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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 8
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्वेदे॒ते जनि॑मा॒ सं वि॑विक्तो म॒हो दे॒वान्बिभ्र॑ती॒ न व्य॑थेते। एज॑द्ध्रु॒वं प॑त्यते॒ विश्व॒मेकं॒ चर॑त्पत॒त्रि विषु॑णं॒ वि जा॒तम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑ । इत् । ए॒ते इति॑ । जनि॑म । सम् । वि॒वि॒क्तः॒ । म॒हः । दे॒वान् । बिभ्र॑ती॒ इति॑ । न । व्य॒थे॒ते॒ इति॑ । एज॑त् । ध्रु॒वम् । प॒त्य॒ते॒ । विश्व॑म् । एक॑म् । चर॑त् । प॒त॒त्रि । विषु॑णम् । वि । जा॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वेदेते जनिमा सं विविक्तो महो देवान्बिभ्रती न व्यथेते। एजद्ध्रुवं पत्यते विश्वमेकं चरत्पतत्रि विषुणं वि जातम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वा। इत्। एते इति। जनिम। सम्। विविक्तः। महः। देवान्। बिभ्रती इति। न। व्यथेते इति। एजत्। ध्रुवम्। पत्यते। विश्वम्। एकम्। चरत्। पतत्रि। विषुणम्। वि। जातम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वांस य एते महो देवान् बिभ्रती विश्वा जनिमा सं विविक्तो न व्यथेते यत्रेदेव ध्रुवमेजदेकं विषुणं जातं पतत्रि चरद्विश्वं विपत्यते ते यूयं विजानीत ॥८॥

    पदार्थः

    (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (एते) द्यावापृथिव्यौ (जनिमा) जन्मानि (सम्) (विविक्तः) पृथक् कुर्वतः (महः) महतः (देवान्) दिव्यान् पदार्थान् (बिभ्रती) (न) निषेधे (व्यथेते) स्वस्वपरिधेरितस्ततो न चलतः (एजत्) चलत् (ध्रुवम्) अन्तरिक्षम् (पत्यते) पतिरिवाचरति (विश्वम्) सर्वं जगत् (एकम्) असहायम् (चरत्) प्राप्नुवत् (पतत्रि) पतनशीलम् (विषुणम्) विष्वग्गच्छति (वि) (जातम्) निष्पन्नम् ॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या इह पृथिवीसूर्यादिरूपाऽधिकरणेऽन्तरिक्षे च सर्वे पदार्था जीवाश्च वसन्ति जायन्ते म्रियन्ते नश्यन्तीति विदन्तु ॥८॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जो (एते) ये अन्तरिक्ष और पृथिवी (महः) बड़े अर्थात् श्रेष्ठ (देवान्) उत्तम पदार्थों को (बिभ्रती) धारण करती हुईं (विश्वा) सब (जनिमा) जन्मों को (सम्, विविक्तः) पृथक् करती हैं और (न) नहीं (व्यथेते) अपने परिधि अर्थात् मण्डल में इधर-उधर नहीं हिलते हैं और (यत्र) जिसमें (इत्) ही (ध्रुवम्) अन्तरिक्ष (एजत्) चलता हुआ (एकम्) सहायरहित अकेला (विषुणम्) नीचे को प्राप्त है (जातम्) उत्पन्न (पतत्रि) गिरनेवाला (चरत्) प्राप्त होता हुआ (विश्वम्) सम्पूर्ण संसार के (वि, पत्यते) स्वामी के सदृश वर्त्तमान उसको आप लोग जानें ॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! इन पृथिवी सूर्य्यरूप अधिकरण और अन्तरिक्ष में संपूर्ण पदार्थ वसते और उत्पन्न होते मरते और नाश को प्राप्त होते हैं, ऐसा जानो ॥८॥

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    विषय

    द्यावापृथिवी का महत्त्व

    पदार्थ

    [१] (एते) = ये आधिदैविक जगत् के द्यावापृथिवी (विश्वा इत्) = सब ही जनिमा प्राणियों को (संविविक्तः) = पृथक्-पृथक् धारण करते हैं- सभी को संविभागपूर्वक अवकाश प्राप्त कराते हैं । अध्यात्म में ये शरीर और मस्तिष्क सब (जनिमा) = शक्तियों के प्रादुर्भावों-विकासों को अलग-अलग धारण करते हैं। शरीर शक्ति को धारण करता है तो मस्तिष्क ज्ञानदीप्ति को। [२] ये द्यावापृथिी (महो देवान्) = अग्नि व सूर्य आदि महान् देवों को (बिभ्रती) = धारण करती हुई (न व्यथेते) = पीड़ित नहीं होतीं। शरीर और मस्तिष्क भी महनीय दिव्यगुणों को धारण करते हुए शक्ति व ज्ञान को अपनाते हुए व्यथित नहीं होते। [३] यह (एजत्) = गति करता हुआ या (ध्रुवे) = मर्यादा में स्थित लोकसमूह तथा (चरत्) = पृथ्वी पर चलता हुआ या (पतत्रि) = आकाश में उड़ता हुआ (विषुणम्) = यह चारों ओर होनेवाला [विष्वक्] (विजातम्) = नानारूपोंवाला प्राणिसमूह मिलकर (एकं विश्वम्) = एक ही यह संसार (पत्यते) = गतिमय होता है। ये सारे लोक-लोकान्तर व प्राणिसमूह द्यावापृथिवी में ही गतिवाले हो रहे हैं। 'एजत् ध्रुवं' शब्द प्रकृति पिण्डों का निर्देश करते हैं, तथा 'चरत् पतत्रि विषुणं विजातम्' प्राणिसमूह का। यह सब मिलकर एक विश्व है। इस सब की गति इन द्यावापृथिवी में ही होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ – द्यावापृथिवी के महत्त्व को समझते हुए हम अध्यात्म में शरीर व मस्तिष्क के भी सुन्दर विकास का पूरा ध्यान करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ही पृथ्वी, सूर्य वगैरे सर्व पदार्थ अंतरिक्षात वसतात, उत्पन्न होतात व नाश पावतात हे जाणा. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    These two, heaven and earth, one together for sure, yet separate and distinct in identity, holding and sustaining all the great earthly and celestial created objects, do not deviate from their orbit. Vibrating yet constant and stable, the one universe, existence bom in all its variety, moving, flying, expanding all round, is sustained (by its sole lord and master creator).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of God are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! upholding the great divine objects these two-earth and heaven-keep separate all things that are born. They do not go away from their circumference. The moving but firm firmament acts like the lord of the earth (sc. to speak). All moving and stationary beings rest upon one base, whether they are animals, birds or creatures of various kinds. All this you must know well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! all these things and creatures which are born dwell, die and perish in the firmament, which is the substratum of the earth, sun and other substances. This truth be known to you.

    Foot Notes

    (व्यथेते ) स्वस्वपरिधेरितस्ततो न चलतः । व्यथ-भयचलनयोः अत्र चलनार्थग्रहणम् – Do not deviate from their circumference. Move or go away. (विषुणम् ) विषयग्गच्छति = Going on all sides. (देवान् ) दिव्यांन पदार्थान = Divine objects.

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