ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
दि॒वश्चि॒दा पू॒र्व्या जाय॑माना॒ वि जागृ॑विर्वि॒दथे॑ श॒स्यमा॑ना। भ॒द्रा वस्त्रा॒ण्यर्जु॑ना॒ वसा॑ना॒ सेयम॒स्मे स॑न॒जा पित्र्या॒ धीः॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । चि॒त् । आ । पू॒र्व्या । जाय॑माना । वि । जागृ॑विः । वि॒दथे॑ शस्यमा॑ना । भ॒द्रा । व॒स्त्रा॒णि । अर्जु॑ना । वसा॑ना । सा । इ॒यम् । अ॒स्मे इति॑ । स॒न॒ऽजा । पित्र्या॑ । धीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवश्चिदा पूर्व्या जायमाना वि जागृविर्विदथे शस्यमाना। भद्रा वस्त्राण्यर्जुना वसाना सेयमस्मे सनजा पित्र्या धीः॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। चित्। आ। पूर्व्या। जायमाना। वि। जागृविः। विदथे शस्यमाना। भद्रा। वस्त्राणि। अर्जुना। वसाना। सा। इयम्। अस्मे इति। सनऽजा। पित्र्या। धीः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या याऽस्मे दिवो जायमाना पूर्व्या विदथे जागृविः शस्यमाना भद्राऽर्जुना वस्त्राणि वसाना सुन्दरी स्त्रीव सनजा पित्र्या धीर्विजायते सेयं युष्मासु चिदा जायताम् ॥२॥
पदार्थः
(दिवः) विज्ञानप्रकाशात् (चित्) अपि (आ) (पूर्व्या) पूर्वैर्विद्वद्भिर्निष्पादिता (जायमाना) (वि) (जागृविः) जागरूका (विदथे) विज्ञानवर्द्धके व्यवहारे (शस्यमाना) स्तूयमाना (भद्रा) सेवनीयानि कल्याणकराणि (वस्त्राणि) (अर्जुना) सुरूपाणि। अर्जुनमिति रूपना०। निघं० ३। १७। (वसाना) धारयन्ती (सा) (इयम्) (अस्मे) अस्मासु (सनजा) सनेन विभागेन जाता (पित्र्या) पितृषु भवा (धीः) प्रज्ञा ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एवाप्ताः पुरुषा येष्वात्मवत्सर्वेषु बुद्ध्यादिपदार्थान् जनयितुमुद्यताः स्युः ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (अस्मे) हम लोगों में (दिवः) विज्ञान के प्रकाश से (जायमाना) उत्पन्न हुई (पूर्व्या) प्राचीन विद्वानों से सिद्ध की गई (विदथे) विज्ञान के बढ़ानेवाले व्यवहार में (जागृविः) जागनेवाली (शस्यमाना) स्तुति की जाती और (भद्रा) धारण करने योग्य और कल्याणकारक (अर्जुना) सुन्दररूपयुक्त (वस्त्राणि) वस्त्रों को (वसाना) ओढ़ती हुई सुन्दर स्त्री के तुल्य (सनजा) विभाग से प्रसिद्ध (पित्र्या) वा पितरों में प्रकट हुई (धीः) उत्तम बुद्धि (वि) विशेषता से उत्पन्न होती (सा, इयम्) सो यह आप लोगों में (चित्, आ) भी सब ओर से उत्पन्न होवें ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही श्रेष्ठ पुरुष हैं, जो कि अपने आत्मा के तुल्य सम्पूर्ण जनों में बुद्धि आदि पदार्थों को उत्पन्न कराने को उद्यत होवें ॥२॥
विषय
स्तवन से ज्ञानवाणी का प्रादुर्भाव
पदार्थ
[१] (दिवः चित्) = द्योतमान सूर्य से भी (पूर्व्या आजायमाना) = पहले होनेवाली-उषाकाल में होनेवाली (विदथे शस्यमाना) = ज्ञानयज्ञों में उच्चारण की जाती हुई यह स्तुति (विजागृवि:) = हमें विशेषरूप से जगानेवाली है। उषाकाल में हम प्रभु का स्तवन करते हैं, यह स्तवन हमें उस प्रकार का बनने की प्रेरणा देता है । [२] (सा) = वह (इयम्) = यह (सनजा) = सनातनकाल से प्रादुर्भूत होनेवाली (पित्र्या) = सबके पिता उस प्रभु से दी जानेवाली (धी:) = वेदरूप ज्ञानवाणी (अस्मे) = हमारे लिए (भद्रा) = कल्याणकर (अर्जुनाः) = शुभ्र वस्त्राणि वस्त्रों को वसाना धारण कराती है, अर्थात् इस ज्ञानवाणी से हमारा जीवन शुभ कर्मरूप वस्त्रों से आच्छादित होता है-हम सदा शुभ ही कर्म करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु हमारे लिए ज्ञान की वाणी प्राप्त कराते हैं।
