ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवः
देवता - इन्द्रासोमौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वा यु॒जा तव॒ तत्सो॑म स॒ख्य इन्द्रो॑ अ॒पो मन॑वे स॒स्रुत॑स्कः। अह॒न्नहि॒मरि॑णात्स॒प्त सिन्धू॒नपा॑वृणो॒दपि॑हितेव॒ खानि॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठत्वा । यु॒जा । तव॑ । तत् । सो॒म॒ । स॒ख्ये । इन्द्रः॑ । अ॒पः । मन॑वे । स॒ऽस्रुतः॑ । क॒रिति॑ कः । अह॒न् । अहि॑म् । अरि॑णात् । स॒प्त । सिन्धू॑न् । अप॑ । अ॒वृ॒णो॒त् । अपि॑हिताऽइव । खानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वा युजा तव तत्सोम सख्य इन्द्रो अपो मनवे सस्रुतस्कः। अहन्नहिमरिणात्सप्त सिन्धूनपावृणोदपिहितेव खानि ॥१॥
स्वर रहित पद पाठत्वा। युजा। तव। तत्। सोम। सख्ये। इन्द्रः। अपः। मनवे। सऽस्रुतः। करिति कः। अहन्। अहिम्। अरिणात्। सप्त। सिन्धून्। अप। अवृणोत्। अपिहिताऽइव। खानि ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रपदवाच्यसूर्य्यदृष्टान्तेन राजप्रजागुणानाह ॥
अन्वयः
हे सोम ! तव सख्ये यथेन्द्रो मनवे सस्रुतः कोऽहिमहन् सप्त सिन्धूनरिणात् खान्यपिहितेवापोऽपावृणोत् तथा तत्त्वा युजा पुरुषेण कर्म्म कर्त्तुं शक्यम् ॥१॥
पदार्थः
(त्वा) त्वाम् (युजा) युक्तेन (तव) (तत्) (सोम) ऐश्वर्य्यसम्पन्न (सख्ये) मित्रत्वाय (इन्द्रः) सूर्य्य इव राजा (अपः) जलानि (मनवे) मनुष्याय (सस्रुतः) गमनशीलान् (कः) करोति (अहन्) हन्ति (अहिम्) मेघम् (अरिणात्) प्रेरयति (सप्त) एतत्सङ्ख्याकान् (सिन्धून्) नदीः (अप) (अवृणोत्) आच्छादयति (अपिहितेव) आच्छादितानीव (खानि) इन्द्रियाणि ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्य्यः सर्वेषां सुखाय वृष्टिं कृत्वा सर्वानानन्दयति तथैव विदुषां मित्रता सर्वानन्दप्रदाऽस्तीति वेद्यम् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले अट्ठाईसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य सूर्य्यदृष्टान्त से राजप्रजागुणों का उपदेश करते हैं ॥
पदार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्य्य से युक्त (तव) आपकी (सख्ये) मित्रता के लिये जैसे (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश राजा (मनवे) मनुष्य के लिये (सस्रुतः) चलनेवालों को (कः) करता (अहिम्) मेघ का (अहन्) नाश करता (सप्त) सात (सिन्धून्) नदियों को (अरिणात्) प्रेरित करता और (खानि) इन्द्रियाँ (अपिहितेव) घिरी हुईं सी (अपः) जलों को (अप, अवृणोत्) घेरती हैं, वैसे (तत्) वह (त्वा) आपको (युजा) युक्त पुरुष के साथ कर्म करने योग्य हो सकता है ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य सब के सुख के लिये वर्षा करके सब को आनन्द देता है, वैसे ही विद्वानों की मित्रता सब को आनन्द देनेवाली है, यह जानना चाहिये ॥१॥
विषय
प्रभुप्राप्ति के लिए निरन्तर कर्मशीलता
पदार्थ
[१] हे सोम! (त्वा युजा) = तुझ साथी के साथ, (तव) = तेरी (तत्) = उस (सख्ये) = मित्रता में (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (मनवे) = उस सर्वज्ञ प्रभुप्राप्ति के लिए (अपः) = कर्मों को (सस्स्रुतः) = समानरूप से बहनेवाला (क:) = करता है। जिस समय हम सोमरक्षण कर पाते हैं, तो शक्ति प्राप्त करके निरन्तर उत्तम कर्मों में लगे हुए हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनते हैं। [२] (अहिं अहन्) = वासनारूप वृत्र का विनाश करते हैं। 'निरन्तर कर्म में लगे रहना' वासनाविनाश का सर्वोत्तम साधन है । वासना = विनष्ट करके यह (सप्त सिन्धून्) = शरीरस्थ सात ऋषियों के सात ज्ञानप्रवाहों को (अरिणात्) = गतिमय करता है और (अपिहिता इव) = वासनाओं से ढकी हुई-सी (खानि) = इन इन्द्रियों को (अपावृणोत्) = अज्ञान का आवरण हटाकर खोल देता है। वासनाओं के परदे को दूर करके इन इन्द्रियों को स्वकार्य करने में सशक्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुप्राप्ति के लिए निरन्तर कर्मशील बनना आवश्यक है। यही वासनाविनाश का मार्ग है।
