ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 38/ मन्त्र 7
तदिन्न्व॑स्य वृष॒भस्य॑ धे॒नोरा नाम॑भिर्ममिरे॒ सक्म्यं॒ गोः। अ॒न्यद॑न्यदसु॒र्यं१॒॑ वसा॑ना॒ नि मा॒यिनो॑ ममिरे रू॒पम॑स्मिन्॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इत् । नु । अ॒स्य॒ । वृ॒ष॒भस्य॑ । धे॒नोः । आ । नाम॑ऽभिः । म॒मि॒रे॒ । सक्म्य॑म् । गोः । अ॒न्यत्ऽअ॑न्यत् । अ॒सु॒र्य॑म् । वसा॑नाः । नि । मा॒यिनः॑ । म॒मि॒रे॒ । रू॒पम् । अ॒स्मि॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिन्न्वस्य वृषभस्य धेनोरा नामभिर्ममिरे सक्म्यं गोः। अन्यदन्यदसुर्यं१ वसाना नि मायिनो ममिरे रूपमस्मिन्॥
स्वर रहित पद पाठतत्। इत्। नु। अस्य। वृषभस्य। धेनोः। आ। नामऽभिः। ममिरे। सक्म्यम्। गोः। अन्यत्ऽअन्यत्। असुर्यम्। वसानाः। नि। मायिनः। ममिरे। रूपम्। अस्मिन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 38; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयमाह।
अन्वयः
ये मनुष्या अस्य वृषभस्य धेनोर्नामभिर्नु यदा ममिरे तत्सक्म्यं गोरन्यदन्यदसुर्य्यं वसाना मायिनोऽस्मिन् रूपं निममिरे त इदेव राज्यं कर्त्तुं शक्नुयुः ॥७॥
पदार्थः
(तत्) (इत्) एव (नु) सद्यः (अस्य) (वृषभस्य) बलिष्ठस्य (धेनोः) वाण्याः (आ) समन्तात् (नामभिः) संज्ञाभिः (ममिरे) (सक्म्यम्) सचति संयुनक्ति यस्मिँस्तत्र भवम् (गोः) वाण्याः (अन्यदन्यत्) पृथक्पृथग्वर्त्तमानम् (असुर्य्यम्) असुरस्य मेघस्य स्वम् (वसानाः) आच्छादयन्तः (नि) (मायिनः) प्रशस्ता माया प्रज्ञा विद्यते येषान्ते (ममिरे) सृजन्ति (रूपम्) (अस्मिन्) राज्ये ॥७॥
भावार्थः
ये मनुष्या अस्य राज्यस्य कोमलवचनैः पालनं विदधति ते मेघाज्जलमिव बहुविधमैश्वर्य्यं लभन्ते ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
जो मनुष्य (अस्य) इस (वृषभस्य) बलिष्ठ की (धेनोः) वाणी के (नामभिः) नामों से (नु) शीघ्र जिसको (आ, ममिरे) सब ओर से नापते हैं (तत्) उस (सक्म्यम्) संयोग जिस पदार्थ में करता है उसमें उत्पन्न (गोः) वाणी से (अन्यदन्यत्) पृथक्-पृथक् वर्त्तमान (असुर्यम्) मेघपन को (वसानाः) ढाँपते हुए (मायिनः) उत्तम बुद्धिवाले (अस्मिन्) इस राज्य में (रूपम्) रूप को (नि, ममिरे) उत्पन्न करते हैं वे (इत्) ही राज्य कर सकते हैं ॥७॥
भावार्थ
जो मनुष्य इस राज्य का कोमल वचनों से पालन करते हैं, वे मेघ से जल के सदृश अनेक प्रकार के ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं ॥७॥
विषय
नामस्मरण से ज्ञान का प्रकाश
पदार्थ
[१] (इत् नु) = निश्चय से अब, (अस्य) = इस (वृषभस्य) = शक्तिशाली (धेनोः) = ज्ञानदुग्ध द्वारा प्रीणित करनेवाले प्रभु के (नामभिः) = नामों से नामों के जप से (गो:) = इस वेदवाणीरूप गौ के (तत्) = उस (सक्म्यम्) = समवाय व सम्बन्ध को (ममिरे) = निर्मित करते हैं। प्रभु-नाम-स्मरण से वासना का विनाश होता है। हृदय की पवित्रता से वहाँ ज्ञान का प्रकाश सम्भव होता है। यही नामों द्वारा वेदवाणी के सम्बन्ध का भाव है। [२] इस वेदवाणी के साथ सम्बन्ध के कारण (अन्यत् अन्यत्) = विलक्षण और अत्यन्त विलक्षण (असुर्यम्) = [असुराय हितं] परमात्म-प्राप्ति के साधनभूत बल को (वसानाः) = धारण करते हुए, (मायिनः) = ये प्रज्ञावान् मनुष्य (अस्मिन्) = इस प्रभु में (रूपम्) = रूप को (निममिरे) = निर्मित करनेवाले होते हैं। प्रभु में ये स्थित होते हैं और ब्रह्मनिष्ठ होते हुए प्रभु के तेज से तेजस्वी होकर उत्कृष्टरूप को धारण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-नाम-स्मरण से पवित्र हृदय में ज्ञान के प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है। इस ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति को अद्भुत बल व उत्कृष्ट रूप प्राप्त होता है ।
