ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 43/ मन्त्र 3
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आ नो॑ य॒ज्ञं न॑मो॒वृधं॑ स॒जोषा॒ इन्द्र॑ देव॒ हरि॑भिर्याहि॒ तूय॑म्। अ॒हं हि त्वा॑ म॒तिभि॒र्जोह॑वीमि घृ॒तप्र॑याः सध॒मादे॒ मधू॑नाम्॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । य॒ज्ञम् । न॒मः॒ऽवृध॑म् । स॒ऽजोषाः॑ । इन्द्र॑ । दे॒व॒ । हरि॑ऽभिः । या॒हि॒ । तूय॑म् । अ॒हम् । हि । त्वा॒ । म॒तिऽभिः॑ । जोह॑वीमि । घृ॒तऽप्र॑याः । स॒ध॒ऽमादे॑ । मधू॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो यज्ञं नमोवृधं सजोषा इन्द्र देव हरिभिर्याहि तूयम्। अहं हि त्वा मतिभिर्जोहवीमि घृतप्रयाः सधमादे मधूनाम्॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। यज्ञम्। नमःऽवृधम्। सऽजोषाः। इन्द्र। देव। हरिऽभिः। याहि। तूयम्। अहम्। हि। त्वा। मतिऽभिः। जोहवीमि। घृतऽप्रयाः। सधऽमादे। मधूनाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 43; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे देवेन्द्र घृतप्रया अहं मतिभिर्मधूनां सधमादे हि त्वा जोहवीमि तस्मात्सजोषास्त्वं हरिभिर्नो नमोवृधं यज्ञं तूयमायाहि ॥३॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (नः) अस्माकम् (यज्ञम्) प्रयत्नसाध्यम् (नमोवृधम्) अन्नाद्यैश्वर्य्यवर्धकम् (सजोषाः) समानप्रीतिसेवनाः (इन्द्र) ऐश्वर्य्ययोजक (देव) विद्वन् (हरिभिः) अश्वैरिव वह्न्यादिभिः (याहि) गच्छ (तूयम्) तूर्णम् (अहम्) (हि) (त्वा) त्वाम् (मतिभिः) प्रज्ञाभिः (जोहवीमि) भृशं प्रशंसाम्याह्वयामि वा (घृतप्रयाः) यो घृतेन प्रीणाति सः (सधमादे) समानस्थाने (मधूनाम्) मधुरादिगुणयुक्तानां पदार्थानाम् ॥३॥
भावार्थः
मनुष्यैस्तेषामेव प्रशंसा कार्य्या ये सर्वेषां सुखं वर्द्धयेयुः ॥३॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (देव) विद्वन् ! (इन्द्र) ऐश्वर्य्य से युक्त करनेवाले (घृतप्रयाः) घृत से प्रसन्न होनेवाला (अहम्) मैं (मतिभिः) बुद्धियों से (मधूनाम्) और मधुर आदि गुणों से युक्त पदार्थों के (सधमादे) तुल्य स्थान में (हि) जिससे कि (त्वा) आपकी (जोहवीमि) प्रशंसा करता वा बुलाता हूँ इससे (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवनेवाले आप (हरिभिः) घोड़ों के सदृश अग्नि आदिकों से (नः) हम लोगों को (नमोवृधम्) अन्न आदि ऐश्वर्य्य के बढ़ानेवाले (यज्ञम्) प्रयत्न से सिद्ध होने योग्य सङ्गत व्यवहार के प्रति (तूयम्) शीघ्र (आ) सब प्रकार (याहि) प्राप्त हूजिये ॥३॥
भावार्थ
मनुष्यों को उन लोगों की ही प्रशंसा करनी चाहिये कि जो सबके सुखों की वृद्धि करें ॥३॥
विषय
घृत प्रयाः
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन्! (देव) = प्रकाशमय प्रभो ! आप (नः) = हमारे (नमोवृधम्) = अन्नों के वर्धक [यज्ञाद् भवति पर्जन्यः, पर्जन्यादन्नसंभव:] (यज्ञम्) = यज्ञ को (सजोषाः) = प्रीतिपूर्वक सेवन करते हुए (तूयम्) = शीघ्र (हरिभिः) = इन इन्द्रियाश्वों के साथ (आयाहि) = आइये । हम यज्ञ करें, यह यज्ञ आपको प्रिय हो, आप हमें इन यज्ञों द्वारा उत्तम इन्द्रियों को प्राप्त कराइये। [२] (अहम्) = मैं (हि) = निश्चय से (मतिभिः) = मननपूर्वक किये गये स्तोत्रों से (त्वा जोहवीमि) = तुझे पुकारता हूँ। आपके पुकारनेवाला मैं (मधूनाम्) = ओषधियों के सारभूत सोमकणों के (सधमादे) = साथ हर्ष में (घृतप्रयाः) = [घृ क्षरणदीप्त्योः] मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति की ओर प्रकृष्ट गतिवाला होता हूँ [प्रया]। मैं सोम का रक्षण करता हूँ- उससे आनन्द व प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ। इस सोमरक्षण द्वारा मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्तिवाला बनता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं यज्ञशील बनूँ, प्रभु मुझे उत्तम इन्द्रियाश्व प्राप्त कराएँ । उपासन द्वारा सोमरक्षण करता हुआ मैं निर्मल शरीरवाला व दीप्त मस्तिष्कवाला होऊँ ।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी त्याच लोकांची प्रशंसा केली पाहिजे जे सर्वांच्या सुखाची वृद्धी करतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, brilliant creator of wealth and master of development, come fast by your car of motive power as a friend to join our yajnic programme of development for the growth of food, energy and overall prosperity. With the best of people, in the best of words and thought, I invite you and welcome you with the best of delicious offerings to our house of honey sweets.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of real friends are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O (Indra) learned person ! O giver of wealth! pleasing you with ghee (clarified butter) and with intellect, I praise and invite you at a place where honey and other articles have been collected. Lovingly you come to our Yajna which grows food grains and prosperity because of the car (transportation) where energy etc. are used in lieu of the horses.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should admire only those persons who increase the happiness of others.
Foot Notes
(हरिभिः) अश्वैरिव वह्नयादिभिः = Fire, electricity etc. various forms of energy which are like horses. (घृतप्रयाः) यो घृतेन प्रीणाति सः । घृतप्रया:-प्रीनतर्पणं कान्तौ च । अत्र तर्पणार्थ: (ब्रा) = He who pleases with clarified butter. (नमोबुधम ) अन्नाद्यै स्वयंवर्धकम् । नम इति अन्ननाम | (N.G. 2,7 ) = Augmenter of food and prosperity.
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