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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    रक्षा॑ णो अग्ने॒ तव॒ रक्ष॑णेभी रारक्षा॒णः सु॑मख प्रीणा॒नः। प्रति॑ ष्फुर॒ वि रु॑ज वी॒ड्वंहो॑ ज॒हि रक्षो॒ महि॑ चिद्वावृधा॒नम् ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रक्षा॑णः । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । रक्ष॑णेभिः । र॒र॒क्षा॒णः । सु॒ऽम॒ख॒ । प्री॒णा॒नः । प्रति॑ । स्फु॒र॒ । वि । रु॒ज॒ । वी॒ळु । अंहः॑ । ज॒हि । रक्षः॑ । महि॑ । चित् । व॒वृ॒धा॒नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रक्षा णो अग्ने तव रक्षणेभी रारक्षाणः सुमख प्रीणानः। प्रति ष्फुर वि रुज वीड्वंहो जहि रक्षो महि चिद्वावृधानम् ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रक्ष। नः। अग्ने। तव। रक्षणेभिः। ररक्षाणः। सुऽमख। प्रीणानः। प्रति। स्फुर। वि रुज। वीळु। अंहः। जहि। रक्षः। महि। चित्। ववृधानम्॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 14
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राज्यपालनविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सुमखाऽग्ने ! त्वं नो रक्ष महि वावृधानं रारक्षाणः प्रीणानः सन् प्रति स्फुर। शत्रुं वीळु विरुज अंहो जहि रक्षो विरुज यतस्तव चिद्रक्षणेभिर्वयं सुखिनः स्याम ॥१४॥

    पदार्थः

    (रक्ष) पालय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अग्ने) राजन् (तव) (रक्षणेभिः) अनेकविधैरुपायैः (रारक्षाणः) भृशं रक्षन्त्सन् (सुमख) सुष्ठुन्यायव्यवहारपालकः (प्रीणानः) प्रसन्नः प्रसादयन् (प्रति) (स्फुर) पुरुषार्थाय (वि) (रुज) प्रभग्नं कुरु (वीळु) दृढम् (अंहः) पापम् (जहि) (रक्षः) दुष्टं शत्रुम् (महि) महान्तम् (चित्) अपि (वावृधानम्) भृशं वर्धमानम् ॥१४॥

    भावार्थः

    त एव राजानः कीर्त्तिभाजो ये दुष्टानां दुष्टतां निवार्य्य श्रेष्ठानां श्रेष्ठतां वर्धयित्वा राज्यं सततं पितृवत्पालयेयुः ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राज्यपालन विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सुमख) उत्तम न्याय व्यवहार के पालन करनेवाले (अग्ने) राजन् ! आप (नः) हम लोगों की (रक्ष) रक्षा करो और (महि) बड़े (वावृधानम्) अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुए की (रारक्षाणः) रक्षा करते (प्रीणानः) प्रसन्न होते वा प्रसन्न करते हुए, (प्रति, स्फुर) पुरुषार्थ करो और शत्रु को (वीळु) दृढ़ (वि, रुज) विशेषता से अच्छे प्रकार भग्न करो और (अंहः) पाप का (जहि) नाश करो (रक्षः) दुष्ट शत्रु का भङ्ग करो और जिससे (तव) आपके (चित्) भी (रक्षणेभिः) अनेक प्रकार के उपायों से हम लोग सुखी होवें ॥१४॥

    भावार्थ

    वे ही राजा लोग यश के भागी हैं कि जो दुष्ट पुरुषों की दुष्टता को दूर कर और श्रेष्ठ पुरुषों की श्रेष्ठता बढ़ा के राज्य का निरन्तर पिता के समान अर्थात् पिता अपने पुत्र की पालना करता, वैसे पालन करें ॥१४॥

