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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जा॒तो जा॑यते सुदिन॒त्वे अह्नां॑ सम॒र्य आ वि॒दथे॒ वर्ध॑मानः। पु॒नन्ति॒ धीरा॑ अ॒पसो॑ मनी॒षा दे॑व॒या विप्र॒ उदि॑यर्ति॒ वाच॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जा॒तः । जा॒य॒ते॒ । सु॒दि॒न॒ऽत्वे । अह्ना॑म् । स॒ऽम॒र्ये । आ । वि॒दथे॑ । वर्ध॑मानः । पु॒नन्ति॑ । धीराः॑ । अ॒पसः॑ । म॒नी॒षा । दे॒व॒ऽयाः । विप्रः॑ । उत् । इ॒य॒र्ति॒ । वाच॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जातो जायते सुदिनत्वे अह्नां समर्य आ विदथे वर्धमानः। पुनन्ति धीरा अपसो मनीषा देवया विप्र उदियर्ति वाचम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जातः। जायते। सुदिनऽत्वे। अह्नाम्। सऽमर्ये। आ। विदथे। वर्धमानः। पुनन्ति। धीराः। अपसः। मनीषा। देवऽयाः। विप्रः। उत्। इयर्ति। वाचम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यः समर्ये शूरवीर इवाह्नां सुदिनत्वे विदथे जातो वर्द्धमानो जायते यो मनीषा अपसः कुर्वन् देवया युक्तो विप्रो वाचमुदियर्त्ति तं धीरा आ पुनन्ति ॥५॥

    पदार्थः

    (जातः) उत्पन्नः प्रसिद्धः (जायते) उत्पद्यते (सुदिनत्वे) शोभनानां दिनानां भावे (अह्नाम्) दिवसानाम् (समर्य्ये) संग्रामे। समर्य्य इति सङ्ग्रामना०। निघं०२। १७। (आ) समन्तात् (विदथे) विज्ञानमये व्यवहारे (वर्धमानः) (पुनन्ति) पवित्रीकुर्वन्ति (धीराः) मेधाविनो ध्यानवन्तः (अपसः) कर्माणि (मनीषा) प्रज्ञया (देवयाः) देवान् विदुषो यजमानः पूजयन् (विप्रः) सकलविद्यायुक्तो मेधावी (उत्) (इयर्त्ति) प्राप्नोति (वाचम्) शुद्धां वाणीम् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। तेषामेव सुदिनं भवति ये विद्यासुशिक्षे संगृह्य विद्वांसो जायन्ते यथा शूरवीरा दुष्टान् विजित्य धनाद्यैश्वर्येण सर्वतो वर्धन्ते तथैव विद्यया विद्वान् वर्धते ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (समर्ये) युद्ध में शूरवीर पुरुष के समान (अह्नाम्) दिनों के (सुदिनत्वे) सुन्दर दिनों के होने में (विदथे) विज्ञान सम्बन्धी व्यवहार में (जातः) प्रसिद्ध (वर्द्धमानः) बढ़ता हुआ (जायते) उत्पन्न होता है। जो (मनीषा) बुद्धि से (अपसः) कर्मों को करता हुआ (देवयाः) विद्वानों का पूजन करनेवाला नियतात्मा (विप्रः) समस्त विद्याओं से युक्त बुद्धिमान् जन (वाचम्) शुद्ध वाणी को (उत्, इयर्त्ति) प्राप्त होता है उसको (धीराः) बुद्धिमान् जन (आ, पुनन्ति) अच्छे प्रकार पवित्र करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। उन्हीं का सुदिन होता है, जो विद्या और उत्तम शिक्षा का संग्रह कर विद्वान् होते हैं। जैसे शूरवीर पुरुष दुष्टों को जीत के धनादि ऐश्वर्य के साथ सब ओर से बढ़ते हैं, वैसे ही विद्या से विद्वान् बढ़ते हैं ॥५॥

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1125

    भाग 2/2
    (भाग 1/2  देखें क्रम संख्या 1102)

    जीवन संग्राम कहाये 
    हर दिवस को सुदिन बनाए 
    ये निशदिन धन-वैभव कमाए
    जीवन संग्राम कहाये 

