ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 44/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
इन्द्रो॑ ह॒र्यन्त॒मर्जु॑नं॒ वज्रं॑ शु॒क्रैर॒भीवृ॑तम्। अपा॑वृणो॒द्धरि॑भि॒रद्रि॑भिः सु॒तमुद्गा हरि॑भिराजत॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । ह॒र्यन्त॑म् । अर्जु॑नम् । वज्र॑म् । शु॒क्रैः । अ॒भिऽवृ॑तम् । अप॑ । अ॒वृ॒णो॒त् । हरि॑ऽभिः । अद्रि॑ऽभिः । सु॒तम् । उत् । गाः । हरि॑ऽभिः । आ॒ज॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो हर्यन्तमर्जुनं वज्रं शुक्रैरभीवृतम्। अपावृणोद्धरिभिरद्रिभिः सुतमुद्गा हरिभिराजत॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। हर्यन्तम्। अर्जुनम्। वज्रम्। शुक्रैः। अभिऽवृतम्। अप। अवृणोत्। हरिऽभिः। अद्रिऽभिः। सुतम्। उत्। गाः। हरिऽभिः। आजत॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 44; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यथेन्द्रः शुक्रैरभीवृतमर्जुनं वज्रं हर्यन्तं हरिभिरद्रिभिः सुतमपावृणोत्तथा हरिभिः सह राजा गा इवोदाजत ॥५॥
पदार्थः
(इन्द्रः) सूर्य्यः (हर्य्यन्तम्) कामयन्तम् (अर्जुनम्) रूपम्। अर्जुनमिति रूपना०। निघं०३। ७। (वज्रम्) किरणसमूहम् (शुक्रैः) आशुकरैर्गुणैः (अभीवृतम्) अभितो वृतं युक्तम् (अप) (अवृणोत्) दूरी करोति (हरिभिः) हरणशीलैः किरणैः (अद्रिभिः) मेघैः (सुतम्) सिद्धम् (उत्) (गाः) पृथिवी (हरिभिः) मनुष्यैः सह राजा। हरय इति मनुष्यना०। निघं०२। ३। (आजत) प्रक्षिपति ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्य्यवद्विद्याविनयसेनाधनादिकं प्रकाश्याऽविद्यादि निवर्त्य सुसहायेन राज्ञा सहाऽऽमन्त्र्य राज्यं पालयन्ति ते पूर्णकामा भवन्तीति ॥५॥ अत्र सूर्य्यविद्युद्वायुविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुश्चत्वारिंशत्तमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे विद्वान् लोगो ! जैसे (इन्द्रः) सूर्य्य (शुक्रैः) शीघ्रता करनेवाले गुणों से (अभीवृतम्) सब ओर से युक्त (अर्जुनम्) रूप और (वज्रम्) किरणों के समूह की (हर्य्यन्तम्) कामना करते हुए (हरिभिः) हरनेवाली किरणों और (अद्रिभिः) मेघों से (सुतम्) सिद्ध हुए पदार्थ को (अप, अवृणोत्) दूर करता है वैसे (हरिभिः) मनुष्यों के साथ राजा (गाः) पृथिवियों के तुल्य और पदार्थों को (उत्, आजत) फेंकता है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग सूर्य्य के सदृश विद्या नम्रता सेना और धन आदि का प्रकाश और अविद्या आदि की निवृत्ति कर जिसका उत्तम सहाय उस राजा के साथ सलाह करके राज्य का पालन करते हैं, वे पूर्ण मनोरथवाले होते हैं ॥५॥ इस सूक्त में सूर्य्य बिजुली वायु और विद्वान् के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥५॥ यह चवालीसवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
क्रियाशीलता व उपासना
पदार्थ
[१] (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (हर्यन्तम्) = कान्त चमकते हुए अर्जुन श्वेत, अर्थात् निर्मल (वज्रम्) = वज्र को क्रियाशीलतारूप आयुध को (शुक्रैः अभीवृतम्) = [शुच दीप्तौ शुक गतौ] निर्मल गतियों से घिरा हुआ व व्याप्त करके (अपावृणोत्) = वासना से अपावृत करता है। यह इन्द्र सदा उत्तम क्रियाओं में लगा रहता है और इस प्रकार अपने पर वासनाओं के आक्रमण को नहीं होने देता । [२] यह अपने जीवन में (अद्रिभिः) = [आ दृड्=आद्रियते those who adore] उपासना में तत्पर (हरिभिः) = इन्द्रियाश्वों से (सुतम्) = उत्पन्न हुए हुए सोम को (अपावृणोत्) = वासनाओं से आवृत नहीं होने देता। यह (हरिभिः) = इन गतिशील इन्द्रियाश्वों द्वारा (गाः) = ज्ञान की वाणियों को (उद् आजत) = अपने में उत्कर्षेण प्रेरित करता है।
भावार्थ
