ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 46/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒रुं ग॑भी॒रं ज॒नुषा॒भ्यु१॒॑ग्रं वि॒श्वव्य॑चसमव॒तं म॑ती॒नाम्। इन्द्रं॒ सोमा॑सः प्र॒दिवि॑ सु॒तासः॑ समु॒द्रं न स्र॒वत॒ आ वि॑शन्ति॥
स्वर सहित पद पाठउ॒रुम् । ग॒भी॒रम् । ज॒नुषा॑ । अ॒भि । उ॒ग्रम् । वि॒श्वऽव्य॑चसम् । अ॒व॒तम् । म॒ती॒नाम् । इन्द्र॑म् । सोमा॑सः । प्र॒ऽदिवि॑ । सु॒तासः॑ । स॒मु॒द्रम् । न । स्र॒वतः॑ । आ । वि॒श॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उरुं गभीरं जनुषाभ्यु१ग्रं विश्वव्यचसमवतं मतीनाम्। इन्द्रं सोमासः प्रदिवि सुतासः समुद्रं न स्रवत आ विशन्ति॥
स्वर रहित पद पाठउरुम्। गभीरम्। जनुषा। अभि। उग्रम्। विश्वऽव्यचसम्। अवतम्। मतीनाम्। इन्द्रम्। सोमासः। प्रऽदिवि। सुतासः। समुद्रम्। न। स्रवतः। आ। विशन्ति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 46; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह।
अन्वयः
ये प्रदिवि सुतासः सोमासो विद्वांसो जनुषोरुं गभीरमुग्रं विश्वव्यचसं मतीनामवतमिन्द्रं स्रवतः समुद्रं नाभ्याविशन्ति तथैव ये सर्वत्र प्रविशन्ति तेऽक्षयैश्वर्या भवन्ति ॥४॥
पदार्थः
(उरुम्) बहुविधगुणम् (गभीरम्) गूढाशयम् (जनुषा) जन्मना (अभि) आभिमुख्ये (उग्रम्) सर्वैः सह समवेतम् (विश्वव्यचसम्) विश्वव्यापकम् (अवतम्) रक्षकम् (मतीनाम्) मनुष्याणाम् (इन्द्रम्) विद्युतम् (सोमासः) ऐश्वर्य्यवन्तः (प्रदिवि) प्रकृष्टप्रकाशे (सुतासः) विद्याविनयाभ्यां निष्पन्नाः (समुद्रम्) (न) इव (स्रवतः) चलन्त्यः सरितः। अत्र वा च्छन्दसीति वर्णलोपो वेतीकाराऽभावे नुमोऽप्यभावः। (आ) (विशन्ति) प्रविशन्ति ॥४॥
भावार्थः
ये विद्युद्विद्यां विज्ञायोपकारं ग्रहीतुं शक्नुवन्ति ते समग्राः श्रिय उपलभन्ते ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
जो लोग (प्रदिवि) उत्तम प्रकाश में (सुतासः) विद्या और विनय से प्रसिद्ध (सोमासः) ऐश्वर्य्यवाले विद्वान् लोग (जनुषा) जन्म से (उरुम्) अनेक प्रकार के गुणों से युक्त (गभीरम्) गूढ़ अभिप्रायवाले (उग्रम्) सबके साथ मिले हुए (विश्वव्यचसम्) सर्वत्र व्यापक (मतीनाम्) मनुष्यों के (अवतम्) रक्षा करनेवाले (इन्द्रम्) बिजुली रूप अग्नि को (स्रवतः) बहती हुई नदियाँ (समुद्रम्) समुद्र को (न) जैसे (अभि, आ, विशन्ति) सब ओर से प्रविष्ट होती हैं, वैसे जो सब ओर से प्रवेश करते अर्थात् उसमें चित्त देते हैं, वे उस ऐश्वर्य्यवाले होते हैं, जो ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होता है ॥४॥
भावार्थ
जो लोग बिजुली सम्बन्धी विद्या को जानकर उसके द्वारा उपकार ग्रहण कर सकते हैं, वे अनेक प्रकार की लक्ष्मियों को प्राप्त होते हैं ॥४॥
विषय
'यथा नद्यः स्यन्दमाना: समुद्रम्'
पदार्थ
[१] (प्रदिवि) = प्रकृष्ट ज्ञान के निमित्त (सुतास:) = [सुतं अस्य अस्ति इति सुतः] सोम का सम्पादन करनेवाले (सोमासः) = सौम्य स्वभाववाले शान्त पुरुष (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में इस प्रकार (आविशन्ति) = प्रवेश कर जाते हैं, (न) = जैसे कि (स्त्रवत:) = बहती हुई नदियाँ (समुद्रम्) = समुद्र में प्रवेश करती हैं। वस्तुतः जलरूप नदियाँ तो समुद्र में प्रविष्ट होने पर रहती ही हैं, उनका नाम रूप नहीं रहता। इसी प्रकार जीव अपने भौतिक सम्पर्क को छोड़कर