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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 40/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यद॑न्त॒रा प॑रा॒वत॑मर्वा॒वतं॑ च हू॒यसे॑। इन्द्रे॒ह तत॒ आ ग॑हि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒न्त॒रा । प॒रा॒वत॑म् । अ॒र्वा॒वत॑म् । च॒ । हू॒यसे॑ । इन्द्र॑ । इ॒ह । ततः॑ । आ । ग॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदन्तरा परावतमर्वावतं च हूयसे। इन्द्रेह तत आ गहि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अन्तरा। परावतम्। अर्वावतम्। च। हूयसे। इन्द्र। इह। ततः। आ। गहि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 40; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वमिह यद्यमन्तरा परावतमर्वावतं चाह्वयति तैश्च हूयसे ततोऽस्मानागहि ॥९॥

    पदार्थः

    (यत्) यः (अन्तरा) व्यवधाने (परावतम्) दूरदेशस्थम् (अर्वावतम्) प्राप्तसामीप्यम् (च) (हूयसे) स्तूयसे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रद (इह) अस्मिन् राज्ये (ततः) (आ) (गहि) आगच्छ ॥९॥

    भावार्थः

    राजा दूरदेशे प्रजासेनाऽमात्यजनोऽन्यत्रापि वर्त्तेत तथापि भृत्यद्वारा सर्वैः सह समीपस्थो भवेदिति ॥९॥ अत्र राजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चत्वारिंशत्तमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के दाता ! आप (इह) इस राज्य में (यत्) जो (अन्तरा) व्यवधान अर्थात् मध्य में (परावतम्) दूर देश और (अर्वावतम्) समीप में वर्त्तमान को (च) और पुकारते हैं उन लोगों से (हूयसे) पुकारे जाते हो (ततः) इससे हम लोगों को (आ, गहि) प्राप्त हूजिये ॥९॥

    भावार्थ

    राजा दूर देश में हो और प्रजा सेना और मन्त्री जन अन्यत्र भी वर्त्तमान हों तथापि दूतों के द्वारा सब लोगों के साथ में समीप वर्त्तमान हो सके ॥९॥ इस सूक्त में राजा और प्रजा के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चालीसवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा परदेशात असेल व प्रजा, सेना, मंत्री इतरत्र असतील तर (दूताद्वारे) सेवकाद्वारे सर्व लोकांशी संपर्क साधता येतो. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord giver of prosperity, invoked from within, from far and from near, come from there, anywhere, take us and bless us with grace.

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