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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ज्ये॒ष्ठ आ॑ह चम॒सा द्वा क॒रेति॒ कनी॑या॒न्त्रीन्कृ॑णवा॒मेत्या॑ह। क॒नि॒ष्ठ आ॑ह च॒तुर॑स्क॒रेति॒ त्वष्ट॑ ऋभव॒स्तत्प॑नय॒द्वचो॑ वः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज्ये॒ष्ठः । आ॒ह॒ । च॒म॒सा । द्वा । क॒र॒ । इति॑ । कनी॑यान् । त्रीन् । कृ॒ण॒वा॒म॒ । इति॑ । आ॒ह॒ । क॒नि॒ष्ठः । आ॒ह॒ । च॒तुरः॑ । क॒र॒ । इति॑ । त्वष्टा॑ । ऋ॒भ॒वः॒ । तत् । प॒न॒य॒त् । वचः॑ । वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ज्येष्ठ आह चमसा द्वा करेति कनीयान्त्रीन्कृणवामेत्याह। कनिष्ठ आह चतुरस्करेति त्वष्ट ऋभवस्तत्पनयद्वचो वः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ज्येष्ठः। आह। चमसा। द्वा। कर। इति। कनीयान्। त्रीन्। कृणवाम। इति। आह। कनिष्ठः। आह। चतुरः। कर। इति। त्वष्टा। ऋभवः। तत्। पनयत्। वचः। वः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे ऋभवो ! यद्वो वचस्त्वष्टा पनयत् तत् द्वा चमसा करेति ज्येष्ठ आह। कनीयाँस्त्रीन् कृणवामेत्याह कनिष्ठश्चतुरः करेत्याह ॥५॥

    पदार्थः

    (ज्येष्ठः) पूर्वजः (आह) वदति (चमसा) चमसौ (द्वा) द्वौ (कर) कुर्य्याः (इति) अनेन प्रकारेण (कनीयान्) कनिष्ठः (त्रीन्) (कृणवाम) कुर्य्याम (इति) (आह) (कनिष्ठः) (आह) (चतुरः) (कर) (इति) (त्वष्टा) शिक्षकः (ऋभवः) मेधाविनः (तत्) (पनयत्) प्रशंसेत् (वचः) वचनम् (वः) युष्माकम् ॥५॥

    भावार्थः

    बन्धवो विद्वांसो भूत्वा परस्परं संवदेरन् यथा ज्येष्ठ आज्ञां कुर्यात् तथा कनिष्ठो यथा कनिष्ठो ब्रूयात्तथा ज्येष्ठ आचरेत् यथात्र कनीयानिति कर्त्तृपदमेकवचनान्तं कृणवामेति बहुवचनान्ता क्रिया न सङ्गच्छत इति सम्बोधनीयं यद्वा यथा वयं परस्परं संवदेमहि तथैव युष्माभिरपि परस्परं वक्तव्यं यथा सत्यं प्रशंसितव्यं वचनं स्यात्तथैव सर्वैर्वाच्यमिति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मनुष्यगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (ऋभवः) बुद्धिमानो ! जिस (वः) आपके (वचः) वचन की (त्वष्टा) शिक्षा देनेवाला (पनयत्) प्रशंसा करे (तत्) वह वचन (द्वा) दो (चमसा) चमसों को (कर) करे (इति) इस प्रकार से (ज्येष्ठः) प्रथम उत्पन्न हुआ (आह) कहता है (कनीयान्) पीछे उत्पन्न हुआ छोटा (त्रीन्) तीन को (कृणवाम) करे (इति) इस प्रकार से (आह) कहता है और (कनिष्ठः) कनिष्ठ अर्थात् छोटा (चतुरः) चार को (कर) करे (इति) इस प्रकार से (आह) कहता है ॥५॥

    भावार्थ

    बन्धुजन विद्वान् होकर परस्पर वार्त्तालाप करें कि जैसे बड़ा आज्ञा करे, वैसे छोटा और जैसे छोटा कहे वैसा ही ज्येष्ठ आचरण करे। जैसे इस मन्त्र में (कनीयान्) यह कर्त्तृ पद एकवचनान्त और (कृणवाम) यह बहुवचनान्त क्रिया नहीं संगत होते हैं, ऐसा जनाना चाहिये अर्थात् अहं कर्त्ता की योग्यता में वयं कर्त्ता के पक्ष से योजना कर समझना चाहिये अथवा जैसे हम लोग परस्पर वार्त्तालाप करें, वैसे ही आप लोगों को भी परस्पर वार्त्तालाप करना चाहिये और जिस प्रकार सत्य और प्रशंसित वचन होवे, उसी प्रकार सब को बोलना चाहिये ॥५॥

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    विषय

    क्रमिक विकास 'स्वाध्याय, यज्ञ, तप, दान'

