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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 22
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्वद॑स्व ह॒व्या समिषो॑ दिदीह्यस्म॒द्र्य१॒॑क्सं मि॑मीहि॒ श्रवां॑सि। विश्वाँ॑ अग्ने पृ॒त्सु ताञ्जे॑षि॒ शत्रू॒नहा॒ विश्वा॑ सु॒मना॑ दीदिही नः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वद॑स्व । ह॒व्या । सम् । इषः॑ । दि॒दी॒हि॒ । अ॒स्म॒द्र्य॑क् । सम् । मि॒मी॒हि॒ । श्रवां॑सि । विश्वा॑न् । अ॒ग्ने॒ । पृ॒त्ऽसु । तान् । जे॒षि॒ । शत्रू॑न् । अहा॑ । विश्वा॑ । सु॒ऽमनाः॑ । दी॒दि॒हि॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वदस्व हव्या समिषो दिदीह्यस्मद्र्य१क्सं मिमीहि श्रवांसि। विश्वाँ अग्ने पृत्सु ताञ्जेषि शत्रूनहा विश्वा सुमना दीदिही नः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वदस्व। हव्या। सम्। इषः। दिदीहि। अस्मद्र्यक्। सम्। मिमीहि। श्रवांसि। विश्वान्। अग्ने। पृत्ऽसु। तान्। जेषि। शत्रून्। अहा। विश्वा। सुऽमनाः। दीदिहि। नः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 22
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने त्वमस्मद्र्यक् सन् हव्या श्रवांसि स्वदस्वेषः सं दिदीहि। श्रवांसि सं मिमीहि यतस्त्वं पृत्सु तान् विश्वाञ्छत्रूञ्जेषि तस्माद्विश्वाहा सुमनाः सन् दीदिहि। नोऽस्माँश्च दीदिहि ॥२२॥

    पदार्थः

    (स्वदस्व) भुङ्क्ष्व (हव्या) अत्तुमर्हाणि (सम्) (इषः) विज्ञानानि (दिदीहि) प्रकाशय (अस्मद्र्यक्) योऽस्मानञ्चति सः (सम्) (मिमीहि) संमिमीष्व (श्रवांसि) अन्नानि श्रवणानि वा (विश्वान्) सर्वान् (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (तान्) (जेषि) जयसि (शत्रून्) (अहा) दिनानि (विश्वा) सर्वाणि (सुमनाः) प्रसन्नचित्तः (दीदिहि) प्रकाशस्व प्रकाशय वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् ॥२२॥

    भावार्थः

    राजादिपुरुषैर्बुद्धिविनाशकान्नादित्यागमुक्त्वा विज्ञानं वर्द्धयित्वा लोकतो वार्त्ताः श्रुत्वा सेना उन्नीय शत्रूञ्जित्वा सर्वदा हर्षशोकरहितैर्भवितव्यं धर्म्येण प्रजाः संपाल्य विषयासक्तिं विहायाऽऽनन्दितव्यमिति ॥२२॥ अत्र राजविद्वत्प्रजाऽध्यापकशिष्येश्वरश्रोतृवक्तृशूरवीरकर्मगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इति चतुःपञ्चाशत्तमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान ! आप (अस्मद्र्यक्) जो हम लोगों को ज्ञान, गमन, प्राप्ति और सत्कार देता है वह (हव्या) भोजन करने योग्य (श्रवांसि) अन्न वा श्रवणों का (स्वदस्व) भोग करै (इषः) विज्ञानों का (सम्, दिदिहि) प्रकाश करो और अन्न वा श्रवणों को (सम्, मिमीहि) तोलो और सुनो जिससे कि आप (पृत्सु) संग्रामों में (तान्) उनको (विश्वान्) सम्पूर्ण (शत्रून्) शत्रुओं को (जेषि) जीतते हो जिससे (विश्वा) सब (अहा) दिनों को (सुमनाः) प्रसन्नचित्त होते हुए (दीदिहि) प्रकाशित होइये और (नः) हम लोगों को प्रकाशित कीजिये ॥२२॥

    भावार्थ

    राजा आदि पुरुषों को चाहिये कि बुद्धि के नाश करनेवाले अन्न आदि का त्याग करना कहके विज्ञान बढ़ाय के लोक से वार्ताओं को सुनके सेनाओं की वृद्धि करके और शत्रुओं को जीतकर सब काल में आनन्द और शोक का त्याग करें और धर्म से प्रजाओं का पालन करके विषयों में आसक्ति का त्याग करके आनन्द करना चाहिये ॥२२॥ इस सूक्त में राजा, विद्वान्, प्रजा, अध्यापक, शिष्य, ईश्वर, श्रोता, वक्ता और शूरवीर के कर्म्म और गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह चौवनवाँ सूक्त और सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सात्त्विक अन्न, ज्ञानवृद्धि व प्रभुदर्शन