विषय
मेघमाला वत् वाणी के अद्भुत कर्म। पक्षान्तर में प्रभु की वेद वाणी की शिक्षा से समस्त विद्वानों को ज्ञान की प्राप्ति।
भावार्थ
(अस्य वृषभस्य धेनोः तत् इत्) यह बरसने वाली, सूर्य को ही रसपान कराने वाली इस मेघमाला का ही सामर्थ्य है कि उसके (नामभिः) जलों से कृषक लोग जिस प्रकार (गोः सक्म्यं ममिरे) पृथिवी से अन्न उत्पन्न करते हैं और भी (अन्यत् अन्यत्) नाना प्रकार के (असुर्यं) मेघ द्वारा उत्पन्न रुई, कपास आदि को पहनते हुए (मायिनः अस्मिन् रूपं नि ममिरे) बुद्धिमान् लोग इस लोक में नाना रूप या रुचिकर पदार्थ उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार (अस्य) इस (वृषभस्य) बलवान् पुरुष की (धेनोः) वाणी रूप कामधेनु का ही (तद् इत् नु) वह अलौकिक सामर्थ्य है कि इसके (नामभिः) सबको नमाने वाले शासनों से (गोः) इस भूमि की प्रजाओं का (सक्मयं) सम-संगठन (आ ममिरे) बनावें। वे (अन्यत् अन्यत्) भिन्न २ प्रकार के (असुर्यं) बलशाली पुरुषोचित राज्याधिकार को (वसानाः) धारण करते हुए (अस्मिन्) इस राष्ट्र में (मायिनः) बुद्धिमान् पुरुष (अन्यत् अन्यत् रूपम् नि ममिरे) नाना प्रकार के रूप या रुचिकर पदार्थों का निर्माण करते हैं। (२) परमेश्वर पक्ष में—वह परमेश्वर की कामधेनु वाणी का अलौकिक सामर्थ्य है कि नाम अर्थात् संज्ञापदों से वाणी के सुसम्बद्ध वाक्य को विद्वान् लोग बना लेते हैं। वे उस महान् ज्ञानी के ज्ञान को धारते हुए बुद्धिमान् जन उसके ज्ञान के ही रुचिभेद से नाना रूप प्रकट करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रगोत्र वाचो वा पुत्रः प्रजापतिरुभौ वा विश्वामित्रो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६, १० त्रिष्टुप्। २–५, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे राज्याचे मृदू वचनांनी पालन करतात त्यांना? मेघातील जलाप्रमाणे अनेक प्रकारचे ऐश्वर्य प्राप्त होते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Sages of vision and imagination measure and describe the nature, character and forms of the earth by the speech and words of this divine and generous Indra, lord of light and knowledge and speech. And these sages and poets, wondrous makers of forms in words and materials, watching the light and energy of divinity in different earthly forms, recreate and re-enact the forms in this social order on this earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
It is the greatness of this most mighty ruler that the learned persons praise him by many epithets to denote his varying attributes and characters. The men of fine intellect establish beautiful form in him, bearing the benevolence and mildness of the cloud.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The men who support the State with mild words, attain much prosperity like water from the clouds.
Foot Notes
(वृषभस्य) बलिष्ठस्य । वृषभस्य ( वृष-शक्तिबन्धने) (चुरा० ) = Of the mightiest. (धेनोः) वाण्याः । धेनुरिति वाङ्नाम (NG 1, 11) = Of the speech. (असुर्यम्) असुरस्य मेघस्य स्वम् । = Belonging to the cloud, benevolence mildness and other attributes. (सक्म्यम्) संचति संयुनक्ति यस्मिस्तत् भवम् । = Place of unification. (मायिनः ) प्रशस्ता माया प्रज्ञा विद्यते येषान्ते । मायेति प्रज्ञा नाम (NG 3,9) = Wise men having good intellect.
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