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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    च॒र्ष॒णी॒धृतं॑ म॒घवा॑नमु॒क्थ्य१॒॑मिन्द्रं॒ गिरो॑ बृह॒तीर॒भ्य॑नूषत। वा॒वृ॒धा॒नं पु॑रुहू॒तं सु॑वृ॒क्तिभि॒रम॑र्त्यं॒ जर॑माणं दि॒वेदि॑वे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒र्ष॒णि॒ऽधृत॑म् । म॒घऽवा॑नम् । उ॒क्थ्य॑म् । इन्द्र॑म् । गिरः॑ । बृ॒ह॒तीः । अ॒भि । अ॒नू॒ष॒त॒ । व॒वृ॒ध॒नम् । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । अम॑र्त्यम् । जर॑माणम् । दि॒वेऽदि॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चर्षणीधृतं मघवानमुक्थ्य१मिन्द्रं गिरो बृहतीरभ्यनूषत। वावृधानं पुरुहूतं सुवृक्तिभिरमर्त्यं जरमाणं दिवेदिवे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चर्षणिऽधृतम्। मघऽवानम्। उक्थ्यम्। इन्द्रम्। गिरः। बृहतीः। अभि। अनूषत। ववृधानम्। पुरुऽहूतम्। सुवृक्तिऽभिः। अमर्त्यम्। जरमाणम्। दिवेऽदिवे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या बृहतीर्गिरो दिवेदिवे सुवृक्तिभिर्यं चर्षणीधृतं मघवानमुक्थ्यं वावृधानं पुरुहूतममर्त्यं जरमाणमिन्द्रमभ्यनूषत तं यूयमाश्रयत ॥१॥

    पदार्थः

    (चर्षणीधृतम्) मनुष्याणां धर्त्तारम् (मघवानम्) बहुधनयुक्तम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (इन्द्रम्) राजानम् (गिरः) विदुषां वाचः (बृहतीः) बृहद्विषयाः (अभि, अनूषत) प्रशंसेयुः (वावृधानम्) वर्द्धमानम् (पुरुहूतम्) बहुभिः सत्कृतम् (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु संविभागैः (अमर्त्यम्) मरणधर्मरहितम् (जरमाणम्) स्तुवन्तम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् ॥१॥

    भावार्थः

    ये राजपुरुषा बहुभिः सत्कृतं प्रजाधारणक्षमं राजानं विद्वांसः प्रशंसेयुस्तस्यैव यूयं शरणं गच्छत ॥१॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    अब बारह ऋचावाले इक्कानवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजा के विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (बृहतीः) बड़े विषय अर्थात् तात्पर्यवाली (गिरः) विद्वानों की वाणियों को (दिवेदिवे) प्रतिदिन (सुवृक्तिभिः) उत्तम संविभागों से जिस (चर्षणीधृतम्) मनुष्यों के धारण करनेवाले (मघवानम्) बढ़े हुए धन से युक्त (उक्थ्यम्) प्रशंसा करने योग्य (वावृधानम्) बढ़े हुए (पुरुहूतम्) बहुतों से सत्कार किये गये (अमर्त्यम्) मरणधर्म से रहित (जरमाणम्) स्तुति करते हुए (इन्द्रम्) राजा की (अभ्यनूषत) प्रशंसा करें, उसका आप लोग भी आश्रयण करो ॥१॥

    भावार्थ

    हे राजपुरुषो ! बहुत जनों से सत्कृत प्रजाओं के धारण करने में समर्थ जिस राजा की विद्वान् लोग प्रशंसा करें, उसी के आप लोग शरण जाओ ॥१॥

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    विषय

    प्रतिदिन स्तूयमान प्रभु

    पदार्थ

    [१] (बृहती: गिरः) = हमारी वृद्धि की कारणभूत ये ज्ञानवाणियाँ (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (अभ्यनूषत) = स्तवन करें, जो कि (चर्षणीधृतम्) = मनुष्यों का धारण करनेवाले हैं, (मघवानम्) = पवित्र ऐश्वर्यवाले हैं (उक्थ्यम्) = स्तुति के योग्य हैं। [२] उस प्रभु का हमारी वाणियाँ स्तवन करें, जो कि (वावृधानम्) = अत्यन्त ही बढ़े हुए हैं, (पुरुहूतम्) = जिनकी पुकार जिनका आराधन आराधक का पालन व पूरण करनेवाली है, (अमर्त्यम्) = जो अमर्त्य हैं जिनका उपासन हमें भी अमर्त्य बनाता है। और जो प्रभु (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (सुवृक्तिभिः) = अच्छी प्रकार पाप में भी वर्जनवाले पुरुषों से (जरमाणम्) = स्तुति किए जाते हैं। वस्तुतः प्रभु के उपासन का सुन्दर प्रकार यही है कि हम आत्मनिरीक्षण द्वारा अपनी कमियों को देखकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें। स्तुति किए जाते हुए प्रभु हमारा धारण करते हैं और हमारी वृद्धि का कारण बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ–ज्ञानवाणियों से व पापों के वर्जन से हम प्रतिदिन प्रभु का स्मरण करें।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात राजा व प्रजा यांच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    हे राजपुरुषांनो! उत्तम कार्य करणारा, प्रजेला धारण करण्यास समर्थ असणारा, अशा राजाची विद्वान लोक प्रशंसा करतात, त्यालाच तुम्ही शरण जा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Address these comprehensive words of prayer and celebration with offers of yajna to Indra, lord ruler and sustainer of the people, munificent, honourable, growing in power and prosperity, universally acclaimed and celebrated, immortal in fame and glory, close and closer day by day in love and exhortation of the people. Let the songs glorify the lord.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the ruler are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the great speeches of the enlightened persons and proper divisions of work or renunciation of evils make the king praiseworthy, who is the upholder of men, and possesses opulent. Such a ruler should be admirable, prospering with multitudes and, invited by many immortal because of his good reputation. Glorifying God every day, you should also seek shelter in the kingdom of such persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

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    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O officers and workers of the State ! seek shelter in that king who is honored by the majority of the people, who is able to support and protect the subjects well and who is praised by the highly learned persons.

    Foot Notes

    (चर्षणीधृतम् ) मनुष्याणां धर्त्तारम् । चर्षणम इति मनुष्यनाम (NG 2, 3 ) = The upholder or supporter of man. (सुवृक्तिभिः) सुष्ठुसंविभागैः सुष्टुतिभिः । वृजी वर्जन (अदा० ) अतो दुर्गुणान् । वर्जन रित्यर्थोपि संभवति = With good divisions. (जरमाणम्) स्तुवन्तम् । जरिता इति स्तोतृनाम् (NG 3, 16) जरते -जरति अर्वतिकर्मा (NG 3, 14 ) = Glorifying God.

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