोऽसुरस्य वायोरमृतानि नामा तस्थाविव यन्महत्तच्चरति तमातिष्ठन्तं विश्वे विद्वांसो पर्य्यभूषन् ॥४॥
पदार्थः
(आतिष्ठन्तम्) समन्तात् स्थितम् (परि) सर्वतः (विश्वे) सर्वे (अभूषन्) अलंकुर्वन् (श्रियः) लक्ष्मीः (वसानः) आच्छादयन् गृह्णन् (चरति) गच्छति (स्वरोचिः) स्वकीयं रोचिर्दीपनं यस्य सः (महत्) (तत्) (वृष्णः) वर्षकस्य (असुरस्य) योऽस्यति दोषान्प्राणेषु रममाणो वा तस्य (नामा) उदकानि। नामेत्युदकना०। निघं० १। १२। (विश्वरूपः) विश्वानि रूपाणि यस्मात्सः (अमृतानि) अमृतात्मकानि (तस्थौ) तिष्ठति ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या वाय्वाधारे स्थिताः सूर्य्यादयो लोका जलवर्षणादिद्वारा सर्वानानन्दयन्ति तथैव श्रीकरः पुरुषः सर्वान् विभूषयति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सूर्य्य के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (विश्वरूपः) सम्पूर्ण रूप हैं जिससे वा जो (श्रियः) धनों वा पदार्थों की शोभाओं को (वसानः) ढाँपता वा ग्रहण करता हुआ और (स्वरोचिः) अपना प्रकाश जिसमें विद्यमान वह सूर्य्य (वृष्णः) वृष्टिकारक (असुरस्य) दोषों को दूर करने वा प्राणों में रमनेवाले वायु सम्बन्धी (अमृतानि) अमृतस्वरूप (नामा) जलों को व्याप्त होकर (आ, तस्थौ) स्थित होता वा उसके समान जो (महत्) बड़ा है (तत्) उसको (चरति) प्राप्त होता है उस (आतिष्ठन्तम्) चारों ओर से स्थिर हुए को (विश्वे) सम्पूर्ण विद्वान् लोग (परि) सब प्रकार (अभूषन्) शोभित करैं ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! वायुरूप आधार में वर्त्तमान सूर्य्य आदि लोक जल वृष्टि आदि के द्वारा सब लोगों को आनन्द देते हैं, वैसे ही लक्ष्मी उत्पादन करनेवाला पुरुष सबको शोभित करता है ॥४॥
विषय
स्वरोचिः
पदार्थ
[१] (आतिष्ठन्तम्) = सर्वतः स्थित होते हुए उस प्रभु को (विश्वे) = सब देव (परि अभूषन्) = अपने में अलंकृत करते हैं। वस्तुतः उस प्रभु से ही वे देव देवत्व को प्राप्त करते हैं । (श्रियः वसानः) = सब शोभाओं को धारण करता हुआ वह प्रभु (स्वरोचिः) = स्वयं दीप्तिवाला (चरति) = गति करता है। प्रभु उस-उस पिण्ड में उस उस शोभा को स्थापित करते हैं, परन्तु स्वयं किसी अन्य से शोभा को नहीं प्राप्त करते । प्रभु की दीप्ति से ही सब दीप्त हैं- प्रभु को कोई अन्य दीप्ति प्राप्त नहीं कराता । [२] (वृष्णः) = उस शक्तिशाली (असुरस्य) = सब में प्राणशक्ति का संचार करनेवाले प्रभु का (तद्) = वह (नाम) = शत्रुओं को नत करने का कर्म (महत्) = महान् है। (विश्वरूपः) = सम्पूर्ण संसार को रूप देनेवाला वह प्रभु (अमृतानि तस्थौ) = अमृतत्त्वों का अधिष्ठाता है। प्रभु ही अमृतत्त्व को प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की दीप्ति से ही सब देव दीप्तिवाले हैं। वे प्रभु ही अमृतत्त्व को प्राप्त कराते हैं।
विषय
किरणों और सूर्यवत् अध्यक्ष और अधीनों का सम्बन्ध। स्वरोचि, असुर, वृषा परमेश्वर।
भावार्थ
