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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वमध॑ प्रथ॒मं जाय॑मा॒नोऽमे॒ विश्वा॑ अधिथा इन्द्र कृ॒ष्टीः। त्वं प्रति॑ प्र॒वत॑ आ॒शया॑न॒महिं॒ वज्रे॑ण मघव॒न्वि वृ॑श्चः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अध॑ । प्र॒थ॒मम् । जाय॑मानः । अमे॑ । विश्वाः॑ । अ॒धि॒थाः॒ । इ॒न्द्र॒ । कृ॒ष्टीः । त्वम् । प्रति॑ । प्र॒ऽवतः॑ । आ॒ऽशया॑नम् । अहि॑म् । वज्रे॑ण । म॒घ॒ऽव॒न् । वि । वृ॒श्चः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमध प्रथमं जायमानोऽमे विश्वा अधिथा इन्द्र कृष्टीः। त्वं प्रति प्रवत आशयानमहिं वज्रेण मघवन्वि वृश्चः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अध। प्रथमम्। जायमानः। अमे। विश्वाः। अधिथाः। इन्द्र। कृष्टीः। त्वम्। प्रति। प्रऽवतः। आऽशयानम्। अहिम्। वज्रेण। मघऽवन्। वि। वृश्चः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजानं प्रति प्रजापालनप्रकारमाह ॥

    अन्वयः

    हे मघवन्निन्द्र राजन्नमे जायमानस्त्वं विश्वाः कृष्टीः प्रथममधिथाः, अध त्वं यथा प्रवतः प्रत्याशयानमहिं वज्रेण सूर्यो हन्ति तथैव दुष्टाँस्त्वं वि वृश्चः ॥७॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अध) आनन्तर्य्ये (प्रथमम्) (जायमानः) उत्पद्यमानः (अमे) गृहे (विश्वाः) समग्राः (अधिथाः) धारयेथाः (इन्द्र) दुष्टानां विदारक (कृष्टीः) मनुष्याद्याः प्रजाः (त्वम्) (प्रति) (प्रवतः) निम्नदेशान् (आशयानम्) समन्ताच्छयानमिव वर्त्तमानम् (अहिम्) मेघम् (वज्रेण) किरणैः (मघवन्) बहुधनयुक्त (वि) (वृश्चः) छिन्धि ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यो हि प्रथमतो ब्रह्मचर्य्येण विद्यया विनयसुशीलाभ्यां सर्वोत्कृष्टो जायते यश्च राज्यपालनयुद्धकरणं विजानाति तमेव राजानं कृत्वा सुखिनो भवत ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा के प्रति प्रजापालन प्रकार को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मघवन्) बहुत धन से युक्त (इन्द्र) दुष्ट पुरुषों के नाश करनेहारे राजन् ! (अमे) गृह में (जायमानः) उत्पन्न होनेवाले (त्वम्) आप (विश्वाः) सम्पूर्ण (कृष्टीः) मनुष्य आदि प्रजाओं को (प्रथमम्) पहिले (अधिथाः) धारण करो (अध) इसके अनन्तर (त्वम्) आप जैसे (प्रवतः) नीचले स्थलों के (प्रति) प्रति (आशयानम्) सब प्रकार सोते हुए के सदृश वर्त्तमान (अहिम्) मेघ को (वज्रेण) किरणों से सूर्य्य नाश करता है, वैसे ही दुष्ट पुरुषों का आप (वि, वृश्चः) नाश करो ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो पुरुष प्रथम से ब्रह्मचर्य्य, विद्या, विनय और सुशीलता से सब में उत्तम होता है और जो राज्यपालन और युद्ध करने को जानता है, उसी को राजा करके सुखी होओ ॥७॥

