ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 59/ मन्त्र 8
ऋषि: - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - मित्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
मि॒त्राय॒ पञ्च॑ येमिरे॒ जना॑ अ॒भिष्टि॑शवसे। स दे॒वान्विश्वा॑न्बिभर्ति॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्राय । पञ्च॑ । ये॒मि॒रे॒ । जनाः॑ । अ॒भिष्टि॑ऽशवसे । सः । दे॒वान् । विश्वा॑न् । बि॒भ॒र्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्राय पञ्च येमिरे जना अभिष्टिशवसे। स देवान्विश्वान्बिभर्ति॥
स्वर रहित पद पाठमित्राय। पञ्च। येमिरे। जनाः। अभिष्टिऽशवसे। सः। देवान्। विश्वान्। बिभर्ति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 59; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या इमे पञ्च प्राणा इव जना यस्मा अभिष्टिशवसे मित्राय येमिरे स विश्वान् देवान् बिभर्त्तीति विजानीत ॥८॥
पदार्थः
(मित्राय) सखेव सर्वेषां सुखप्रदाय (पञ्च) प्राणादयः (येमिरे) यच्छन्ति (जनाः) विद्वांसः (अभिष्टिशवसे) अभीष्टबलाय (सः) (देवान्) सूर्य्यादीन् (विश्वान्) सर्वान् (बिभर्त्ति) धरति पुष्णाति ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा निगृहीताः प्राणा इन्द्रियाणि निगृह्णन्ति तथैव योगिनो जना समाधिना परमात्मानं प्राप्नुवन्ति ॥८॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! ये (पञ्च) पाँच प्राण आदि के सदृश (जनाः) विद्वान् लोग जिस (अभिष्टिशवसे) अपेक्षित बलयुक्त (मित्राय) मित्र के सदृश सबको सुख देनेवाले परमात्मा के लिये (येमिरे) यमादि साधन साधते हैं, (सः) वह (विश्वान्) समस्त (देवान्) सूर्य्य आदिकों को (बिभर्त्ति) धारण तथा पोषण करता है, ऐसा जानो ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रोके गये प्राणवायु इन्द्रियों को रोकते हैं, वैसे ही योगीजन समाधि से परमात्मा को प्राप्त होते हैं ॥८॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा निग्रह केलेला प्राण इंद्रियांना रोखतो तसेच योगी समाधीद्वारे परमेश्वराला प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥
English (1)
Meaning
All the five classes of people offer service and oblations to Mitra, radiant lord of love and friendship, who commands all desirable power and protection. That lord sustains all the brilliant and generous powers and forces of nature and humanity.
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