ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 38/ मन्त्र 6
त्रीणि॑ राजाना वि॒दथे॑ पु॒रूणि॒ परि॒ विश्वा॑नि भूषथः॒ सदां॑सि। अप॑श्य॒मत्र॒ मन॑सा जग॒न्वान्व्र॒ते ग॑न्ध॒र्वाँ अपि॑ वा॒युके॑शान्॥
स्वर सहित पद पाठत्रीणि॑ । रा॒जा॒ना॒ । वि॒दथे॑ । पु॒रूणि॑ । परि॑ । विश्वा॑नि । भू॒ष॒थः॒ । सदां॑सि । अप॑श्यम् । अत्र॑ । मन॑सा । ज॒ग॒न्वान् । व्र॒ते । ग॒न्ध॒र्वान् । अपि॑ । वा॒युऽके॑शान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषथः सदांसि। अपश्यमत्र मनसा जगन्वान्व्रते गन्धर्वाँ अपि वायुकेशान्॥
स्वर रहित पद पाठत्रीणि। राजाना। विदथे। पुरूणि। परि। विश्वानि। भूषथः। सदांसि। अपश्यम्। अत्र। मनसा। जगन्वान्। व्रते। गन्धर्वान्। अपि। वायुऽकेशान्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 38; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सभाकार्य्यमुपदिश्यते।
अन्वयः
हे राजानाऽहमत्र स्थितान्यान् व्रते गन्धर्वान्वायुकेशानन्यानपि शिष्टान् मनसा जगन्वान् सन्नपश्यं तैस्त्रीणि सदांसि निर्माय विदथे पुरूणि विश्वानि यतः परिभूषथस्तस्मात्सकलकार्य्यसिद्धिकरौ भवथः ॥६॥
पदार्थः
(त्रीणि) (राजाना) विद्यादिशुभगुणैः प्रकाशमानौ राजप्रजाजनौ (विदथे) विज्ञानप्रापके व्यवहारे (पुरूणि) बहूनि (परि) सर्वतः (विश्वानि) अखिलानि (भूषथः) अलंकुरुथः (सदांसि) सभाः (अपश्यम्) पश्यामि (अत्र) अस्मिन् राजव्यवहारे (मनसा) विज्ञानेन (जगन्वान्) गन्ता (व्रते) सत्यभाषणादिव्यवहारे (गन्धर्वान्) ये गां सुशिक्षितां वाचं पृथिवीं वा धरन्ति तान् (अपि) (वायुकेशान्) वायुरिव केशाः प्रकाशा येषां तान् ॥६॥
भावार्थः
हे मनुष्या युष्माभिरुत्तमगुणकर्मस्वभावानामाप्तानां विदुषां राजविद्याधर्मसभाः संस्थाप्य सर्वाणि राजकार्याणि यथावत्संसाध्य सर्वाः प्रजाः सततं सुखयत ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सभा के कार्य्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे (राजाना) राजा और प्रजाजनो ! मैं इस संसार में वर्त्तमान जिन (व्रते) सत्यभाषणादि व्यवहार में (गन्धर्वान्) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी वा पृथिवी को धारण करने और (वायुकेशान्) वायु के सदृश प्रकाशवाले तथा अन्य भी शिष्ट अर्थात् उत्तम पुरुषों को (मनसा) विज्ञान से (जगन्वान्) प्राप्त हुआ (अपश्यम्) देखता हूँ उन लोगों से (त्रीणि) तीन (सदांसि) सभायें नियत कराके (विदथे) विज्ञान को प्राप्त करानेवाले व्यवहार में (पुरूणि) बहुत (विश्वानि) सम्पूर्ण व्यवहारों को (परि) सब प्रकार (भूषथः) शोभित करते हो, इससे सम्पूर्ण कार्य्यों के सिद्ध करनेवाले होते हो ॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग उत्तम गुण कर्म और स्वभाववाले यथार्थवक्ता विद्वान् पुरुषों की राजसभा विद्यासभा और धर्मसभा नियत कर और सम्पूर्ण राज्यसम्बन्धी कर्मों को यथायोग्य सिद्ध कर सकल प्रजा को निरन्तर सुख दीजिये ॥६॥
विषय
गन्धर्वों व वायुकेशों का दर्शन
पदार्थ
[१] (राजाना) = हमारे जीवनों को दीप्त करनेवाले 'इन्द्र और वरुण' (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (त्रीणि) = तीनों (पुरूणि) = पालन व पूरण से युक्त (विश्वानि) = सम्पूर्ण (सदांसि) = अधिष्ठानों कोइन्द्रिय, मन व बुद्धि को (परिभूषथः) = सब तरह से अलंकृत करते हैं। हम यथासम्भव इन्द्रियों, मन व बुद्धि को ज्ञानप्राप्ति के कर्मों में व्याप्त रखें। ऐसा करने पर ये स्वस्थ रहेंगे- इनमें किसी प्रकार की कमी न आएगी, ये 'पुरु' होंगे, 'विश्व' होंगे। 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' यहाँ सदस् कहे गये हैं, चूँकि अच्छी व बुरी सब भावनाओं व वासनाओं के ये ही अधिष्ठान बनते हैं। [२] जब इन्द्र और वरुण, शक्ति व प्रकृष्ट ज्ञान के देवता, इन इन्द्रिय, मन व बुद्धि को अलंकृत करते हैं, तो (अत्र) = यहाँ इस जीवन में मनसा मन से (जगन्वान्) = प्रभु के प्रति गतिवाला मैं (अपश्यम्) = उस प्रभु का दर्शन करता हूँ और (व्रते) = व्रतों के होने पर जीवन के व्रतमय होने पर (गन्धर्वान् अपि) = [प्राणो वै गन्धर्वः जै० उ० ३।३६ । ३] प्राणों को भी देखता हूँ-अपने अन्दर प्राणशक्ति का अनुभव करता हूँ तथा (वायुकेशान्) = गति द्वारा सब बुराइयों को हिंसन करनेवाली [वा गतिगन्धनयोः] ज्ञानरश्मियों को [केश= a rag of Light] देखता हूँ । जब जीवन व्रतमय होता है तो प्राणशक्ति भी बढ़ती है, ज्ञान की रश्मियाँ भी बढ़ती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- बल व प्रकृष्ट ज्ञान हमारी इन्द्रियों, मन व बुद्धि को अलंकृत करें। हम व्रतमयजीवनवाले बनकर प्राणशक्ति व ज्ञान का साधन करें। यह ज्ञान हमें गतिमय बनाकर हमारी सब बुराइयों का हिंसन करता है।
विषय