    पदार्थ

    [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि (हव्या स्वदस्व) = हव्य पदार्थों का ही तू स्वाद लेनेवाला बन । सात्त्विक पदार्थों का सेवन कर अपने हृदय में (इष:) = प्रेरणाओं को (संदिदीहि) = दीप्त कर । सात्त्विक भोजन से पवित्र बने हृदय में तुझे उत्तम प्रेरणाएँ सुनाई पड़ेंगी ही। (अस्मद्रयक्) = हमारी ओर [प्रभु की ओर] आनेवाला तू (श्रवांसि संमिमीहि) = अपने अन्दर ज्ञानों का अत्यन्त निर्माण कर । ज्ञानप्राप्ति से ही तू प्रभु को प्राप्त करेगा। [२] इस प्रकार करने पर हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (विश्वा उ अहा) = सब दिन-सदा (तान् शत्रून्) = उन काम-क्रोध आदि प्रसिद्ध शत्रुओं को (पृत्सु) = इन अध्यात्म संग्रामों में (जेषि) = पराजित करनेवाला होगा। शत्रुओं को परास्त करके (सुमना:) = प्रसन्न मनवाला तू (नः दीदिहि) = हमें अपने हृदय में दीप्त करनेवाला हो। हृदय के निर्मल होने पर ही प्रभु का प्रकाश दिखेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सात्त्विक अन्नों के सेवन से सात्त्विक मनवाले बनकर प्रभुप्रेरणा को सुनें। ज्ञान को बढ़ाते हुए प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर बढ़ें। अध्यात्म-संग्राम में शत्रुओं को जीतकर निर्मल हृदय में प्रभु के प्रकाश का अनुभव करें। सम्पूर्ण सूक्त जीवन को उत्तम बनाकर प्रभु को प्राप्त करने का उपदेश कर रहा है। अगले सूक्त के भी ऋषि देवता ये ही हैं। सो उसमें भी यही विषय प्रस्तुत हुआ है -

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    विषय

    उत्तम अन्न जलों के उपभोग का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! अग्नि के समान स्वयं प्रकाशक ! एवं प्रतापिन् ! तू (हव्या) खाने योग्य और स्वीकार करने योग्य उत्तम २ (श्रवांसि) अन्नों को (स्वदस्व) स्वाद ले, उपभोग कर। और तू (हव्या) ग्रहण करने योग्य (श्रवांसि) श्रवण करने योग्य उत्तम २ वचन उपदेश (इषः) उत्तम कामनाएं और इच्छाएं वृष्टि, अन्नादि और शक्ति (सं दिदीहि) अच्छी प्रकार प्रकाशित कर उनको (सं मिमीहि) भली प्रकार हमें उपदेश कर। तू (पृत्सु) संग्रामों में (तान् विश्वान्) उन २ समस्त शत्रुओं को (जेषि) विजय कर। (सुमनाः) शुभ चित्त और पूज्य ज्ञान से युक्त होकर (विश्वा अहा) सब दिनों (नः दीदिहि) हमें प्रकाशित कर। इति सप्तविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा इत्यादींनी बुद्धीचा नाश करणाऱ्या अन्नाचा त्याग करावा. विज्ञान वाढवावे. लोकांच्या वार्ता ऐकाव्या. सेनेची वृद्धी करावी. शत्रूंना जिंकावे. सदैव हर्ष व शोकाचा त्याग करावा. धर्माने प्रजेचे पालन करून विषयांच्या आसक्तीचा त्याग करावा व आनंद मिळवावा. ॥ २२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni taste and relish the oblations offered, shine and illuminate knowledge and energy all together, and let food, energy and knowledge flow towards us. You win all those, and those enemies in battles for victory. Be happy and kind at heart and let all the days of life be bright for us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of qualities of the learned men further moves on.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! purifying like the fire, giving knowledge to us, taste those edibles and food that we offer to you along with our praises. Illuminate various sciences, estimate the output of the viands and listen to good words attired by us. As you overcome all enemies in the battle, being ever cheerful and favorably inclined towards us, shine well and enlighten us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the kings and officers of the State, to urge people to give up all intoxicants and food injurious to physical and mental health. They should multiply to extend scientific and other knowledge, hear what others say, make the army strong, conquer enemies and be above pleasure and grief (to have equilibrium of mind under all circumstances). They should protect and preserve their subjects well and should enjoy bliss by giving up all attachment to passions.

    Foot Notes

    (इष:) विज्ञानानि। = Sciences, scientific and other knowledge. (दिदीहि) प्रकाशय । दीदयंति ज्वलतिकर्मा (NG 1, 16 ) = Illuminate, enlighten (पुत्सु) सङ्ग्रामेषु । पृत्सु इति संग्रामनाम (NG 2, 17) =In the battles. (श्रवांसि ) अन्नानि श्रवणानि वा । श्रव इति अन्ननाम (NG 2, 7) = Food or heating of the scriptures etc.

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