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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 17
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒हत्तद्वः॑ कवय॒श्चारु॒ नाम॒ यद्ध॑ देवा॒ भव॑थ॒ विश्व॒ इन्द्रे॑। सख॑ ऋ॒भुभिः॑ पुरुहूत प्रि॒येभि॑रि॒मां धियं॑ सा॒तये॑ तक्षता नः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हत् । तत् । वः॒ । क॒व॒यः॒ । चारु॑ । नाम॑ । यत् । ह॒ । दे॒वाः॒ । भव॑थ । विश्वे॑ । इन्द्रे॑ । सखाः॑ । ऋ॒भुऽभिः॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । प्रि॒येभिः॑ । इ॒माम् । धिय॑म् । सा॒तये॑ । त॒क्ष॒त॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महत्तद्वः कवयश्चारु नाम यद्ध देवा भवथ विश्व इन्द्रे। सख ऋभुभिः पुरुहूत प्रियेभिरिमां धियं सातये तक्षता नः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महत्। तत्। वः। कवयः। चारु। नाम। यत्। ह। देवाः। भवथ। विश्वे। इन्द्रे। सखाः। ऋभुऽभिः। पुरुऽहूत। प्रियेभिः। इमाम्। धियम्। सातये। तक्षत। नः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 17
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे कवयो वो यन्महच्चारु नाम नामास्ति तत्तेन युक्ता विश्वे देवा ह यूयं भवथ। प्रियेभिर्ऋतुभिः सहेन्द्रे सातये न इमां धियं तक्षत। हे पुरुहूत राजेन्द्र त्वमेतैः सह सखा सन्नेतां प्रज्ञां प्राप्नुहि ॥१७॥

    पदार्थः

    (महत्) महान् (तत्) (वः) युष्माकम् (कवयः) विपश्चितः (चारु) सुन्दरम् (नाम) (यत्) (ह) किल (देवाः) विद्वांसः (भवथ) (विश्वे) (इन्द्रे) परमैश्वर्ये राज्ञि वा (सखा) सुहृत् (ऋतुभिः) मेधाविभिः सह (पुरुहूत) बहुभिः प्रशंसित (प्रियोभिः) स्वात्मवत् प्रियैः (इमाम्) प्रत्यक्षाम् (धियम्) प्रज्ञाम् (सातये) सत्याऽसत्ययोर्विवेकाय (तक्षत) रक्षत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्माकम् ॥१७॥

    भावार्थः

    तेषामेव नामानि प्रशंसितानि प्रसिद्धानि स्युर्ये विद्वत्स्वविद्वत्सु मैत्रीमासाद्य धर्माऽधर्मविवेकाय शुद्धां प्रज्ञां सर्वेभ्यः प्रयच्छन्ति ॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (कवयः) विद्वानों ! (वः) आप लोगों का (यत्) जो (महत्) बड़ा (चारु) सुन्दर (नाम) नाम है (तत्) वह और उससे युक्त (विश्वे) संम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् और (ह) निश्चय आप लोग (भवथ) होओ (प्रियेभिः) अपने सदृश प्रिय (ऋतुभिः) बुद्धिमानों के साथ (इन्द्रे) अत्यन्त ऐश्वर्य्य वा राजा में (सातये) सत्य और असत्य के विचार के लिये (नः) हम लोगों की (इमाम्) इस (धियम्) बुद्धि की (तक्षत) रक्षा करो। और हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसित हुए राजेन्द्र ! आप इनके साथ (सखा) मित्र हुए इस बुद्धि को प्राप्त होओ ॥१७॥

    भावार्थ

    उन लोगों के ही नाम प्रशंसा करने योग्य और प्रसिद्ध होवें कि जो विद्वान् और अविद्वानों में मित्रता को प्राप्त होकर धर्म और अधर्म के विचार के लिये उत्तम बुद्धि सबके लिये देते हैं ॥१७॥

