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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 38/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वं प्र॒त्नस्य॑ साधथो म॒हो यद्दैवी॑ स्व॒स्तिः परि॑ णः स्यातम्। गो॒पाजि॑ह्वस्य त॒स्थुषो॒ विरू॑पा॒ विश्वे॑ पश्यन्ति मा॒यिनः॑ कृ॒तानि॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । प्र॒त्नस्य॑ । सा॒ध॒थः॒ । म॒हः । यत् । दैवी॑ । स्व॒स्तिः । परि॑ । नः॒ । स्या॒त॒म् । गो॒पाजि॑ह्वस्य । त॒स्थुषः॑ । विऽरू॑पा । विश्वे॑ । प॒श्य॒न्ति॒ । मा॒यिनः॑ । कृ॒तानि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं प्रत्नस्य साधथो महो यद्दैवी स्वस्तिः परि णः स्यातम्। गोपाजिह्वस्य तस्थुषो विरूपा विश्वे पश्यन्ति मायिनः कृतानि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। प्रत्नस्य। साधथः। महः। यत्। दैवी। स्वस्तिः। परि। नः। स्यातम्। गोपाजिह्वस्य। तस्थुषः। विऽरूपा। विश्वे। पश्यन्ति। मायिनः। कृतानि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 38; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परस्परेण राजप्रजाविषयमाह।

    अन्वयः

    हे राजप्रजाजनौ युवं यथा विश्वे मायिनस्तस्थुषः कृतानि विरूपा पश्यन्ति तथा प्रत्नस्य गोपाजिह्वस्य यन्महो दैवी स्वस्तिरस्ति ता नः परिसाधथः सर्वेषां सुखकरौ स्यातम् ॥९॥

    पदार्थः

    (युवम्) युवाम् (प्रत्नस्य) पुरातनस्य (साधथः) (महः) महती (यत्) या (दैवी) देवानामियम् (स्वस्तिः) स्वास्थ्यम् (परि) (नः) अस्मभ्यम् (स्यातम्) (गोपाजिह्वस्य) गोरक्षका जिह्वा यस्य तस्य (तस्थुषः) स्थिरस्य (विरूपा) विविधानि रूपाणि येषु तानि (विश्वे) सर्वे (पश्यन्ति) (मायिनः) प्रशस्तप्रज्ञाः (कृतानि) निष्पन्नानि ॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विपश्चितः शिल्पिनो विविधरूपाणि वस्तूनि निर्माय सर्वान् सुभूषयन्ति तथैव राजादयो जनाः प्रजायां स्वास्थ्यं संस्थाप्य सर्वेषां कार्याणि साध्नुवन्तु ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब परस्पर भाव से राज प्रजा विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे राजा और प्रजाजनो ! (युवम्) आप दोनों जैसे (विश्वे) सम्पूर्ण (मायिनः) उत्तम बुद्धिवाले (तस्थुषः) स्थिर पुरुष के (कृतानि) उत्पन्न किये हुए (विरूपा) अनेक प्रकार के रूपों से युक्त पदार्थों को (पश्यन्ति) देखते हैं, वैसे (प्रत्नस्य) प्राचीन (गोपाजिह्वस्य) रक्षा करनेवाली जिह्वावाले पुरुष का (यत्) जो (महः) बड़ी (दैवी) देवताओं की (स्वस्तिः) स्वस्थता अर्थात् शान्ति है उसको (नः) हम लोगों के लिये (परि, साधथः) सब प्रकार सिद्ध करते हैं वैसे सबके सुखकारक हूजिये ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बुद्धिमान् शिल्पीजन अनेक प्रकार की वस्तुओं को रचके सबको शोभित करते हैं, वैसे ही राजा आदि जन प्रजा में स्वस्थता को स्थिर करके सबके कार्यों को सिद्ध करें ॥९॥