    बुद्धिमान् की मनन शक्ति ही 
    श्रेष्ठ पवित्र कर्म कराती 
    शोधन शोध को पाए
    ये निशदिन धन-वैभव कमाए
    जीवन संग्राम कहाये 

    ऋतमय साधना - ऋतव्रत मनीषा 
    जीवन में करते रहो धारण 
    ऋतवन् प्रबुद्ध हो जाए
    ये निशदिन धन-वैभव कमाए
    जीवन संग्राम कहाये 

    देवजुष्ट वाणी की धरोहर 
    अनृत को त्यागे जीवनभर 
    सत्य को ही अपनाएँ 
    ये निशदिन धन-वैभव कमाए
    जीवन संग्राम कहाये 

    दानव तो जीता अनृत में
    पापी पतित-जीवन ही गुजारे 
    देवों को सत्य सुहाये
    ये निशदिन धन-वैभव कमाए
    जीवन संग्राम कहाये 
    जीवन संग्राम कहाये 
    हर दिवस को सुदिन बनाए 
    ये निशदिन धन-वैभव कमाए
    जीवन संग्राम कहाये 

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :- भाग 1/2 :-21/8/2021 (देखें क्रम संख्या 1102) और भाग 2/2 :-14/9/2021 
    राग :- यमनकल्याण
    राग का गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल कहरवा ८ मात्रा
              
    शीर्षक :- ध्यानी बुद्धि से कर्म को पवित्र करते हैं भजन६७५वां(भा:१)
    *तर्ज :- *
    724-00125

    सुदिन = अच्छा सफल दिन 
    संग्राम = युद्ध 
    ऋत = सनातन नियम 
    मनीषा = सुबुद्धि 
    देवजुष्ट = देवों द्वारा सेवित की हुई 
    दानव = राक्षस 
    अनृत = झूठ 
    पतित = गिरा हुआ 
    सुहाये = अच्छा लगना
     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

