ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 7
द्वाद॑श॒ द्यून्यदगो॑ह्यस्याति॒थ्ये रण॑न्नृ॒भवः॑ स॒सन्तः॑। सु॒क्षेत्रा॑कृण्व॒न्नन॑यन्त॒ सिन्धू॒न्धन्वाति॑ष्ठि॒न्नोष॑धीर्नि॒म्नमापः॑ ॥७॥
स्वर सहित पद पाठद्वाद॑श । द्यून् । यत् । अगो॑ह्यस्य । आ॒ति॒थ्ये । रण॑न् । ऋ॒भवः॑ । स॒सन्तः॑ । सु॒ऽक्षेत्रा॑ । अ॒कृ॒ण्व॒न् । अन॑यन्त । सिन्धू॑न् । धन्व॑ । आ । अ॒ति॒ष्ठ॒न् । ओष॑धीः । नि॒म्नम् । आपः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वादश द्यून्यदगोह्यस्यातिथ्ये रणन्नृभवः ससन्तः। सुक्षेत्राकृण्वन्ननयन्त सिन्धून्धन्वातिष्ठिन्नोषधीर्निम्नमापः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठद्वादश। द्यून्। यत्। अगोह्यस्य। आतिथ्ये। रणन्। ऋभवः। ससन्तः। सुऽक्षेत्रा। अकृण्वन्। अनयन्त। सिन्धून्। धन्व। आ। अतिष्ठन्। ओषधीः। निम्नम्। आपः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
यद्ये ससन्त ऋभवो यथाऽऽपः सिन्धून् धन्वौषधीर्निम्नमातिष्ठँस्तथाऽगोह्यस्याऽऽतिथ्ये द्वादश द्यून् रणन्त्सुक्षेत्राऽकृण्वन्त्सुखान्यनयन्त ते मङ्गलप्रदाः सन्ति ॥७॥
पदार्थः
(द्वादश) (द्यून्) दिनानि (यत्) ये (अगोह्यस्य) असंवृतस्य (आतिथ्ये) अतिथीनां सत्कारम् (रणन्) उपदिशन्तु (ऋभवः) मेधाविनः (ससन्तः) शयाना उत्थाय (सुक्षेत्रा) शोभनानि क्षेत्राणि (अकृण्वन्) कुर्वन्ति (अनयन्त) नयन्ति (सिन्धून्) नदीन् समुद्रान् वा (धन्व) अन्तरिक्षम् (आ) (अतिष्ठन्) तिष्ठन्ति (ओषधीः) (निम्नम्) (आपः) जलानि ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वांसो यथा शयानान् प्रबोद्ध्य जागरयन्ति तथैवाऽविद्यान्त्संशिक्ष्य विदुषः कृत्वाऽऽनन्दयन्तु ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(यत्) जो (ससन्तः) सोते हुए उठकर (ऋभवः) बुद्धिमान् जन जिस प्रकार से (आपः) जलों और (सिन्धून्) नदी वा समुद्रों (धन्व) तथा अन्तरिक्ष और (ओषधीः) ओषधियों के (निम्नम्) नीचे (आ, अतिष्ठन्) स्थित होते हैं, वैसे (अगोह्यस्य) अगुप्त के (आतिथ्ये) आतिथ्य में अर्थात् अतिथिसम्बन्धी सत्कार में (द्वादश) बारह (द्यून्) दिन (रणन्) उपदेश देवें तथा (सुक्षेत्रा) सुन्दर स्थानों को (अकृण्वन्) करते और सुखों को (अनयन्त) प्राप्त होते हैं, वे मङ्गल देनेवाले हैं ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् जन जैसे सोते हुओं को चेताय के जगाते हैं, वैसे ही अविद्वानों को उत्तम शिक्षा दे विद्वान् करके आनन्द देवें ॥७॥
विषय
प्रभु का आतिथ्य
पदार्थ
[१] सूर्य एक-एक राशि में से गुजरता हुआ एक-एक मास का निर्माण करता है। इस सूर्य की गति से १२ मासों का निर्माण होता है। यहाँ उन्हें 'द्यु' [द्यु गतौ] शब्द से स्मरण किया गया है । (यद्) = जब (ऋभवः) ='ऋभु, विभ्वा और वाज' ज्ञानदीप्त, विशाल हृदय, शक्तिशाली पुरुष (द्वादश द्यून्) = बारहों मास (अगोह्यस्य) = जिनका सर्वव्यापकता के कारण संवरण नहीं किया जा सकता, उन प्रभु के (अतिथ्ये) = अतिथ्य में-पूजन में (ससन्तः) = निवास करते हुए (रणन्) = आनन्द का अनुभव करते हैं, तो (सुक्षेत्रा अकृण्वन्) = अपने क्षेत्रों को बड़ा उत्तम बनाते हैं। शरीर ही क्षेत्र है 'इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते'। प्रभु का पुजारी