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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 61/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - उषाः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अव॒ स्यूमे॑व चिन्व॒ती म॒घोन्यु॒षा या॑ति॒ स्वस॑रस्य॒ पत्नी॑। स्व१॒॑र्जन॑न्ती सु॒भगा॑ सु॒दंसा॒ आन्ता॑द्दि॒वः प॑प्रथ॒ आ पृ॑थि॒व्याः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । स्यूम॑ऽइव । चि॒न्व॒ती । म॒घोनी॑ । उ॒षा । या॑आ॒इ॒ । स्वस॑रस्य । पत्नी॑ । स्वः॑ । जन॑न्ती । सु॒ऽभगा॑ । सु॒ऽदंसाः॑ । आ । अन्ता॑त् । दि॒वः । प॒प्र॒थे॒ । आ । पृ॒थि॒व्याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव स्यूमेव चिन्वती मघोन्युषा याति स्वसरस्य पत्नी। स्व१र्जनन्ती सुभगा सुदंसा आन्ताद्दिवः पप्रथ आ पृथिव्याः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव। स्यूमऽइव। चिन्वती। मघोनी। उषा। याति। स्वसरस्य। पत्नी। स्वः। जनन्ती। सुऽभगा। सुऽदंसाः। आ। अन्तात्। दिवः। पप्रथे। आ। पृथिव्याः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 61; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे स्त्रियो या स्यूमेव चिन्वती मघोनि स्वसरस्य पत्नीव स्वर्जनन्ती सुभगा सुदंसा उषा आ, अन्ताद्दिव आ, अन्तात्पृथिव्या पप्रथेऽवयाति प्राप्नोति तथैव यूयं वर्त्तध्वम् ॥४॥

    पदार्थः

    (अव) (स्यूमेव) तन्तुवद्व्याप्ता (चिन्वती) चयनं कुर्वती (मघोनी) परमधनयुक्ता (उषाः) प्रभातवेला (याति) गच्छति (स्वसरस्य) दिनस्य (पत्नी) पत्नीवद्वर्त्तमाना (स्वः) सूर्य्यं सुखं वा (जनन्ती) जनयन्ती (सुभगा) सौभाग्यकारिणी (सुदंसाः) शोभनानि दंसांसि यस्यां सा (आ) (अन्तात्) समीपात् (दिवः) प्रकाशमानात्सूर्य्यात् (पप्रथे) प्रथते (आ) (पृथिव्याः) ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे स्त्रियो यथा दिनस्य सम्बन्धिन्युषा अस्ति तथैव छायावत्स्वस्वपत्या सहाऽनुकूलाः सत्यो वर्त्तन्ताम्। यथायं प्रकाशः पृथिव्या योगेन जायते तथा पतिपत्निसम्बन्धादपत्यानि जायन्ते ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे स्त्रियो ! जो (स्यूमेव) डोरों के सदृश व्याप्त (चिन्वती) बटोरती हुई (मघोनी) अत्यन्त धन से युक्त (स्वसरस्य) दिन की (पत्नी) स्त्री के सदृश वर्त्तमान (स्वः, जनन्ती) सूर्य्य वा सुख को उत्पन्न करती हुई (सुभगा) सौभाग्य की करनेवाली (सुदंसाः) उत्तमकर्म जिसमें विद्यमान ऐसी (उषाः) प्रातःकाल की वेला (आ, अन्तात्) सब प्रकार समीप से (दिवः) प्रकाशमान सूर्य्य और (आ) सब प्रकार समीप (पृथिव्याः) पृथिवी के योग से (पप्रथे) प्रख्यात होती है (अव, याति) और प्राप्त होती है, वैसे ही आप लोग भी वर्त्ताव करो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे स्त्रियो ! जैसे दिन का सम्बन्धी प्रातःकाल है, वैसे ही छाया के सदृश अपने-अपने पति के साथ अनुकूल होकर वर्त्ताव करो और जैसे यह प्रकाश पृथिवी के योग से होता है, वैसे पति और पत्नी के सम्बन्ध से सन्तान होते हैं ॥४॥

