ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
म॒हश्चि॑दग्न॒ एन॑सो अ॒भीक॑ ऊ॒र्वाद्दे॒वाना॑मु॒त मर्त्या॑नाम्। मा ते॒ सखा॑यः॒ सद॒मिद्रि॑षाम॒ यच्छा॑ तो॒काय॒ तन॑याय॒ शं योः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठम॒हः । चि॒त् । अ॒ग्ने॒ । एन॑सः । अ॒भीके॑ । ऊ॒र्वात् । दे॒वाना॑म् । उ॒त । मर्त्या॑नाम् । मा । ते॒ । सखा॑यः । सद॑म् । इत् । रि॒षा॒म॒ । यच्छ॑ । तो॒काय॑ । तन॑याय । शम् । योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
महश्चिदग्न एनसो अभीक ऊर्वाद्देवानामुत मर्त्यानाम्। मा ते सखायः सदमिद्रिषाम यच्छा तोकाय तनयाय शं योः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठमहः। चित्। अग्ने। एनसः। अभीके। ऊर्वात्। देवानाम्। उत। मर्त्यानाम्। मा। ते। सखायः। सदम्। इत्। रिषाम। यच्छ। तोकाय। तनयाय। शम्। योः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्गुणानाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! देवानामुत मर्त्यानामभीके महश्चिदेनस ऊर्वाद्वयं विनाशयेम। ते सखायः सन्तस्तव सदं मा रिषाम। त्वं तोकाय तनयाय शं योरिद्यच्छ ॥५॥
पदार्थः
(महः) महतः (चित्) (अग्ने) विद्वन् (एनसः) अपराधस्य (अभीके) समीपे (ऊर्वात्) विस्तीर्णात् (देवानाम्) विदुषाम् (उत) अपि (मर्त्यानाम्) अविदुषाम् (मा) (ते) तव (सखायः) सुहृदः (सदम्) स्थानम् (इत्) (रिषाम) हिंस्याम (यच्छ) देहि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (तोकाय) सद्यो जाताय पञ्चवार्षिकाय (तनयाय) दशवार्षिकाय षोडशवार्षिकाय वा (शम्) सुखम् (योः) सुकृताज्जनितम् ॥५॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथा वयं देवानां समीपे स्थित्वा शिक्षाः प्राप्य पापात्मकं कर्म्म त्यक्त्वाऽन्यान् त्याजयेम सर्वेषां सुहृदो भूत्वा कुमारान् कुमारींश्च सुशिक्ष्य सकला विद्याः प्रापय्य सुखयुक्ताः सम्पादयेम तथा यूयमप्याचरत ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! (देवानाम्) विद्वानों के (उत) और (मर्त्यानाम्) अविद्वानों के (अभीके) समीप में (महः) बड़े (चित्) भी (एनसः) अपराध के (ऊर्वात्) विस्तीर्णभाव से हम लोग विनाश करें अर्थात् उन कर्मों का नाश करें जो अपराध के मूल हैं और (ते) आपके (सखायः) मित्र हुए आपके (सदम्) स्थान को (मा) मत (रिषाम) नष्ट करें और आप (तोकाय) शीघ्र उत्पन्न हुए पाँच वर्ष की अवस्थावाले (तनयाय) पुत्र के लिये (शम्) सुख (योः) उत्तम कर्म से उत्पन्न हुआ (इत्) ही (यच्छ) दीजिये ॥५॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग विद्वानों के समीप स्थित हों और शिक्षा को प्राप्त होकर पापस्वरूप कर्म्म का त्याग कर अन्यों का भी त्याग करें =करावैं, सब के मित्र होकर कुमार और कुमारियों को उत्तम शिक्षा देकर और सम्पूर्ण विद्या प्राप्त करा के सुखयुक्त करें, वैसा आप लोग भी आचरण करो ॥५॥
विषय
शान्त व निर्भीक जीवन
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = पापों को भस्म करनेवाले प्रभो ! (देवानाम्) = देवों के (उत) = और (मर्त्यानाम्) = मनुष्यों सत्य के अभीके समीप हमारे से अज्ञानवश हो जानेवाले (महः चित्) = महान् भी (ऊर्वात्) = अत्यन्त विशाल (एनसः) = पाप से, (ते सखायः) = आपके मित्र होते हुए हम (सदं इत्) = सदा ही (मा रिषाम) = मत हिंसित हों। स्वास्थ्य के नियमों का अपालन ही देवों के विषय में होनेवाला पाप है, आदि यमों का न पालना मनुष्यों के विषय में पाप