ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 13
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मा कस्य॑ य॒क्षं सद॒मिद्धु॒रो गा॒ मा वे॒शस्य॑ प्रमिन॒तो मापेः। मा भ्रातु॑रग्ने॒ अनृ॑जोर्ऋ॒णं वे॒र्मा सख्यु॒र्दक्षं॑ रि॒पोर्भु॑जेम ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठमा । कस्य॑ । य॒क्षम् । सद॑म् । इत् । हु॒रः । गाः॒ । मा । वे॒शस्य॑ । प्र॒ऽमि॒न॒तः । मा । आ॒पेः । मा । भ्रातुः॑ । अ॒ग्ने॒ । अनृ॑जोः । ऋ॒णम् । वेः॒ । मा । सख्युः॑ । दक्ष॑म् । रि॒पोः । भु॒जे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा कस्य यक्षं सदमिद्धुरो गा मा वेशस्य प्रमिनतो मापेः। मा भ्रातुरग्ने अनृजोर्ऋणं वेर्मा सख्युर्दक्षं रिपोर्भुजेम ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठमा। कस्य। यक्षम्। सदम्। इत्। हुरः। गाः। मा। वेशस्य। प्रऽमिनतः। मा। आपेः। मा। भ्रातुः। अग्ने। अनृजोः। ऋणम्। वेः। मा। सख्युः। दक्षम्। रिपोः। भुजेम॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 13
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
बुद्धिमत्ताविषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! त्वमनृजोः कस्यचित्प्रमिनतो वेशस्य हुरस्सदं मा गाः। अनृजोरापेर्य्यक्षं सदं मा गा अनृजोर्भ्रातुर्यक्षं सदं मा गाः। अनृजोः सख्युर्दक्षं मा वेरवृजो रिपोर्ऋणं मा वेः। येन वयं सुखमिद्भुजेम ॥१३॥
पदार्थः
(मा) (कस्य) (यक्षम्) सङ्गन्तव्यम् (सदम्) वस्तु (इत्) एव (हुरः) कुटिलस्य (गाः) प्राप्नुयाः (मा) (वेशस्य) प्रवेशस्य (प्रमिनतः) प्रकर्षेण हिंसतः (मा) (आपेः) प्राप्तस्य (मा) (भ्रातुः) बन्धोः (अग्ने) अग्निरिव प्रकाशमान (अनृजोः) कुटिलस्य (ऋणम्) (वेः) प्राप्नुयाः (मा) (सख्युः) मित्रस्य (दक्षम्) बलम् (रिपोः) शत्रोः (भुजेम) अभ्यवहरेम ॥१३॥
भावार्थः
त एव धीमन्तो विज्ञेया येऽन्यायेन कस्यचिद्वस्तु दुष्टवेशं हिंसकसङ्गं न्यायेन प्राप्तस्य धनस्याऽन्यथा व्ययं दुष्टबन्धोः सङ्गं शत्रुविश्वासमकृत्वाऽऽनन्दं भुञ्जीरन् ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब बुद्धिमानों के बुद्धिमत्ता विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रकाशमान ! आप (अनृजोः) कुटिल (कस्य) किसी (प्रमिनतः) अत्यन्त हिंसा करनेवाले (वेशस्य) प्रवेश के (हुरः) कुटिल कार्यसम्बन्धी (सदम्) वस्तु को (मा) मत (गाः) प्राप्त होओ और कुटिल (आपेः) प्राप्त हुए के (यक्षम्) प्राप्त होने योग्य वस्तु को (मा) मत प्राप्त होओ, कुटिल (भ्रातुः) बन्धु के प्राप्त होने योग्य वस्तु को (मा) मत प्राप्त होओ, कुटिल (सख्युः) मित्र के (दक्षम्) बल को (मा) मत (वेः) प्राप्त होओ, कुटिल (रिपोः) शत्रु के (ऋणम्) ऋण को (मा) मत प्राप्त होओ, जिससे हम लोग सुख का (इत्) ही (भुजेम) व्यवहार करें ॥१३॥
भावार्थ
उन्हीं लोगों को बुद्धिमान् समझना चाहिये कि जो अन्याय से किसी का वस्तु, दुष्टवेश, हिंसा करनेवाले का सङ्ग, न्याय से प्राप्त हुए धन का व्यर्थ खर्च, दुष्ट बन्धु का सङ्ग और शत्रु का विश्वास नहीं करके आनन्द का भोग करें ॥१३॥
विषय
स्मरणीय बातें
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं कि (कस्य) = किसी भी (हुरः) = हिंसक के (यक्षम्) = सम्पर्क को (सदं इत्) = सदा ही (मा गाः) = मत प्राप्त हो हिंसा की मनोवृत्तिवाले पुरुष के सम्पर्क में मत रह। (प्रमिनत:) = तेरे ह्रास को करनेवाले, तेरी कमी को चाहनेवाले, (वेशस्य) = पड़ोसी के सम्पर्क को (मा) = मत प्राप्त हो । तेरे ह्रास की कामनावाले (आपे:) = मित्र का दम्भ करनेवाले पुरुष के सम्पर्क में भी (मा) = मत हो । [२] हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! तू (अनृजो:) = कुटिल (भ्रातुः) = भाई के (ऋणम्) = ऋण को (मापे:) = मत भोगनेवाला हो । कुटिल वृत्तिवाले से भी कभी ऋण नहीं लेना। (सख्युः) = मित्र के व (रिपो:) = शत्रु के (दक्षम्) = बल को (मा भुजेम) = भोगनेवाले न हों। इनके बल पर हम निर्भर न करें। सदा स्वाश्रित = हों।