जिस प्रकार (स्वरोचिः) अपने ही प्रकाश से प्रकाशमान सूर्य (श्रियः वसानः चरति) प्रभाओं, कान्तियों को धारण करता हुआ विचरता और (आतिष्ठन्तं परि विश्व अभूषन्) मध्य में विराजते को किरण चारों ओर से सुभूषित करती है। उसी प्रकार राजा, प्रतापी तेजस्वी वीर पुरुष (स्वरोचिः) स्वयं अपने तेज से चमकता हुआ (श्रियः) लक्ष्मियों, ऐश्वर्यों और अपने आश्रित प्रजा और भृत्य सेनाओं को (वसानः) अपने ऊपर आच्छादक वस्त्रों के समान अपनी शोभा और रक्षा के लिये धारण करता हुआ (चरति) विचरे। और (आतिष्ठन्तं) राष्ट्र के ऊपर अध्यक्ष रूप से विराजते हुए को (विश्वे) सभी अधीनस्थ या मित्रजन (परि अभूषन्) उसके चारों ओर उसको सुभूषित करें या उसके चारों ओर रहें। (वृष्णः असुरस्य महत् नाम) जिस प्रकार वर्षणशील मेघ में बहुत अधिक जल हो और वह (विश्वरूपः) व्यापकरूप होकर (अमृतानि आतस्थौ) जलों को अपने में धारता है उसी प्रकार (वृष्णः) प्रजा पर ऐश्वर्यों और शत्रुजन पर आयुधों की वर्षा करने वाले (असुरस्य) दोषों और दुष्टों को उखाड़ने वाले राष्ट्र के सञ्चालन करने वाले वा प्राणों में रमने वाले बलवान् पुरुष का (तत् नाम महत्) अलौकिक शत्रुओं को नमाने, दमन करने का भी बहुत बड़ा सामर्थ्य हो। वह (विश्वरूपः) सब प्रकार के गवादि पशुओं का स्वामी होकर सभी (अमृतानि) न मरने वाले, जीवित जागृत प्राणियों और सुखदायक ऐश्वर्यों पर (आतस्थौ) अधिष्ठित हो, उन पर शासन करे। (२) परमेश्वर स्वयं प्रकाश होने से ‘स्वरोचि’ है। वह सब कान्तियों सूर्यादि लोकों को धारण करता है, सब उसी पर आश्रित हैं, अन्तर्यामी होकर सबको वेग से प्रेरणा करने से वह ‘असुर’ है। सुखों के बरसाने से ‘वृषन्’ है। उसका बड़ा नाम ‘कर्म सामर्थ्य’ है। वह सर्व विश्वव्यापक होने से ‘विश्वरूप’ है। वह सब (अमृतानि) अमर जीवों आनन्दों और तत्वों का अध्यक्ष होकर विराजता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रगोत्र वाचो वा पुत्रः प्रजापतिरुभौ वा विश्वामित्रो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६, १० त्रिष्टुप्। २–५, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! वायूरूपी आधार असलेले सूर्य इत्यादी गोल जलवृष्टीद्वारे सर्व लोकांना आनंद देतात तसे श्री प्राप्त करणारा पुरुष सर्वांना सुशोभित करतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
All the visionary sages realise and celebrate the one lord supreme, robed in his own glory, who pervades the world of existence. Great and glorious are his names and attributes: self-refulgent, omniform, generous and potent, life of life, who sustains the immortals of existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The sun is illustrated here.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
○ men! all learned persons adore the sun who manifests various forms, and is clothed in beauty. The sun is self-radiant, upholds the nectar and is like waters of the air which causes the rains. It destroys many diseases and pervades the Prana. The acts of Sun are great and wonderful who stand above all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Foot Notes
(असुरस्य) योऽस्यति दोषान्प्राणेषु रममाणो वा तस्य । = Of the air which cures many diseases and which pervades the Pranas. (नामा) उदकानि । नामेत्युदकनाम (NG 1,12) = The water. (असुरस्य) It is derived from to throw diseases or from असु + र असुषु प्राणेषु रमते इति । There is also the spiritual interpretation of the mantra which is clear by taking स्वरोचि: वृषा, असुर and विश्वरूप | असून् प्राणान् राति ददातीति असुरः विश्वरूपः । = Omni presents Pervading all forms.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal