ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 58/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अश्वि॑ना वा॒युना॑ यु॒वं सु॑दक्षा नि॒युद्भि॑श्च स॒जोष॑सा युवाना। नास॑त्या ति॒रोअ॑ह्न्यं जुषा॒णा सोमं॑ पिबतम॒स्रिधा॑ सुदानू॥
स्वर सहित पद पाठअश्वि॑ना । वा॒युना॑ । यु॒वम् । सु॒ऽद॒क्षा॒ । नि॒युत्ऽभिः॑ । च॒ । स॒ऽजोष॑सा । यु॒वा॒ना॒ । नास॑त्या । ति॒रःऽअ॑ह्न्यम् । जु॒षा॒णा । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । अ॒स्रिधा॑ । सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्विना वायुना युवं सुदक्षा नियुद्भिश्च सजोषसा युवाना। नासत्या तिरोअह्न्यं जुषाणा सोमं पिबतमस्रिधा सुदानू॥
स्वर रहित पद पाठअश्विना। वायुना। युवम्। सुऽदक्षा। नियुत्ऽभिः। च। सऽजोषसा। युवाना। नासत्या। तिरःऽअह्न्यम्। जुषाणा। सोमम्। पिबतम्। अस्रिधा। सुदानू इति सुऽदानू॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 58; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पविद्योपदेशार्थाज्ञाविषयमाह।
अन्वयः
हे युवाना नासत्या सुदक्षा सजोषसा तिरोअह्न्यं जुषाणा अस्रिधा सुदानू अश्विना युवं वायुना नियुद्भिश्च युक्ते याने स्थित्वाऽऽगत्य सोमं पिबतम् ॥७॥
पदार्थः
(अश्विना) शिल्पविद्याध्यापकाऽध्येतारौ स्वामिसेवकौ वा (वायुना) पवनेन (युवम्) युवाम् (सुदक्षा) सुष्ठु चतुरौ (नियुद्भिः) नियुक्तैः (च) (सजोषसा) समानप्रीतिसेविनौ (युवाना) प्राप्तयौवनौ (नासत्या) अविद्यमानाऽसत्याचारौ (तिरोअह्न्यम्) तिरश्चीनेष्वहस्सु साधुम् (जुषाणा) सेवमानौ (सोमम्) महौषधिरसम् (पिबतम्) (अस्रिधा) अहिंसकौ (सुदानू) उत्तमपदार्थदातारौ ॥७॥
भावार्थः
हे मनुष्या भवन्तो हिंसाद्यधर्मव्यवहारं विहाय वायुविद्युदादिपदार्थविद्या विज्ञायाऽन्येभ्यो विद्यादि दत्वा पूर्णं ब्रह्मचर्य्यं सेवित्वा चिरञ्जीवन्तु ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिल्पविद्या उपदेशार्थ आज्ञा विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (युवाना) यौवनावस्था को प्राप्त (नासत्या) असत्य आचार से रहित (सुदक्षा) उत्तम प्रकार चतुर (सजोषसा) तुल्य प्रीति के सेवनेवाले (तिरोअह्न्यम्) तिर्च्छे दिनों में उत्तम की (जुषाणा) सेवा करते हुए (अस्रिधा) अहिंसक (सुदानू) उत्तमपदार्थ के देने (अश्विना) शिल्पविद्या के पढ़ाने और पढ़नेवाले स्वामी और सेवको ! (युवम्) आप दोनों (वायुना) पवन से (नियुद्भिः, च) नियत किये हुए भी वाहनों में स्थित हो और आकर (सोमम्) बड़ी ओषधि के रस का (पिबतम्) पान कीजिये ॥७॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप हिंसा आदि अधर्म व्यवहार को त्याग के वायु बिजुली आदि पदार्थविद्याओं को जान अन्य जनों के लिये विद्या आदि दे और पूर्ण ब्रह्मचर्य्य का सेवन करके अतिकाल जीओ ॥७॥
विषय
प्राणायाम के लाभ
पदार्थ
[१] (अश्विना) = हे कर्मों में व्याप्त होनेवाले प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (वायुना) = वायु द्वारा (सुदक्षा) = उत्तम बल को प्राप्त करानेवाले हो । शुद्ध वायु में किया गया प्राणायाम बलवर्धक है । [२] (नियुद्भिः च) = और इन इन्द्रियाश्वों के साथ (सजोषसा) = समानरूप से प्रीतिपूर्वक कार्यों को करते हुए आप (युवाना) = हमें बुराइयों से पृथक् करते हो और अच्छाईयों से मिलाते हो [यु मिश्रणामिश्रणयोः] । जब हम प्राणायाम करते हैं, तो इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं, परिणामतः हमारे कार्य पवित्र होते हैं, 'दुरितानि परासुव, भद्रं आसुव' यह प्रार्थना हमारे जीवन में क्रियान्वित होती है। [३] हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो ! (जुषाणा) = प्रीतिपूर्वक कर्मों का सेवन करते हुए आप (सोमम्) = सोम शक्ति को [वीर्य को] (तिरः अह्नाम्) = तिरोहितरूप में शरीर में व्याप्त होनेवाला [अह व्याप्तौ] करते हुए (पिबतम्) = पीते