ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 43/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्र॒ पिब॒ वृष॑धूतस्य॒ वृष्ण॒ आ यं ते॑ श्ये॒न उ॑श॒ते ज॒भार॑। यस्य॒ मदे॑ च्या॒वय॑सि॒ प्र कृ॒ष्टीर्यस्य॒ मदे॒ अप॑ गो॒त्रा व॒वर्थ॑॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । पिब॑ । वृष॑ऽधूतस्य । वृष्णः॑ । आ । यम् । ते॒ । श्ये॒नः । उ॒श॒ते । ज॒भार॑ । यस्य॑ । मदे॑ । च्या॒वय॑सि । प्र । कृ॒ष्टीः । यस्य॑ । मदे॑ । अप॑ । गो॒त्रा । व॒वर्थ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र पिब वृषधूतस्य वृष्ण आ यं ते श्येन उशते जभार। यस्य मदे च्यावयसि प्र कृष्टीर्यस्य मदे अप गोत्रा ववर्थ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। पिब। वृषऽधूतस्य। वृष्णः। आ। यम्। ते। श्येनः। उशते। जभार। यस्य। मदे। च्यावयसि। प्र। कृष्टीः। यस्य। मदे। अप। गोत्रा। ववर्थ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 43; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 7
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं वृषधूतस्य वृष्णो रसं पिब श्येन इव यमुशते तुभ्यं यमा जभार यस्य मदे त्वं कृष्टीः प्र च्यावयसि। यस्य मदे गोत्रा अप ववर्थ तं स्वात्मवत्सेवस्व ॥७॥
पदार्थः
(इन्द्र) विशेषैश्वर्य्यप्रद ! (पिब) (वृषधूतस्य) वृषा बलिष्ठाः पदार्था धूताः कम्पिता येन तस्य (वृष्णः) बलिष्ठस्य (आ) (यम्) (ते) तुभ्यम् (श्येनः) एतत् पक्षीव (उशते) कामयमानाय (जभार) धरति (यस्य) (मदे) आनन्दे (च्यावयसि) प्रापयसि (प्र) (कृष्टीः) मनुष्यान् (यस्य) (मदे) आनन्दे (अप) (गोत्रा) पृथिवी (ववर्थ) वर्त्तते ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! ये श्येनवत्सद्यो गामिनः सर्वस्य सुखं कामयमाना मनुष्यान् सुखयन्ति तेषां सन्निधौ स्थित्वा विद्याव्यवहाराऽऽनन्दं प्राप्नुत ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) विशेष ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! आप (वृषधूतस्य) बलिष्ठ पदार्थों के कँपानेवाले (वृष्णः) बलिष्ठ पदार्थ के रस का (पिब) पान करो (श्येनः) वाज पक्षी के सदृश (यम्) जिसकी (उशते) कामना करनेवाले (ते) आपके लिये जिसको (आ, जभार) धारण करता है (यस्य) जिसके (मदे) आनन्द में आप (कृष्टीः) मनुष्यों को (प्र, च्यावयसि) प्राप्त कराते हैं और (यस्य) जिसके (मदे) आनन्द के निमित्त (गोत्रा) पृथिवी (अप, ववर्थ) वर्त्तमान है, उसकी अपने तुल्य सेवा करो ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो श्येन पक्षी के सदृश शीघ्र चलने और सबके सुख की कामना करनेवाले पुरुष मनुष्यों को सुख देते हैं, उन लोगों के समीप वर्त्तमान होकर विद्यासम्बन्धी व्यवहार के आनन्द को प्राप्त होओ ॥७॥
विषय
विषयाकर्षण को दूर करना
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (वृषधूतस्य) = शरीर में सुखों का वर्षण करनेवाले[वृष] करनेवाले [धूत] (वृष्णाः) = व रोगकृमियों को कम्पित करके-शक्तिशाली सोम का पिब पान कर, इसे तू शरीर में ही सुरक्षित कर। उस सोम [वीर्य] का तू पान कर, (यम्) = जिसको (उशते ते) = चाहनेवाले तेरे लिए (श्येनः) = वह शंसनीय गतिवाला प्रभु आजभार प्राप्त कराता है। वस्तुतः सोमपान का उपाय भी 'श्येन' बनना ही है, शंसनीय गतिवाला बनना। सदा क्रिया में लगे रहने से ही सोम का रक्षण होता है। [२] यह सोम वह है, (यस्य) = जिसके (मदे) = मद में-हर्ष में (कृष्टीः) = [कृष्टि:=drawing, attracting] विषयों के आकर्षणों को प्रच्यावयसि तू दूर करता है। सोम का रक्षण करने पर तू विषयों से आकृष्ट नहीं होता और यस्य मदे जिसके मद में तू (गोत्रा) = इन्द्रियसमूह को (अपववर्थ) = सदा वासनात्मक विषयों से विनिवृत्त करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम का रक्षण करने पर मनुष्य विषयों के आकर्षण से ऊपर उठता है और इन्द्रियों को इस विषयपंक में फँसने नहीं देता।