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    विषय

    'सुभगा सुदंसा:' उषा

    पदार्थ

    [१] रात्रि के लिए फैले हुए (स्यूम इव) = अन्धकाररूप वस्त्र को ही (अवचिन्वती) = अवचित करती हुई, विनष्ट करती हुई, (मघोनी) = प्रकाशरूप ऐश्वर्यवाली (उषा) = उषा (याति) = प्राप्त होती है । यह उषा (स्वसरस्य) = [सु+अस्] अच्छी प्रकार अन्धकार का क्षेपण करनेवाले सूर्य की पत्नी मानो पत्नी ही है। (स्वः जनन्ती) = प्रकाश को प्रादुर्भूत करती हुई, (सुभगा) = यह उत्तम सौभाग्य को देनेवाली है। (सुदंसा:) = इसमें सदा यज्ञादि उत्तम कर्म होते हैं। [२] यह उषा (दिवः आ अन्तात्) = द्युलोक के अन्तिम सिरे से (आपृथिव्याः) = पृथिवी के अन्तिम सिरे तक (पप्रथे) = विस्तृत होती है। उषा का प्रकाश व्यापक है। यह रात्रि के अन्धकार को समाप्त करके सारे लोक को प्रकाशमय बना देता है। इस उषा में सात्त्विक पुरुषों के यज्ञादि उत्तम कर्म-प्रवृत्त होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उषा के आते ही अन्धकार समाप्त होता है और इसमें यज्ञादि उत्तम कर्मों का प्रारम्भ होता है।

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    विषय

    चर्खे की तकली के समान स्त्री के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (उषा स्वसरस्य पत्नी स्यूमा इव अवचिन्वती) तन्तु उत्पन्न करने वाली चर्खे की तकली जिस प्रकार (स्व-सरस्य पत्नी सती अवचिनोति), स्वयं आप से आप निकलने वाले सूत की रक्षिका होकर उसको एकत्र करती हुई गति करती है उसी प्रकार (उषा) प्रभात वेला भी (मघोनी) उत्तम प्रकाशयुक्त होकर (स्वसरस्य पत्नी) स्वयं कालगति से चलने वाले वा उत्तम प्रकार से अन्धकार को दूर करने वाले दिन की मालिकन सी होकर (अवचिन्वती) अन्धकार का नाश और प्रकाश किरणों का अवचय या सञ्चय सा करती हुई (स्वः जनन्ती) प्रकाशमान सूर्य को उत्पन्न करती हुई (सुभगा) उत्तम सेवने योग्य, सुखप्रदात्री (सुदंसा) उत्तम स्वरूप वाली, दर्शनीय (दिवः पृथिव्याः आ अन्ताम् पप्रथे) आकाश और पृथिवी की सीमा तक फैल जाती है उसी प्रकार स्त्री (मघोनी) ऐश्वर्ययुक्त (उषा) कमनीय गुणों से युक्त, पति की नित्य शुभ कामना करने वाली (स्वसरस्य) सुख सञ्चारित करने वा स्वयं अभिलाषा युक्त होकर प्राप्त होने वाले पुरुष की (पत्नी) स्वयं पत्नी होकर (स्यूमा इव) तन्तु सन्तान उत्पन्न करने वाली तकली के समान स्वयं भी सन्तान रूप तन्तु सन्तान उत्पन्न करने वाली होकर (अव चिन्वती) विनम्र भाव से गुणों और रत्नों का सञ्चय करती हुई (स्वः जनन्ती) पति को सुख उत्पन्न करती हुई (सुभगा) उत्तम रूप से सुख से सेवनीय, सौभाग्यवती, (सुदंसा) उत्तम कर्म करने वाली, सदाचारिणी (दिवः आ अन्तात् पृथिव्याः आ अन्तात्) आकाश की परली सीमा और पृथिवी की परली सीमा तक (पप्रथे) प्रख्यात हो। यह सूर्य की कान्ति के समान कमनीय और पृथिवी के समान सबका आश्रय उत्पादक माता हो। (२) उषा, सेना (स्वसरस्य पत्नी) उत्तम शस्त्रप्रक्षेप्ता, पुरुष वा धनुष आदि शास्त्रों की पालिका वा अपने सञ्चालक नायक की पत्नी के समान उसकी रक्षिका हो। वह ऐश्वर्यवती होकर शत्रुओं का अवचय, वा अपक्षय करती हुई (स्वः जनन्ती) शत्रुओं के संतापकारी तेजस्वी नायक को प्रकट करती हुई, उत्तम युद्धादि कर्म में निपुण होकर सर्वत्र दिगन्तों तक प्रसिद्ध हो और फैले।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ उषा देवता॥ छन्द:- १, ५, ७ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप। ६ निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ४ भुरिक् पङ्क्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (मघोनी) ऐश्वर्यवती (स्वसरस्य पत्नी) आदित्य की पत्नी या विद्यासूर्य स्नातक की पत्नी (स्यूम-इव-अवचिन्वती) वस्त्र की भाँति अन्धकार को समेटती हुई या अज्ञान को हटाती हुई (उषाः-याति) उषा गमन करती है या प्राप्त होती है (दिवः-अन्तात् पृथिव्या:-अन्तात्) द्यलोकपर्यन्त पृथिवीलोकपर्यन्त- नीचे तक (स्वः-जनन्ती) प्रकाश को उत्पन्न करती हुई या प्रसिद्ध सुख को उत्पन्न करती हुई (सुभगा) शौभनैश्वर्य रूपा (सुदंसः) शोभन-कर्म प्रेरिका या शोभन गृहकर्म वाली "दंसः कर्मनाम" (नि० २।१) (पप्रथे) प्रसिद्धि को प्राप्त होती है ॥४॥

