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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒तो पि॒तृभ्यां॑ प्र॒विदानु॒ घोषं॑ म॒हो म॒हद्भ्या॑मनयन्त शू॒षम्। उ॒क्षा ह॒ यत्र॒ परि॒ धान॑म॒क्तोरनु॒ स्वं धाम॑ जरि॒तुर्व॒वक्ष॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒तो इति॑ । पि॒तृऽभ्या॑म् । प्र॒ऽविदा॑ । अनु॑ । घोष॑म् । म॒हः । म॒हत्ऽभ्या॑म् । अ॒न॒य॒न्त॒ । शू॒षम् । उ॒क्षा । ह॒ । यत्र॑ । परि॑ । धान॑म् । अ॒क्तोः । अनु॑ । स्वम् । धाम॑ । ज॒रि॒तुः । व॒वक्ष॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतो पितृभ्यां प्रविदानु घोषं महो महद्भ्यामनयन्त शूषम्। उक्षा ह यत्र परि धानमक्तोरनु स्वं धाम जरितुर्ववक्ष॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उतो इति। पितृऽभ्याम्। प्रऽविदा। अनु। घोषम्। महः। महत्ऽभ्याम्। अनयन्त। शूषम्। उक्षा। ह। यत्र। परि। धानम्। अक्तोः। अनु। स्वम्। धाम। जरितुः। ववक्ष॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्तव्यमित्याह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ये ब्रह्मचारिणो महद्भ्यां मह उतो पितृभ्यां प्रविदा घोषं शूषं चान्वनयन्त यत्रोक्षाऽक्तोः परि धानं जरितुर्ह स्वं धामानु ववक्ष तान् यूयं सत्कुरुत ॥६॥

    पदार्थः

    (उतो) अपि (पितृभ्याम्) जनकजननीभ्याम् (प्रविदा) प्रकृष्टविज्ञानेन (अनु) (घोषम्) विद्याशिक्षायुक्तां वाचम्। घोष इति वाङ्ना०। निघं०१। ११। (महः) महत् (महद्भ्याम्) पूज्याभ्याम् (अनयन्त) प्राप्नुयुः (शूषम्) बलम् (उक्षा) सेचकः (ह) खलु (यत्र) (परि) (धानम्) धारणम् (अक्तोः) रात्रेः (अनु) (स्वम्) स्वकीयम् (धाम) (जरितुः) स्तावकस्य (ववक्ष) वहति। अत्र वर्त्तमाने लिटि वाच्छन्दसीति सुडागमः ॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यथा ब्रह्मचारिणः पित्राचार्य्यादिमहतां सेवनेन ब्रह्मवर्चसमाप्नुवन्ति तथा यूयं प्रातरीश्वरस्तुत्यादिना धर्मसुखमाप्नुत ॥६॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे ब्रह्मचारी लोग (महद्भ्याम्) पूज्य अध्यापक उपदेशकों से (महः) बड़े ब्रह्मचर्य्य को (उतो) और (पितृभ्याम्) माता-पिता के साथ (प्रविदा) प्रकृष्ट ज्ञान से (घोषम्) विद्याशिक्षायुक्त वाणी और (शूषम्) बल को (अनु, अनयन्त) अनुकूल प्राप्त हों (यत्र) जहाँ (उक्षा) सेवन करनेवाला सूर्य्य (अक्तोः) रात्रि के (परि, धानम्) सब ओर से धारण को (जरितुः) स्तुतिकर्ता के (ह) ही (स्वम्, धाम) अपने स्थान को अर्थात् प्राप्त अवस्था को (अनु, ववक्ष) पहुँचाता है उसका सत्कार करो ॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे ब्रह्मचारी लोग पिता, आचार्य्य आदि महान् पुरुषों के सेवन से विद्यातेज को पाते हैं, वैसे तुम लोग प्रातःकाल ईश्वर की स्तुति आदि से धर्म से हुए सुख को प्राप्त होओ ॥६॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जसे ब्रह्मचारी लोक पिता, आचार्य इत्यादी महान पुरुषांचा अंगीकार करून विद्या व तेज प्राप्त करतात तसे तुम्ही लोक प्रातःकाळी ईश्वराची स्तुती इत्यादी करून धर्माने सुख प्राप्त करा. ॥ ६ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And young people from adorable parents, teachers, heaven and earth receive the great wealth of light and joy of life and the Divine Word in response to their holy voice of knowledge and piety, when the generous lord of light bestows upon the celebrant his own vestment of light and glory when the veil of darkness is removed at the end of the night.

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