    ध्यानी बुद्धि से कर्म को पवित्र करते हैं

    मन्त्र के पूर्वार्ध में मनुष्य जीवन का प्रयोजन सुन्दर काव्य भाषा में वर्णित किया गया है। मनुष्य का जन्म दिनों को सुदिन बनाने के लिए होता है। पशु आदि योनि में भगवान के आराधन साधन न थे, अतः जन्म सफर न कर सका‌ दिनों को सुदिन ना बना सका।वैसे ही चले गए जैसे आए थे। अब उत्तम मानव तन मिला है जहां जीव को उन्नति के सभी साधन प्राप्त हैं। अभी यह यत्न ना करें तो कब करेगा?
    यह जीवन ऐसा वैसा नहीं है यह संग्राम का जीवन है। बहुतों को इकट्ठा होकर लड़ना पड़ता है बिना युद्ध के
     जीवन सूजीवन, दिन सुदिन नहीं होंगे। दुर्योधन ने झूठ नहीं कहा था कि युद्ध के बिना सुई के अग्रभाग समान भूमि भी ना दूंगा। जो आलसी बन कर जीवन- सुख लेना चाहते हैं वे धोखे में है।
    परिश्रम के बिना दैवी शक्तियां भी मित्र नहीं बनतीं। थकान नहीं, अतः विश्राम नहीं। परिश्रम नहीं, आराम नहीं। 
    इसी भाव को लेकर कहा की उत्पत्तिमात्र से कुछ नहीं होता, जब तक पुरुषार्थ अध्यवसाय यत्न न  किया जाए, जीवन चल नहीं सकता, सुजीवन -सुदिन तो दूर की बात है। चेष्टा में यत्न में जीवन है। वृद्धि है। देखिए जो बच्चा निश्चेष्ट पड़ा रहता है, उसकी बाढ़ रुक जाती है, वह अपाहिज हो जाता है। स्वस्थ बच्चा पड़ा पड़ा भी हाथ पैर हिलाता रहता है। उसका यही हाथ पर आदि का हिलाना चलाना उसकी वृद्धि का कारण होता है। इसलिए यहां विदथ=प्राप्ति से समर्य= संग्राम का ग्रहण किया।
     बढ़ने का प्रयोजन है लड़ना, पुरुषार्थ करना, स्ट्रगल तथा प्राप्ति। यदि प्राप्ति कुछ नहीं और केवल लड़ते ही रहे सारा जीवन संग्राम में बीत गया, तो व्यर्थ गया, अतः अन्धे होकर नहीं लड़ना चाहिए। लड़ना लड़ने के लिए नहीं। लड़ना साधन है साध्य नहीं अतः वेद कहता है--पुनन्ति धीरा अपसो मनीषा--बुद्धिमान मनन शक्ति से, विचार शक्ति से कर्मों को पवित्र करते हैं।ज्ञान बड़ा शोधक है --गीता में कहा है--ज्ञान रूपी अग्नि सब कर्मों को भस्म कर देता है अर्थात् कर्मों के दोषों को ज्ञान दूर कर देता है, अतः वेद ने कहा--साधन्नृतेन धियं दधामि।।ऋ•७.३४.८
     मैं ऋतयुक्त साधना करता हुआ ऋतयुक्त बुद्धि को धारण करता हूं अर्थात कर्म के साथ बुद्धि को, ज्ञान को भी धारण करता हूं ।ज्ञानयुक्त कर्म करने वाले विद्वान को विप्र कहते हैं, ऐसा विप्र व्यर्थ नहीं बोलता। जब वह बोलता है सारयुक्त वचन बोलता है, अतः वेद कहता है कि विप्र  देवविषयक वाणी बोलता है।
     मनुष्य जीवन की सफलता देव बनने में है। देव बने बिना दैवी वाणी कैसे बोल सकेगा? देव बनने का साधन है ऋत- अनुसार अनुष्ठान।वह अनुष्ठान अनृत(झूठ)- त्याग के बिना सर्वथा असंभव है ।यज्ञ करने के लिए तत्पर यजमान दीक्षा लेते हुए कहता है।  'इदमहमनृतात्यमुपैमि' यजुर्वेद 1/5
     मैं अनृत(झूठ) का त्याग करके सत्य ग्रहण करता हूं। ऋत का एक अर्थ है यज्ञ है।  यजमान प्रतिज्ञा करता है कि मैं यज्ञ- विरोधी भावों का त्याग करता हूं। ब्राह्मण ग्रंथों तथा वेदों में यह बात अनेक बार कही गई है कि देव यज्ञ करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला मनुष्य से ऊपर उठकर देवत्व को प्राप्त करता है ।
    देव सत्यस्वरूप होते हैं ,मनुष्य अनृत अर्थात् मनुष्य अनेक बार ऋतविरोधी कर्म करता है किन्तु देवों के आचरण में अनृत= असत्य अवलेश मात्र भी नहीं होता। उनका जीवन- व्यवहार सत्य से ओतप्रोत रहता है। मानव जीवन का लक्ष्य देव- जीवन है। उनके लिए अनृतत्याग पूर्वक सत्य ग्रहण, सत्यधारण, अनिवार्य है। उसके बिना देवत्व सम्भव नहीं।

    ओ३म् जा॒तो जा॑यते सुदिन॒त्वे अह्नां॑ सम॒र्य आ वि॒दथे॒ वर्ध॑मानः ।
    पु॒नन्ति॒ धीरा॑ अ॒पसो॑ मनी॒षा दे॑व॒या विप्र॒ उदि॑यर्ति॒ वाच॑म् ॥
    ऋग्वेद 3/8/5

    🕉🧘‍♂️ईश भक्ति भजन🙏
    भगवान् ग्रुप द्वारा🎧 🙏
    वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं ❗🌹

     