    टिप्पणी

    "चरण गतौ” (कण्डूवादि०) तत: यक् ईट-आत्मनेपदं च ततः ‘उपमानादाचारे' वयच् छान्दसम्, अथवा 'चरणम्’ आत्मनेपदं छान्दसम् ।

    विशेष

    ऋषिः-विश्वामित्रः (सर्वमित्र-"विश्वामित्रः-सर्वमित्रः") (निरु० २।२५ विद्यासूर्यविद्वान्—नवस्नातक) देवता- उषाः (प्रातस्तनी प्रत्यग्रप्रकाशप्रभा एवं नवस्नातक की प्रत्यग्रज्ञान ज्योतिष्मती नववधू)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे स्त्रियांनो! जसा दिवसाचा संबंध उषेशी असतो तसेच आपापल्या पतीबरोबर छायेप्रमाणे अनुकूल होऊन वर्तन करा व जसा हा प्रकाश पृथ्वीच्या योगाने उत्पन्न होतो तसे पती पत्नीच्या संबंधाने संताने उत्पन्न होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like the thread spun and woven extensively with the cloth, expansive with the rays of light, the radiant queen of the day, the dawn of light, goes on and on the round, effulgent, generous, creating and giving paradisal bliss and inspiration from close to the sun expanding over to the ends of the earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about the women is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O ladies ! you should be like the opulent Ushas (Dawn). She is like the bride of the day, throwing off darkness like a women throwing the garment, giving birth to the sun or happiness. It diffuses her own luster auspicious, and promotes sacred acts like the Yajnas and is spread to the ends of the heaven and of the earth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O ladies ! as the Ushas (dawn) is like the wife of the day, so you should follow your husbands like shadows and ever deal with them agreeably and pleasantly. As the light is born with the association at the earth, so children are born by the union of husbands and wives.

    Foot Notes

    (स्वसरस्य) दिनस्य। स्वसराणोति अहंनाम(NG 1, 9) Of the day. (स्व:) सूर्य्यँ सुखं वा । दिनस्य । = The sun or happiness.

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