है। प्रभु की मित्रता में रहते हुए हम इन पापों से बचे रहें। [२] इन पापों से दूर रहनेवाले हमारे (तोकाय) = पुत्रों के लिये व (तनयाय) = पौत्रों के लिये (शं यो:) = शान्ति व भयों के यावन को (यच्छा) = प्राप्त कराइये। हमारी निष्पापता हमारे वंशजों के कल्याण के लिये हो । प्रभु का स्मरण करते हुए हम देव विषयक व मर्त्य विषयक पापों को न करें। इन पापों से ऊपर उठने पर हमारे जीवन शान्त व निर्भय हों। यही शान्ति व निर्भयता हमारे सन्तानों में प्रवाहित हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की मित्रता में हम पापों से बचे रहें। पापों से बचकर शान्त व निर्भीक बनें।
विषय
पैर में बद्ध गौवत् पदों में बद्ध वाणी का दान ।
भावार्थ
हे (अग्ने) तेजस्विन् ! हम लोग (देवानाम्) विद्वानों और (मर्त्यानाम्) साधारण मनुष्यों के (अभीके) समीप में (महः चित् ऊर्वात् एनसः) बड़े भारी लम्बे चौड़े पाप से भी सदा पृथक रहें । हम लोग (ते) तेरे (सखायः) मित्र होकर (सदम् इत्) सदा (मा रिषाम) कभी पीड़ित न होवें । तू हमारे (तोकाय तनयाय) पुत्र और पौत्रों को भी (शं योः) शान्ति सुख, ताप निवारण (यच्छ) प्रदान कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः— १, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३,४ भुरिक् पंक्तिः । ६ पंक्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जसे आम्ही विद्वानांजवळ राहून शिक्षण प्राप्त करून पापस्वरूप कर्माचा त्याग करून इतरांनाही करावयास लावतो. सर्वांचे मित्र बनून कुमार-कुमारींना उत्तम शिक्षण देऊन संपूर्ण विद्या प्राप्त करून सुखी करतो, तसे तुम्हीही आचरण करा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and purity of power, save us even from great and extensive sin committed or suffered either close to or among the noblest powers or the ordinary mortals, let us never be hurt or injured. We are your friends. Give us peace and well being for our children and further future generations.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes and duties of the enlightened persons are underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! let us destroy all sins (should not repeat), whether committed by the enlightened or ordinary men, be they neighbor and wise and however great they may be. Being your friends, may we never suffer only harm at any place. Bestow happiness on our sons whether infants or grown ups, as a result of merits.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! living in the company of the enlightened persons, and having received good education and given up sinful acts, being friendly to all, we urge others also to do the same. Let us make all boys and girls happy by imparting good education to them and making them acquire the knowledge of all sciences. You should emulate it.
Foot Notes
(ऊर्वात्) विस्तीर्णात् । = Vast, great. (सद्म) स्थानम् । = Place (एनस:) अपराधस्य | = From sin. (योः) सुकृताज्जनितम्। = As a result of merits or good actions. (तोकाय ) सन्तानाय पुत्राय । तोकमित्यपत्यनाम (NG 2, 2) तनय इत्यपत्यनाम (NG 2, 2) = For the issue or son.
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