विषय
उत्तम पत्नीवत् वेदवाणी का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार स्त्री (दिवः चित्) पति की कामना से (आजायमाना) वह पूर्व विद्वानों से संस्कृत होकर ‘जाया’ हो जाती है और वह (शस्यमाना) पति के गुणों के सम्बन्ध में सखियों द्वारा कही गयी ( विदथे जागृविः) पति को प्राप्त करने के निमित्त, जागती-सी रहती है, उत्सुकता के कारण निद्रित नहीं होती और वह जिस प्रकार (अर्जुना भद्रा वस्त्राणि) श्वेत, शुद्ध, सुखकारक, कल्याणकारक सुन्दर वस्त्रों को धारण करती है और वह (सनजा) दानपूर्वक दूसरे की होकर भी (पित्र्या) विवाहकर्त्ता के पिता माता की हितकारिणी और (धीः) विवाहकर्त्ता के द्वारा धारण पोषण करने योग्य हो जाती है। उसी प्रकार (पूर्व्या) हमसे पूर्व के विद्वानों से प्रकट हुई। (दिवः चित्) सूर्य से उषा के समान, ज्ञानप्रकाश से (आजायमाना) सब प्रकार से प्रकट होती हुई (विदथे) इष्ट देव के प्राप्त करने के निमित्त वा यज्ञ में (वि शस्यमाना) विविध प्रकार से स्तुति की जाती हुई (भद्रा) अति कल्याणकारक, सुखप्रद (अर्जुना) दोषरहित (वस्त्रादि) आच्छादक छन्दों को धारण करती हुई (सनजा) सनातन परम पुरुष से उत्पन्न हुई (पित्र्या) माता पिता और वाणी के पालक गुरुजनों में स्थित (सा इयं) वह यह (धीः) धारण करने योग्य वाणी और सन्मति (अस्मे) हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत्त्रिष्टुप २,८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे स्वतःच्या आत्म्याप्रमाणे सर्वांमध्ये बुद्धी इत्यादी निर्माण करण्यास तत्पर असतात तेच आप्त पुरुष असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Coming from the light of Divinity, ancient and eternal, ever rising, ever wakeful and awakening the mind and soul into divine awareness, celebrated in yajna and the sacred ways of life, blessed and blissful, like the dawn, adorned in the purest garb of immaculate words and verses, coexistent with Divine consciousness and abiding with fatherly sages, may that holy light of the Vedic Word be ours.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of attributes and duties of the enlightened persons is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! may this eternal wisdom manifest the light of true knowledge, accomplished by ancient enlightened persons, thus ever wakeful in dealing with and augmenting true knowledge, and are praised by all like an auspicious lady and who clad in the pure and beautiful dress. Such a person discriminates well between the truth and falsehood and is beneficent to all his predecessors. Let that wisdom be manifest in you also, as it is in us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those parsons only may be regarded as absolutely truthful who are always ready to earn wisdom and other desirable virtues among others as well as in themselves.
Foot Notes
दिव: विज्ञानप्रकाशात् । = From the light of true knowledge. (अर्जुना) सुरूपाणि । अर्जुन मिति रूपनाम (NG 3, 17 ) = Born or manifested by discrimination between the truth and falsehood.
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