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    विषय

    'गोपाजिह्व' प्रभु का उपासन

    पदार्थ

    [१] हे इन्द्रावरुणौ ! (युवम्) = आप दोनों (प्रत्नस्य महः साधथ:) = उस सनातन तेज को सिद्ध करते हैं, (यत्) = जो तेज (दैवी स्वस्ति:) = देवों व इन्द्रियों सम्बन्धी कल्याण का कारण बनता है | 'इन्द्र' शक्ति का देवता है और 'वरुण' पाप-निवारण का। जब एक व्यक्ति इन 'इन्द्र-वरुण' का उपासक बनता है, तो वह उस तेज को प्राप्त करता है, जिस तेज से कि वह अपनी सब इन्द्रियों को उत्तम स्थिति में करनेवाला होता है । सो यह प्रार्थना करता है कि हे इन्द्रावरुणौ ! आप (नः) = हमारे (परिस्यातम्) = चारों ओर होनेवाले होइये, अर्थात् हमारे रक्षक होइये। [२] ये इन्द्र-वरुण के (विश्वे) = सब उपासक (गोपाजिह्वस्य) = [गोत्री जिह्वा यस्य] उस रक्षक जिह्वावाले, अर्थात् जिनकी वेदवाणी सभी का रक्षण करती है, उस (तस्थुष:) = कूटस्थ-अविचल, (मायिनः) = प्रज्ञावान् प्रभु की माया के अधिष्ठाता परमात्मा के (विरूपा कृतानि) = विविधरूपोंवाले वृत्रहनन आदि कर्मों को पश्यन्ति देखते हैं। अपने जीवन में वे अनुभव करते हैं कि किस प्रकार प्रभु उनकी वासनाओं को विनष्ट करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- शक्ति व निष्पापता की उपासना हमें वह तेज प्राप्त कराती है, जो कि हमारी सब इन्द्रियों को उत्तम स्थिति में रखता है। वस्तुतः प्रभु कृपा से ही वासनाओं का विनाश होता है।

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    विषय

    ईश्वरीय सनातन धर्म की साधना।

    भावार्थ

    हे मित्र और वरुण ! परस्पर स्नेही और एक दूसरे की रक्षा, संकटनिवारण और प्रेमपूर्वक वरण करने वाले ! स्त्री पुरुषो ! राजा प्रजावर्गो ! (युवं) तुम दोनों (प्रत्नस्य) पूर्व से चले आये, सनातन (महः) महान् पूजनीय परमेश्वर के बतलाये धर्म की (साधथः) साधना करो (यत्) जिससे (दैवी स्वस्तिः) देव परमेश्वर और विद्वानों द्वारा शुभ कल्याणमय सुख शान्ति हो। आप दोनों (नः) हमारे (परिस्यातम्) रक्षक रूप में इर्द गिर्द और कार्यों के ऊपर निरीक्षक रूप से रहो। (गोपाजिह्वस्य) भूमि वेद और वेदवाणी की रक्षा करने वाली जिह्वा अर्थात् वाणी वा आज्ञा को धारण करने वाले (तस्थुषः) स्थित (मायिनः) अति बुद्धिमान् पुरुष के (विरूपा कृतानि) विविध प्रकार के किये कर्मों और बनाये संसार के पदार्थों को (विश्वे मायिनः पश्यन्ति) सभी बुद्धिमान् देखते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रगोत्र वाचो वा पुत्रः प्रजापतिरुभौ वा विश्वामित्रो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६, १० त्रिष्टुप्। २–५, ८, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् पङ्क्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे बुद्धिमान कारागीर अनेक प्रकारच्या वस्तू निर्माण करून सर्वांना सुशोभित करतात तसेच राजा इत्यादी लोकांनी प्रजेमध्ये स्वस्थता निर्माण करून सर्वांचे कार्य सिद्ध करावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Both of you, Indra and Varuna, Spirit and energy, power and justice, ruler and people, bring us straight that great and celestial gift of joy and well being which is the gift of tradition and eternity. May that great and heavenly joy be ours from all sides. Wonderful artists of word and form see and realise all the creations of the constant lord of infinite forms who is the protector of eternal speech and divine consciousness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The common duties of the rulers and the people are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king and the people ! all men of good intellect look at the various forms drawn by an artist of unquestionable character. Same way, you should help in the maintenance of the divine health and welfare of an old and experienced person. His sayings protect the cows (he preaches the protection and preservation of the cattle-wealth). You bestow happiness upon all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The learned artists and artisans decorate and manufacture various articles of different forms. It is the duty of the king and officers of the State to accomplish the works aimed at improving and maintaining the health of the people.

    Foot Notes

    (स्वस्ति:) स्वास्थ्यम् । = Health. (गोपा जिह्वस्य ) गोरक्षका जिह्वा यस्य तस्य । = Whose tongue is the protector of the cows i.e. who always preaches about the protection and preservation of the cattle. मायिन:-प्रज्ञावन्तः। = Intelligent.

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