शासन कार्य में तीन सभाएं। वायुकेश गन्धवौं का रहस्य।
भावार्थ
हे (राजाना) उत्तम गुणों और तेजों से प्रकाशमान, एक दूसरे के मनों को अनुरंजन करने वाले दिन रात्रि और सूर्य चन्द्र के समान परस्पर उपकारक, राजा प्रजाजनो ! आप दोनों मिलकर (त्रीणि) तीन (पुरूणि) राष्ट्र के ऐश्वर्यों को पालने और पूर्ण करने वाली (विश्वानि) समस्त (सदांसि) सभास्थानों को (विदथे) ज्ञान और ऐश्वर्य के लाभ के लिये (परि भूषथः) ऐसे अलंकृत करो जैसे सूर्य, चन्द्र दोनों तीनों लोकों को अलंकृत करते हैं (अत्र) यहां इन सभाभवनों में (मनसा जगन्वान्) ज्ञान द्वारा आगे बढ़ता हुआ (व्रते) नियम में व्यवस्थित (वायुकेशान्) वायु में खुले अनावृत केशों वाले (गन्धर्वान्) वेदवाणी के धारक विद्वानों और भूमि के धारक शासकों को भी (अपश्यम्) देखूं। (२) आत्मा परमात्मा दोनों स्वप्न, जागरित, सुषुप्ति तथा सृष्टि, प्रलय और मध्य तीनों स्थानों को ज्ञानशक्ति के बल से सुशोभित करते हैं, उन दोनों में से प्रत्येक पर ‘वायुकेश’ गन्धर्व हैं जिनको मन के द्वारा जाना जाता है। आत्मा में प्राणगण वायुकेश हैं। वे व्याप्त आत्मा के केशों के समान हैं, वे वाणी के धारक होने से, शरीरधारक होने से गन्धर्व हैं। परमेश्वर में, वायु में व्यापक केश अर्थात् किरणों वाले सूर्यादि भूमि को धारण करते हैं उनको मैं साक्षात् देखूं, उनका रहस्य जानूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रगोत्र वाचो वा पुत्रः प्रजापतिरुभौ वा विश्वामित्रो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६, १० त्रिष्टुप्। २–५, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही उत्तम गुण, कर्म स्वभाव असणाऱ्या आप्त विद्वान पुरुषांची राजसभा, विद्यासभा, धर्मसभा नेमून संपूर्ण राज्यासंबंधी कार्यांना यथायोग्य सिद्ध करून संपूर्ण प्रजेला निरंतर सुख द्यावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O brilliant powers of divinity, Indra and Varuna, spirit and energy, ruler and the people, both of you sustain and adorn the three houses of the social order: Executive, Legislature, and Education (Rajarya Sabha, Dharmarya Sabha and Vidyarya Sabha), and you maintain all the various ancient values, forms and institutions of the society. Moving with thought and imagination here itself, I have seen the gandharvas, leaders gifted with speech and ideas flying on the wings of the winds, committed to the sanctity of duty in the holy social order of yajna, serving and sustaining the earth and her environment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties and functions of the three assemblies of the State are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O ruler and people ! you shine with knowledge and other virtues. I see you working with knowledge in the administrative dealings with men who are firmly established in the truth. They uphold the vows (give strength) to the upholders of well-trained cultured speech or land, and are enlightened and powerful like the wind. With their help, you should establish three assemblies in this dealing (work) in order to spread good knowledge and decorate all worlds or places, so that you may accomplish your all assignments.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should establish three assemblies namely Raja Sabha, Vidya Sabha and Dharma Sabha in order to channelize and control the spheres of State administration, educational management and ecclesiastical affairs respectively. By establishing these three assemblies, you should accomplish all matters related to the State and make all people happy.
Foot Notes
(गन्धर्वान् ) ये गां सुशिक्षितां वाचं पृथिवीं वा धरन्ति तान्। गौरिति वाङ्नाम (N. G. 1, 11) गौरिति पृथ्वीनाम (N. G. 1, 1) =Those who uphold or maintain well-trained (cultured) speech or land. (वायुकेशान् ) वायुरिव केशाः येषां तान् । = Enlightened and mighty like the wind. (सदांसि ) राजविद्याधर्मसभाः । सभा: = Assemblies dealing with the administration of the State, spread of knowledge and propagation of Dharma. Neither Sayanacharya nor Prof. Wilson or Griffith have interpreted differently According to them, त्रीणि सदांसि are त्रीणि सवनानि or three sessions of the Yajna.' It is not rational.
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