भावार्थ
भावार्थ- हिंसक मनोवृत्तिवाले तथा हमारी कमी को चाहनेवाले पड़ोसी व मित्र के सम्पर्क से बचें। कुटिल भाई से भी कभी ऋण न लें। शत्रु व मित्र किसी भी अन्य के बल पर निर्भर न करके स्वाश्रित हों ।
विषय
उत्तम मनुष्य के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! नायक ! तू ( कस्य ) किसी भी ( दुरः ) बलात्कार करने वाले के ( यक्षम् ) आदर सत्कार के आडम्बर को और ( सदम् ) घर को भी ( मा गाः ) मत प्राप्त कर । तू ( प्रमिनतः ) हिंसाकारी ( वेशस्य ) पड़ोसी के ( सदम् यक्षं च ) घर और संगति ( मा गाः ) मत प्राप्त कर । इसी प्रकार हिंसक ( मापेः ) बन्धुजन के भी गृह, संगति आदि मत कर। इसी प्रकार ( अनृजोः ) कुटिल ( भ्रातुः ) भाई के ( ऋणं मापेः ) ऋण या धन का भोग मत कर और ( अनृजोः सख्युः ) कुटिलाचारी मित्र के भी धन को मत ले । और हम ( अनृजोः रिपोः ) कुटिल शत्रु के ( दक्षं ) सैन्य बल को ( मा भुजेम ) उपभोग न करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १२, १५ निचृत्त्रिष्टुप । २, १३, १४ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ७, ९ त्रिष्टुप । ४ स्वराड्-बृहती । ६, ११, १६ पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे अन्यायाने कुणाचीही वस्तू, दुष्टवेश, हिंसा करणाऱ्यांचा संग, न्यायाने प्राप्त झालेल्या धनाचा व्यर्थ खर्च, दुष्ट बंधूचा संग करीत नाही व शत्रूवर विश्वास ठेवत नाहीत आणि आनंदाचा भोग करतात, त्याच लोकांना बुद्धिमान समजले पाहिजे. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, giver of the light of intelligence, let us not go to the meeting place of a deceitful person, nor to the door of a violent grabber, nor take the debt or obligation of a crooked brother, and may we, we pray, never try to benefit from, much less depend on, the strength and expertise of an enemy in the garb of a friend.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The true wisdom is defined and elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man shining like the fire! do not go near the possessions of a crooked and violent person. He goes here and there for doing some nasty job. Do not touch such a thing belonging to a crooked kith and kin, even a crooked brother, however, good and charming it may look. Do not work under the pressure of a crooked friend and be never indebted to a crooked enemy, so that we may enjoy happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons are really wise, who do not take away others' possessions, do not dress like a wicked, do not have the association of the violent wicked persons; do not misspend honestly earned wealth; do not associate themselves the with wicked relatives; do not trust these enemies and thus enjoy bliss.
Foot Notes
(दुरः) कुटिलस्य । = Of the crooked. (प्रमिनतः) प्रकर्षेण हिंसतः = Of very violent person. (सदम् ) वस्तु । = Article, thing.
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