प्रभु में प्रवेश कर जाता है ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है। [२] उस परमात्मा में प्रवेश करते हैं, जो कि (उरुम्) = विशाल हैं, (गमीरम्) = अत्यन्त गम्भीर हैं, (जनुषा) = जन्म से ही (अभि उग्रम्) = शत्रुओं के लिए भयंकर हैं, (विश्वव्यचसम्) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विस्तारवाले हैं और (मतीनाम्) = मननशील पुरुषों के (तम्) = रक्षक हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम का सम्पादन करनेवाला सौम्यपुरुष प्रभु में प्रवेश पाता है।
विषय
राजा के वीरोचित कर्त्तव्य।
भावार्थ
(स्रवतः समुद्रं न) बहती नदियां जिस प्रकार समुद्र में (आविशन्ति) प्रवेश कर जाती हैं उसी प्रकार (सुतासः सोमासः) अभिषिक्त शासक जन, (प्रदिवि) उत्कृष्ट न्याय, व्यवहार, विजय कामना की पूर्ति के लिये (उरुं) महान्, (गभीरं) गूढ़ आशय वाले गम्भीर, (जनुषा) जन्म से, स्वभाव से ही (अभि उग्रम्) सब प्रकार से उग्र, अभिमुख व्यक्तियों के लिये भीतिप्रद (विश्वव्यचसं) समस्त राष्ट्र में व्यापक शासन प्रभाव वाले, (मतीनाम् अवतम्) मनन करने योग्य ज्ञानों और मननशील मनुष्यों के रक्षक (इन्द्रं) ऐश्वर्यवान् शत्रुहनन में समर्थ पुरुष को (आ विशन्ति) प्राप्त होते हैं और उसके साथ एक हो जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:-१ विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत्त्रिष्टुप । ३, ४ त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक विद्युतसंबंधी विद्या जाणून त्याद्वारे उपकार ग्रहण करू शकतात त्यांना अनेक प्रकारची लक्ष्मी प्राप्त होते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Men of peace and vision, fed on the light of divinity and nectar from heaven, attain and enter the presence of Indra, vast and deep, potent and lustrous by nature, all-world comprehensive, guardian of humanity and promoter of collective vision and intelligence, in the same way as streams of water flow and reach and enter the ocean.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes and duties of the learned scientists is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The prosperous persons accomplished in the knowledge and humility in the great and grand light, enter into the knowledge of the all-pervading energy electricity. It is united with all from its very birth (inception) and protects wisemen like the rivers get their final abode into the sea. These wise men visit everywhere (travel all over countries) and become blessed with abundant and inexhaustible wealth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who know how to derive maximum and optimum use of energy with the knowledge of its properties, they become thoroughly prosperous.
Foot Notes
(सोमासः) ऐश्वर्य्यवन्त: = Wealthy. (प्रदिवि) प्रकृष्टप्रकाशे। = In the great or grand light. (उग्रम् ) सर्वैः सह समवेतम् उच्यति समर्वतीति उग्रः मतय इति मेधाविनाम (NGT. 3,15 ) = United with all. (मतीनाम् ) मनुष्याणाम् । = Of wise men.
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