भावार्थ – क्रियाओं में लगे रहना व उपासना में प्रवृत्त होना आवश्यक है। इसी प्रकार वासनाओं का विनाश होता है और उत्कृष्ट ज्ञानवाणियों की प्राप्ति होती है। सम्पूर्ण सूक्त सोमरक्षण की आवश्यकता पर बल दे रहा है। इसी दृष्टिकोण से अगले सूक्त का प्रारम्भ विषयों में न फँसने के उपदेश से होता है -
विषय
सैन्य दलों से ऐश्वर्य प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
(इन्द्र) सूर्य जिस प्रकार (हर्यन्तम्) कान्तियुक्त (अर्जुनं) श्वेत (वज्रं) अन्धकार के निवारक (शुक्रैः अभीवृतम्) किरणों से युक्त प्रकाश को (अप अवृणोत्) प्रकट करता है औरजिस प्रकार (इन्द्रः) तीव्र वायु (हर्यन्तं) अति दीप्तियुक्त (अर्जुनं) पीड़ित करने वाले (शुक्रैः अभीवृतं) जलों से घिरे हुए (वज्रं) विद्युत् रूप वज्र को (अप अवृणोत्) प्रकट करता है उसी प्रकार (इन्द्रः) शत्रुहन्ता राजा (हर्यन्तं) अति प्रदीप्त (अर्जुनं) शत्रु-हिंसक (शुक्रैः) शीघ्र कार्य करने वाले चुस्त सैनिकों से व्याप्त (वज्रं) शत्रुनिवारक सैन्य को (अप अवृणोत्) प्रकट करे। और जिस प्रकार (हरिभिः) किरणों और (अद्रिभिः) मेघों से सूर्य (सुतम्) सेचन करने वाले जल को प्रकट करता है उसी प्रकार ऐश्वर्यवान् राजा (हरिभिः) गतिशील शत्रु के धनों को हरने और प्रजाजनों के मनों को हरने वाले अश्वसैन्यों और (अद्रिभिः) पर्वतों के समान अचल, अभेद्य और मेघों के समान शस्त्रवर्षी सैन्यों से (सुतम्) उत्पन्न ऐश्वर्यों को (अप अवृणोत्) प्रकट करे। वह (हरिभिः गाः) सूर्य जिस प्रकार जल-हरणशील किरणों से नीचे गिरने वाली जलधाराओं को बरसाता है उसी प्रकार राजा भी (हरिभिः) उत्तम मनुष्यों से (गाः) भूमियों को (आजत) शासन करे। इत्यष्टमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २ निचृद् बृहती। ३, ५ बृहती। ४ स्वराडनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे लोक सूर्याप्रमाणे विद्या, नम्रता, सेना व धन इत्यादी (बाळगून) प्रकाशित करून अविद्या इत्यादींचा नाश करून साह्यकारी राजाबरोबर सल्लामसलत करून राज्याचे पालन करतात ते पूर्ण मनोरथी असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, the sun, with its brilliant rays, uncovers and manifests his glorious form of light girdled round by the radiant halo and with his light reaches and re reveals the earth and her environment sprinkled over by cloud showers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of sun is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! the sun dispels the darkness created by the clouds and with his radiant rays creates light and beautiful form desired by all. In the same manner, a ruler should give good lands and other desirable objects to deserving persons in company of the good men who alleviate the sufferings of others.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who illuminate like the sun, their knowledge, humility, army and wealth, dispel ignorance and protect the State in line with a ruler. He has many helpers and fulfil their noble desires.
Foot Notes
(इन्द्रः) सूर्य्यः । एष एवेन्द्रो य एष सूर्यस्तपति (Stph. 1, 6, 4, 18) युक्ता ह्यस्या (इन्द्रस्य ) हरयः शता दशेति सहस्र हेते आदित्यस्य रश्मयः । तेऽस्ययुक्ताः तैरिदं सर्वं हरति । तद् यदेतैरिदम् सर्वं हरति तस्माद् हरयः (Jaiminiyo- pamnishad Brahmana 1, 14, 3, 5 ) = The sun. (अर्जुनम् ) रूपम् । अर्जुनमिति रूपनाम (NG 3, 7)। With the rays dispelling darkness. (हरिभिः) हरणशीलैः किरणैः । (अद्रिभिः) मेघैः । अद्रिरिति मेघनाम (NG 1, 10) = clouds.
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