विषय
सूर्यवत् उपकारक और देह में आत्मा के तुल्य राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्ययुक्त प्रजाजन ! हे राष्ट्र ! (त्वा युजा) तुझ सहायक से और (तव सख्ये) तेरे मित्रभाव में रहकर (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा (मनवे) मनुष्यमात्र के हितार्थ सूर्य जिस प्रकार जल धाराएं बरसाता है उसी प्रकार (सस्रुतः अपः कः) जलों को उत्तम रसों से बहने वाला बनावे, नहरें खोले । (अहिम्) मेघ को सूर्यवत्, विघ्नकारी शत्रु आदि वा रुकावट को या सर्पवत् कुटिल जन को (अहन्) दण्ड दे । (सप्त सिन्धून्) चलने वाले वेगवान् अश्वों और अश्वसैन्यों को (अरिणात्) चलावे, (अपि-हिता इव) ढकी हुई सी (खानि) इन्द्रियों को जिस प्रकार आत्मा देह में प्रकट करता है उसी प्रकार (अपिहिता इव खानि) ढके हुए उन्नति के द्वारों को (अप अवृणोत्) अच्छी प्रकार खोल देवे । (२) अध्यात्म में―सोम, ओषधि आदि रस के सहाय से विद्वान् पुरुष मनुष्य के देह के रुधिरादि प्रवाहों को उत्तम करे । रोग को नाशे, सातों प्राणों को गति दे, इन्द्रियच्छिद्रों और रोम-कूपों को स्वच्छ, मल रोधादि से रहित करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रासोमौ देवते ॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ विराट्- त्रिष्टुप् । ४ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात राजा व प्रजा इत्यादींच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! जसा सूर्य सर्वांच्या सुखासाठी वृष्टी करून सर्वांना आनंद देतो तसेच विद्वानांची मैत्री सर्वांना आनंददायक असते, हे जाणले पाहिजे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With you and for your friendship, O Soma, power, pleasure and excellence of life, did Indra, resplendent ruler of the world, set the spatial waters afloat, broke the cloud, made the seven streams of water flow and opened up the hidden treasures of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Illustrating the sun by the terms ‘Indra', the attributes of the rulers and their subjects are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O prosperous person! the sun makes men active as its part of obligations. It disperses the clouds and makes seven rivers flow, actuates the dull senses. A king should also act likewise. In your friendship, O king ! a man can perform all good deeds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! the sun gladdens all by rains and showers happiness on all. In the same manner, the friendship of the enlightened persons bestows joy and bliss upon all.
Foot Notes
(इन्द्रः) सूर्य्य इव राजा । अथ यः इन्द्रो सोऽसौ आदित्य: ( Stph 8, 5, 3. 2) म यः स इन्द्र एष एव स य एव (सूर्यः) एव तपति (जैमिन्नीयोपनिषद् बाह्मिण 1, 282 11 1, 32, 5)। = A king who is full of splendor like the sun. (अहिम् ) मेघम् । अहिरिति मेघनाम (NG 1, 10)। = The clouds. (खानि ) इन्द्रियाणि । खानि भवन्तीन्द्रियाणी । खं पुन: खन धातो: खातम् । खातमिव तदिन्द्रियं गोलकं भवति (NKT 3, 313)। उपनिषद परांचि खानि व्यंतृणत्स्वयंभू (Ed.) । = Senses.
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