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    विषय

    अहि-व्रश्चन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (जायमानः) = प्रादुर्भूत होते हुए (प्रथमम्) = सर्वप्रथम (विश्वाः कृष्टी:) = इन श्रमशील प्रजाओं को (अमे) = [vital air, lifewind] प्राणशक्ति में (अधिथाः) = स्थापित करते हैं। श्रमशील पुरुष ही प्रभु के उपासक हैं। इन्हें प्रभु प्राणशक्ति प्राप्त कराते हैं । [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (प्रवतः प्रति) = निम्न मार्गों में (आशयानम्) = निवास करनेवाले (अहिम्) = इस वासनारूप सर्प को (वज्रेण विवृश्च:) = क्रियाशीलतारूप वज्र द्वारा छिन्न-भिन्न कर देते हैं। प्रभु उपासक को क्रियाशील बनाते हैंक्रियाशीलता द्वारा उसकी वासनाओं को विनष्ट करते हैं। वासना ही 'अहि' है [आहन्ति] विनष्ट करनेवाली है। यह निम्न मार्गों में निवास करती है, अर्थात् जब हम उन्नतिपथ पर चलने का निश्चय करते हैं, तो ये सब वासनाएँ स्वयं विलीन हो जाती हैं। इनके विनष्ट करने के लिए क्रियाशीलता ही वज्र बनती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का प्रकाश होते ही उपासक शक्ति का अनुभव करता है। क्रियाशील बनकर वासना को विनष्ट कर डालता है।

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    विषय

    शत्रुदलन की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (त्वं) तू (जायमानः) अपने बल पराक्रमों द्वारा प्रकट होकर सूर्य के तुल्य (प्रथमम्) सबसे प्रथम (अमे) भय के अवसर पर अथवा (विश्वाः कृष्टीः) समस्त प्रजाओं और सेनाओं का (अमे) गृह में पुत्रों को गृहपति के समान (अधिथाः) धारण पोषण कर (प्रवतः प्रति आशयानम्) उत्तम वा निम्न देशों में जाने वाले (अहिम्) मेघ को सूर्य के समान सर्पवत् कुटिल वा मुकाबले पर आकर आघात करने वाले शत्रु को हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन्! पूज्य ! तू (वज्रेण विवृश्चः) विविध प्रकार से वृक्ष को कुठार के समान शस्त्रास्त्र बल से काट डाल ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो पहिल्यापासून ब्रह्मचर्य, विद्या, विनय व सुशीलतेने सर्वात उत्तम असतो व जो राज्यपालन व युद्ध करणे जाणतो त्यालाच राजा करून सुखी व्हा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord ruler of the world and destroyer of evil and ignorance, rising high as the first bom of the home land, you take over the entire body of the people as presiding power, and then the lowest sections of the people and the sleeping sloth of the population, and then, O lord of fire and power, strike and shake up the sleeping giant with the thunderbolt and root out the serpentine ignorance and darkness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a king towards his subjects are underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you possess abundant wealth, and are born and brought up at a cultured home. You uphold all men well after receiving proper education and training. Afterwards, as the sun thrashes out the clouds lying low with its rays, you smash the wicked persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! enjoy happiness by electing him as king, who is the most exalted because of the observance of Brahmacharya, education, humility good character and conduct. He knows how to protect the subjects and fight the people.

    Foot Notes

    (अमे ) गृहे । = At home. (प्रवतः) निम्नदेशान् । = Low regions.

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    हिंगलिश (1)

    Word Meaning

    जो पुरुष ब्रह्मचर्य, विद्या, विनय, और सुशीलता से सब से उत्तम हो. जो राज्य पालन और युद्ध करना जानता हो (वही यह समझता है के जैसे नीचे की ओर बहने वाला.जल सुषुप्ति को प्राप्त होता है, (हर क्षेत्र में अकर्मन्यता विनाश दरिद्रता और दुष्टता को जन्म देती है, हर समय उद्यमशीलता कर्मठता ही उन्नति का साधन है) उसी को राजा नियुक्त कर के सुखी होवें (In Science Entropy tends to infinity.)

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