विषय
सूर्य मेघवत् राजा के नाना कर्त्तव्य।
भावार्थ
(वृषधूतस्य वृष्णः) जिस प्रकार बलिष्ठ वायुयुक्त सञ्चालित वर्षणशील मेघ या वृष्टिकारक जल को सूर्य पान कर लेता है (यं श्येनः आ जभार) जिसको शुभ्र किरणगण आहरण कर लेता है, जिसके बल पर वह सूर्य (कृष्टीः) जलों के आकर्षण करने वाले अपने किरणों को भूतल पर गिराता है, जिसके हर्ष या बलपर सूर्य (गोत्राः) पर्वतों को ढांपता, मेघों को दूर कर देता और भूमि को जल से और औषधियों से ढंक देता है उस जल को सूर्य ही खैंचता है। उसी प्रकार हे (इन्द्र) सूर्य के समान तेजस्विन् ! ऐश्वर्यवन् ! शत्रु के हनन करने हारे ! तू (वृषधूतस्य) बलवान् पुरुषों को कंपाने वाले (वृष्णः) अति बलशाली, प्रबल राष्ट्र को (पिब) पालन कर। (यं) जिसको (श्येनः) बाज पक्षी के समान निर्बल शत्रुओं पर वेग से जा पड़ने वाला सेनानायक (उशते ते) राज्य की कामना करने वाले तेरे लिये (उत् जभार) शत्रु के हाथों से उद्धार करता है और (यस्य मदे) जिसके प्राप्त कर लेने के हर्ष में (कृष्टीः) कर्षण या पीड़न करने योग्य शत्रु मनुष्यों को (प्र च्यावयसि) अपने पद से गिरा देता है अथवा जिसके दमन करने में राजा (कृष्टीः) किसान प्रजाओं को (प्र) उत्तम रीति से (च्यावयसि) उत्साहित करता है और (यस्यमदे) जिसके लाभ के आनन्द होने पर (गोत्रा) भूमि को (अप ववर्थ ) परास्त करता है या, (गोत्रा अप ववर्थ) पर्वत के समान अभेद्य, स्थिर शत्रुओं को भी उखाड़ फेंकता है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ३ विराट् पङ्क्ति। २, ४, ६ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे श्येन पक्ष्याप्रमाणे शीघ्र चालणारे व सर्वांच्या सुखाची कामना करणारे पुरुष माणसांना सुख देतात, त्यांच्याजवळ राहून विद्यासंबंधी व्यवहाराचा आनंद प्राप्त करा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power and passion for life, drink of the potent soma created by the vibrations of generous nature and brought down from the sky by the eagle flights of your car for you, lord of love and ambition, for your people. It is in the ecstasy of soma that you inspire the children of the earth with energy, and it is in the ecstasy of that energy that the earth abides and turns round and round.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More about the friends and well wishers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O giver of great wealth, drink the juice of such powerful substance (Soma) which shakes off even mighty persons. It is brought to you when you long it, by a falcon like a quick-going active man. In exhilaration and delight of this Soma, you cast down your opponents, and in your bliss, the earth remains as the people of the earth are delighted.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! living near these persons who are quick going and who desire the welfare of all. make them happy, and enjoy the bliss of knowledge and good dealings.
Foot Notes
(बुबंधूतस्य) वृषा बलिष्ठाः पदार्था धूताः कम्पिता येन तस्य = Which has shaken off even the powerful articles. (श्येन:) एतत्पक्षीव = Quick going or active like the falcon bird. (कृष्टी:) मनुष्याः कृष्टय इति मनुष्यनाम (NG 2, 3 ) = Men.
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