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    विषय

    पापों व राक्षसीभावों का विनाश

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (तव रक्षणेभिः) = अपने रक्षणों से (नः रक्ष) = हमारा रक्षण करिये। हे (सुमख) = उत्तम यज्ञोंवाले प्रभो! आप (रारक्षाण:) = हमारा खूब ही रक्षण करते हुए, (प्रीणान:) = हमारे उत्तम कर्मों से प्रीणित होते हुए (प्रतिष्फुर) = दीप्त होइये । [२] हमारे हृदयों में दीप्त होकर आप (वीडु अंहः) = प्रबल पापों को (विरुज) = हमारे से दूर कर दीजिये, उन्हें भग्न कर दीजिये, हमारे से दूर भगा दीजिये। और (महि वावृधानम्) = बहुत अधिक बढ़ते हुए, प्रबल होते हुए, (चित्) = भी (रक्षः) = राक्षसी भाव को (जहि) = नष्ट कर दीजिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से रक्षित होकर हम प्रबल पापों व राक्षसी भावों को विनष्ट कर सकें।

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    विषय

    उत्तम मनुष्य के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( सुमख ) उत्तम त्रुटि ( रहित यज्ञ करने हारे विद्वन् ! राजन् ! ( अग्ने ) हे अग्रणी ! तू ( तत्र रक्षणेभिः ) अपने रक्षा साधनों से ( रारक्षाणः ) रक्षा करता हुआ ( प्रीणानः ) सबको प्रसन्न करता हुआ ( नः रक्ष )हमारी रक्षा कर। और ( वीडु अंहः ) प्रबल पाप को ( प्रति स्फुर, विरुज ) विविध रीति से भंग कर और ( वावृधानम् ) निरन्तर बढ़ते हुए ( महि रक्षः ) बड़े भारी विघ्नकारी को (जहि ) विनाश कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १२, १५ निचृत्त्रिष्टुप । २, १३, १४ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ७, ९ त्रिष्टुप । ४ स्वराड्-बृहती । ६, ११, १६ पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे दुष्टांची दुष्टता दूर करून श्रेष्ठांची श्रेष्ठता वाढवून राज्याचे निरंतर पित्याप्रमाणे पालन करतात, तेच राजे कीर्तिमान असतात. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, ruler of the earth, blissful giver of happiness, all protector, presiding genius of yajna, social justice and noble conduct, protect us with all your methods and forces of protection and defence, shine and inspire us to good action, eliminate the blackest sin and hardest crime, destroy the wicked, even powerful ones and on the increase.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of defence of a State is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you carry on the just dealings and protect us. Make us more and more industrious, be pleased and pleasing to us, and also enlighten us. Slay the enemy by your strength. Root out the sin and destroy the demons or wickeds (Rakshasas) even though they may be very powerful, so that by your protection, we may enjoy happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those kings only become illustrious who destroy the wicked, increase the nobility and protect the State like fathers or guardians or guards of the people.

    Foot Notes

    (सुमख) सुष्ठुन्यायव्यवहारपालक | मख इति यज्ञनाम (NG 3, 17 ) यज्ञो वैमैख: ( Tandya 7,5,6 ) (Stph 6, 1.2, 1) मख इत्येतद् यज्ञनामधेयं क्षिप्रप्रतिषेधसामर्थ्यात् छिद्रं खमित्युक्तं तस्य मेति प्रतिषेधः । मा यज्ञं छिद्र करिष्यतीति (Gopath उ. 2, 5 ) । यज्ञो वै श्रेष्ठतर्म कर्म (Stph 1, 7, 1, 5) यज्ञो वै सुम्नम् (Stph 7, 2, 2, 4, 11, 7, 3, 1, 14 ) सुम्नमिति सुखनाम (NG 3, 6) तस्मादन्यायादिदोषरहित सुखप्रद् न्यायव्यवहारो मखो यज्ञो वा ॥ One who conducts good and just dealings. (प्रीणानः) प्रसन्नः प्रसादयन् । = Pleased and pleasing.

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