    पदार्थ

    [१] (ज्येष्ठः) = सब से बड़ा, अर्थात् सब से पहले आनेवाला व्यक्ति (आह) = कहता है कि (चमसा) = इस शरीरूप पात्र द्वारा (द्वा कर इति) = 'तप व दान' रूप दो धर्मों का पालन करते हैं। इसके बाद आनेवाला (कनीयान्) = पहले से छोटा पर [कन दीप्तौ] अधिक दीप्त होनेवाला (आह) = कहता है कि (त्रीन् कृणवाम इति) = 'यज्ञ, तप व दान' इन तीन धर्मों का आचरण करते हैं। [२] (कनिष्ठ:) = सब से छोटा-सब के बाद में आनेवाला सर्वाधिक दीप्त व्यक्ति (आह) = कहता है कि (चतुरः कर इति) = 'स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दान' इन चार को करते हैं। यही तो वस्तुत: चतुष्पाद् धर्म है। हे (ऋभवः) = ऋभुओ ! (वः) = तुम्हारे (तद् वचः) = उस वचन को (त्वष्टा) = [त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्मण: नि०] ज्ञानस्वरूप प्रभु (पनयत्) = प्रशंसित करते हैं। प्रभु के लिए यह ऋभुओं की वाणी प्रिय होती है। 'तप और दान' को अपनाने का निश्चय स्तुत्य है। 'तप व दान के साथ यज्ञ' को सम्मिलित करने का निश्चय स्तुत्यतर है तथा इनके साथ स्वाध्याय को जोड़कर चतुष्पाद् धर्म के पालन का निश्चय स्तुत्यतम हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दान' रूप चतुष्पाद् धर्म के पालन का निश्चय करें। हमारा यह निश्चय हमें प्रभु के लिए प्रिय बनाए ।

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    विषय

    ऋभुओं के बनाये चमसों का रहस्य ।

    भावार्थ

    (ज्येष्ठः) सबसे श्रेष्ठ पुरुष (आह) कहता है कि (द्वा चमसा करः) अर्थ और काम इन ही भोग करने योग्य दो पुरुषार्थों का सम्पादन करो (इति) बस, और (कनीयान्) उससे अधिक दीप्तिमान् पुरुष (आह) कहता है कि (त्रीन् कृणवाम इति) हम लोग धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों का सम्पादन करें। (कनिष्ठः आह) सबसे अधिक दीप्तिमान् तेजस्वी पुरुष कहता है कि (चतुरः करः इति) धर्म, अर्थ काम मोक्ष इन चारों को सम्पादन करो । (त्वष्टा) समस्त विश्व का बनाने वाला, अज्ञान का नाशक तेजस्वी गुरु हे (ऋभवः) सत्य ज्ञान और उत्तम ऐश्वर्य से खूब प्रकाशित, और सामर्थ्य युक्त पुरुषो ! (वः) आप लोगों के (तत् वचः) उस वचन की (पनयत्) प्रशंसा करे । इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामार्थौ धर्म एव च । अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थितिः । मनु० २। २२४॥ बुभुक्षून् प्रत्युपदेशो न मुमुक्षून् । मुमुक्षूणां तु मोक्ष एव श्रेयान् इति षष्ठे चक्ष्यते । इति कुल्लूकभट्टः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ११ त्रिष्टुप् । ३, ६, १० निचृत्त्रिष्टुप। ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । ९ स्वराट् पंक्तिः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बंधूंनी विद्वान बनून परस्पर वार्तालाप करावा. मोठ्याने आज्ञा केली तर छोट्याने आज्ञा पाळावी व जसे छोटा म्हणतो तसे ज्येष्ठाने आचरण करावे. जसे या मंत्रात (कनीयान) हे कर्तृपद एकवचनान्त व (कृणवाम) ही बहुवचनांत क्रिया संगत नसल्यामुळे हे जाणावे. अहंकर्त्या ऐवजी वयंकर्ता ही योजना समजावी. जसे आम्ही परस्पर वार्तालाप करतो, तसे तुम्हीही परस्पर वार्तालाप करावा व ज्या प्रकारे सत्य व प्रशंसित वचन असेल त्याचप्रकारे सर्वांनी बोलले पाहिजे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The eldest of the Rbhus says: Let us make two cups for the drink of soma for the celebration of life’s enlightenment. The younger, more brilliant, says: Let us make three. The youngest, most brilliant, says: Let us make four. Tvashta, the teacher, universal lord maker of forms, O Rbhus, honours and praises these words of yours. (Thus knowledge, science and technology grows from one generation of scholars to another.) The four cups of life may be interpreted as Dharma, righteousness, artha, material goods, ‘kama’, material and mental fulfilment, and Moksha, ultimate purpose of living and ultimate freedom.

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