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    विषय

    स्नातक

    पदार्थ

    [१] (जातः) = आचार्यकुल से उत्पन्न हुआ-हुआ गतमन्त्र का युवा (अह्नां सुदिनत्वे जायते) = दिनों की सुदिनता- शोभनता के निमित्त होता है, अर्थात् आचार्यकुल से समावृत्त होकर यह युवक अपने गृह के लिए सुदिन लाने का कारण बनता है। घरवालों के लिए वह सुदिन होता है, जिस दिन कि यह युवक ज्ञानी बनकर घर वापिस लौटता है। यह (अर्यः) = स्वामी बनकर- इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनकर (विदथे) = ज्ञान-यज्ञ में (सं आवर्धमानः) = सम्यक् समन्तात् वृद्धिवाला होता है। जितेन्द्रियता द्वारा अपने ज्ञान की निरन्तर वृद्धि करनेवाला होता है, अथवा (स-मर्ये विदथे) = उत्तम लोगों से युक्त ज्ञानगोष्ठियों में यह (आवर्धमानः) = सब ओर वृद्धि व शोभावाला होता है। [२] इस प्रकार के (धीराः) = ज्ञान को देनेवाले (अपसः) = कर्मशील पुरुष (मनीषा) = अपनी बुद्धि से (पुनन्ति) = सब लोगों का जीवन पवित्र करनेवाले होते हैं। ज्ञानी व ज्ञान के अनुसार कर्म करनेवाले लोग ही औरों को उत्तम प्रेरणा दे पाते हैं। (देवया:) = [देवं यजति] उस महान् देव प्रभु का पूजन करनेवाला (विप्रः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाला ज्ञानी पुरुष (वाचं उदियर्ति) = सदा स्तुतिवचनों का उच्चारण करता है, अथवा ऐसा ही पुरुष औरों के लिये उपदेश की वाणी का प्रयोग करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानप्राप्त युवक घर के लिये सुदिनों को लानेवाला होता है। ज्ञानगोष्ठियों में यह ऊँची स्थिति प्राप्त करता है। ये औरों के जीवन को भी पवित्र करनेवाले होते हैं, सदा स्तुतिवचनों का उच्चारण करते हैं ।

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    विषय

    आचार्य के गर्भ से उत्पन्न विद्वान् को उपदेश।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य (अह्नां सुदिनत्वे जायते) प्रादुर्भाव होकर दिनों को उत्तम दिन बनाने में समर्थ होता है उसी प्रकार (समर्ये) मनुष्यों के एकत्र होने के स्थान संग्राम या सभास्थल और (विदथे) यज्ञ में भी (वर्धमानः) बढ़ता हुआ (जातः) प्रसिद्ध विद्वान् और वीर पुरुष (अह्नां) आगे आने वाले विपक्षियों और मित्रों के दिनों को उत्तम बनाने में समर्थ होता है या उनके उत्तम समय में प्रकट होता है । (धीराः) धीर, बुद्धिमान् पुरुष (मनीषा) विचारपूर्वक ही (अपसः) अपने कर्मों को पवित्र करते हैं और (देवयाः) विद्वानों का सत्कार करने हारा (विप्रः) विद्वान् ब्राह्मण भी (मनीषा) उत्तम मननशील मति से ही (वाचम्) वेद वाणी को (उत् इयर्त्ति) उच्चारण करता है। इति तृतीय वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ६, ९, १० त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् पङ्क्तिः। ११ भुरिक् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्या व उत्तम शिक्षण संगृहित करून विद्वान बनतात, त्यांचे दिवस चांगले जातात. जसे शूरवीर दुष्टांना जिंकून धन वगैरे ऐश्वर्याबरोबर सगळीकडून वाढतात, तसेच विद्येने विद्वान वाढतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The one who is bom and then reborn in the holy light of auspicious days rises to eminence in the yajnic programmes and conscientious battles of practical life in action. Noble leading lights, wise and grave, veterans of action, with thought, reflection and meditation, purify and sanctify the vibrant scholar, and he rises and attains to the life and meaning of the holy Word with dedication to the pursuit of divinity among humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The noble path of learning is indicated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Wise men devoted to meditation on God purify that person who like a hero in the battlefield grows from all sides. Such a person is illustrious in the dealing of knowledge, and being a learned genius and honoring the enlightened persons achieve pure faultless speech.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    For those persons every day is a good day, who having acquired wisdom and good education become enlightened. As heroes grow in prosperity on all sides having conquered their enemies, in the same way, an enlightened person grows from knowledge and wisdom.

    Foot Notes

    (जातः) उत्पन्नः, प्रसिद्ध:। = Born or reputed. (समर्थ्ये) संग्रामे | समर्थ्य इति सङ्ग्रामनाम ( N. G. 2, 17 ) = In the battlefield. (विदथे ) विज्ञानमये व्यवहारे। = In the dealing or spread of knowledge.

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