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    विषय

    प्रभु अपने प्रिय ज्ञानियों द्वारा

    पदार्थ

    [१] हे (कवयः) = क्रान्तदर्शी विद्वानो! (वः) = आपका (तत्) = वह कर्म (नाम) = निश्चय से (महत् चारु) = अत्यन्त सुन्दर है, (यत्) = जो (ह) = निश्चय से (विश्वे) = आप सब (इन्द्रे) = उस प्रभु में स्थित होते हुए (देवाः भवथ) = देववृत्ति के होते हो। प्रभु में स्थित होना ही आपको देव बनाता है। [२] हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो ! हे (सखे) = मित्र प्रभो! आप (प्रियेभिः) = इन प्रिय (ऋभुभिः) = [उरु भान्ति] ज्ञान से दीप्त देवों (सं नः) = हमारे (सातये) = लाभ के लिये (इमां धियम्) = इस बुद्धि को (तक्षता) = सम्पादित करिए। हम इन देवों के सम्पर्क में आएँ और अपने ज्ञान को बढ़ानेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु में स्थित होकर हम देव बनें। देव बनकर औरों के लिए ज्ञान को देनेवाले हों।

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (कवयः) क्रान्तदर्शी विद्वान् पुरुषो ! (वः) आप लोगों का (तत्) वह (महत्) बड़ा (चारु) उत्तम (नाम) स्वरूप और नाम है (यत्) जो (विश्वे) आप सब लोग (इन्द्रे) ऐश्वर्ययुक्त राजा के अधीन रहकर वा (इन्द्रे) अज्ञान-नाशक आचार्य के अधीन रहकर (देवाः भवथ) धन और विद्या एवं विजय की कामनावान् हो। हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसनीय ! तू (प्रियेभिः) प्रिय (ऋभुभिः) सत्य, ज्ञान वा धनों समर्थ और प्रकाशित पुरुषों वा शिष्यों सहित (सखा) सबका सुहृत् होकर रह। हे विद्वानो ! हे वीरो ! तुम लोग (नः) हमें (इमां धियं) इस उत्तम बुद्धि वा धारणीय वाणी को (सातये) सत्यासत्य के विवेक और धनादि लाभ के लिये (तक्षत) प्रकट करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्याच लोकांचे नाव प्रशंसनीय व प्रसिद्ध व्हावे की जे विद्वान व अविद्वानांमध्ये मैत्री करून धर्म व अधर्माचा विचार करण्यासाठी सर्वांना शुद्ध बुद्धी देतात. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Poets, scholars and visionary sages, great and auspicious is that name and reputation of yours since you rise to be world renowned celebrities in the roll of honour of the social order of Indra. O lord, Indra, approved, invited and invoked by many, friends with these dear enlightened experts and sagely scholars, refine this corporate intelligence and sharpen this vision of ours for common progress and prosperity of the nation of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes and duties of the enlightened are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O sages and highly learned persons ! great is your beautiful name Ribhus, indicative of that you are all enlightened men. Along with beloved wisemen, who are dear to you like your own souls in the work of God (Divine work), protect this our intellect in order to rightly distinguish between the truth and untruth. O great king ! invoked by many, you are the friend of those wiseman, and attain wisdom.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The names of those persons only become renowned who having friendship with all, whether intelligentsia or common men, give wisdom or noble advice to all, so that they may have the power of discrimination between the Dharma (righteousness) and Adharma (un- righteousness).

    Translator's Notes

    Quoted on the authorities above the word ऋभव: is used here not seasons but for enlightened wisemen. The Devata or subject of the mantra is ऋभवः: according to Nighantu ऋभुरिति मेधाविनाम (N.G. 3, 15 ) । In the Nirukta 11.2.16, Yaskacharya has given the derivation of ऋभव: as ऋभवः -उरु भान्तीति वा ऋतेन भान्तीति वा । ऋतेन भवन्तीरिति वा ( NRT 11, 2, 16 ) i. e. Wisemen are called Ribhus (ऋभवः), because they shine well, they shine with truth or have their existence on account of truth, Veda and Yajna, as the word is used for all these three. How great and beautiful in indeed this name ऋभव: Ribhus.

    Foot Notes

    (ऋतुभि:) मेधाविमि: सह । ऋतवो वै देवा: (Stph 7,2,4,26) ऋतवो वै विश्वे देवा: ( Stph 7, 1, 1, 43 ) ऋतवः पितरः (Kaushitaki Bra. 5,7. Stph 2, 4, 2,24 and Gopatha 1. 24, 11, 6, 15 ) = With wisemen or geniuses. (सातये) सत्याऽसत्ययोर्विवेकाय । = For distinguishing between the truth and falsehood. (तक्षत) रक्षत । अत्र संहितायामिति दीर्घं: = Protect.

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