हो । प्राणसाधना से सोम की शरीर में ही ऊर्ध्वगति होती है। यह सोम रुधिर में इस प्रकार व्याप्त हो जाता है, जैसे कि तिलों में तेल व दधि में माखन । इस रुधिर में व्याप्त हुआ हुआ अलग दिखता नहीं, तिरोहित हुआ हुआ रहता है। इस प्रकार ये प्राणापान (अस्त्रिधा) = हमें रोगों से हिंसित न होने देनेवाले तथा (सुदानू) = अत्यन्त अच्छी तरह वासनाओं का [दाप् लवने] विनाश करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- [क] शुद्ध वायु में प्राणायाम से बल बढ़ता है, [ख] इन्द्रियों के दोष दूर होकर ये सदा शुभ कर्मों में व्याप्त रहती हैं, [ग] सोम की ऊर्ध्वगति होकर रोगकृमि विनष्ट होते हैं और वासनाओं का विलय हो जाता है।
विषय
अश्वी, नासत्य, सोमपान आदि पदों की व्याख्या।
भावार्थ
हे (अश्विना) अश्व अर्थात् अपने इन्द्रियों को उत्तम अश्वों के समान अपने वश करने वाले जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! वा भविष्य के लिये कर्त्तव्य न टालने वाले स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (सुदक्षा) उत्तम ज्ञान और कर्म से युक्त, पापाचारों को अग्नि के तुल्य भस्म करने वाले, (वायुना) वायु, प्राणवायु और (नियुद्भिश्च) नियमित नियुक्त अश्वों, इन्द्रियों द्वारा (सुदक्षा) उत्तम बलशाली और (युवाना) जवान, बलवान् (सजोषसा) समान प्रीतियुक्त (नासत्या) कभी असत्याचरण न करने वाले (अस्त्रिधा) एक दूसरे के देहों और मानसभावों की हिंसा न करने वाले (सुदानू) उत्तम वचन, धनादि का दान करने वाले होकर (तिर: अह्नयम्) विगत या वर्त्तमान में प्राप्त दिन के कमाये (सोमं) ऐश्वर्य को अन्न जल के समान ही (पिबतम्) उपभोग करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् पंक्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही हिंसा इत्यादी अधर्म व्यवहाराचा त्याग करा. वायू, विद्युत इत्यादी पदार्थ विद्यांना जाणून इतरांसाठी विद्या द्या व पूर्ण ब्रह्मचर्याचे सेवन करून दीर्घ काल जगा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, experts of arts and sciences, equal friends, ever youthful, constantly true, readily helpful to the distressed, abundantly generous, come you both by the winds yoked as horses to the chariot, without delay, without injury to yourselves, join us and drink the soma of joy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The command of God about the technical science is stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvinau-teachers and students or masters and attendants of technical science! endowed with power, youthful, absolutely truthful, you serve the persons who are faithful and loya! even in the days of adversity, non-violent, and liberal donors. Come in a vehicle driven with the aid of the air and energy etc. and drink the Soma juice offered by us with love and reverence.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should live long by giving up all violence and unrighteous conduct, and know the science of air, electricity and other things. Also teach them to others and observe perfect Brahmacharya (continence).
Foot Notes
(अश्विना ) शिल्पविद्याध्यापकाऽध्येतारौ स्वामिसेवको वा। = Teachers and students of technology or masters and attendants of the technical science. (तिरोअह् न्यम्) । तिरश्चीनेष्वहस्सु साधुम् । तिरोभूतम् अह्नं यस्मिन् काले स तिरो अह्नयः । स्त्रिधधातुर्हिहिंसार्थ:। दक्ष इति बलनाम (NG 2, 9 ) = Faithful or loyal even in the days of adversity. (अस्त्रिधा ) अहिंसकौ । अहिभवम् अह्नयं = Non-violent.
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