कामवासना से आक्रान्त नहीं होता, परिणामतः शरीररूप क्षेत्र बड़ा उत्तम बना रहता है। शरीर की शक्तियों को यह वासना ही जीर्ण करती है न वासना होती है, न शक्तियों का ह्रास। [२] केवल शरीर ही स्वस्थ बना रहे, ऐसी बात नहीं। ये प्रभु का आतिथ्य करनेवाले ऋभु (सिन्धून्) = ज्ञानप्रवाहों को (अनयन्त) = अपने अन्दर प्राप्त कराते हैं। इनके ज्ञान प्रवाह ठीक प्रकार से चलते हैं। प्रभु के आतिथ्य के परिणामस्वरूप जीवन में ऐसा परिवर्तन आ जाता है कि मानो (धन्व) = मरुस्थल में भी (ओषधी:) = ओषधियाँ तथा (निम्नं आप:) = [निम्न = Deep] गहरे जल (अतिष्ठन्) = स्थित हो जाते हैं। कहाँ मरुस्थल और कहाँ लहलहाते खेत । प्रभु का आतिथ्य जीवन को कुछ का कुछ बना देता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का पुजारी उत्तम शरीर व उत्तम ज्ञानप्रवाहोंवाला बनता है।
विषय
सूर्य की किरणों के तुल्य विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार से (अगोह्यस्य आतिथ्ये) प्रत्यक्ष प्रकाशमान् सूर्य के आधिपत्य में (ससन्तः ऋभवः) विद्यमान प्रकाश की किरणें (द्वादश द्यून् रणन्) १२ हों मास रौनकदार बनाते हैं, (सुक्षेत्रा अकृण्वन्) खेतों को उत्तम कर देते हैं, (सिन्धून् अनयन्) जलधाराएं प्राप्त कराते हैं, और जिस प्रकार (धन्व ओषधीः अतिष्ठन्) स्थल में ओषधियां और (निम्नम् आपः) नीचे भाग में जल चले जाते हैं उसी प्रकार (ऋभवः) सत्य ज्ञान, ऐश्वर्य और बड़े विक्रम तेज से प्रकाशित होने वाले या बहुसंख्यक विद्वान् जन, (अगोह्यस्य) सूर्यवत् तेजस्वी, चिरकाल तक अप्रकट रूप से न रह सकने वाले स्वयं अपने गुणों से प्रकाशमान पुरुष के (आतिथ्ये) अतिथिवत् आदर सत्कार में वा आधिपत्य में (ससन्तः) सुख से रहते हुए (द्वादश द्यून्) १२ मास के दिनों में (रणन्) आनन्द प्रसन्न हों, (सुक्षेत्राणि) उत्तम २ क्षेत्र (अकृण्वन्) बनावें । उनमें (सिन्धून्) जल प्रवाहों को (अनयन्त) ले जावें, (धन्व) स्थल भाग पर (ओषधीः) अन्नादि ओषधियें (अतिष्ठन्) खड़ी हों और ( आपः निम्नम् ) गहरे तालाब आदि स्थान में जल जमा रहें (२) अध्यात्म में—जिसको ढांप न सके ऐसा अपरिमित प्रभु ‘अगोह्य’ है। ऋभु जीव उसके पूजा सत्कार में १२ हों मास प्रसन्न होकर सुख से रहते हैं, वे स्तुति प्रार्थना व ज्ञानविद्या का अभ्यास करें । अपने उत्तम आत्मा वा देहों को प्राप्त करें, जन्म सफल करें, (सिन्धून्) प्राणों को और नाड़ियों को व्यवस्था में रक्खें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ११ त्रिष्टुप् । ३, ६, १० निचृत्त्रिष्टुप। ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । ९ स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान लोक जसे निद्रिस्तांना जागृत करतात, तसेच अविद्वानांना उत्तम शिक्षण देऊन विद्वान करून आनंद द्यावा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When the scholars and sages of the science of yajna remain on holiday for twelve days in the years, resting and refreshing themselves, enjoying the hospitality of a prominent host, then the sky is overcast, the showers pour, fields are made fertile, the rivers flow and vegetation grows on barren lands, (and this by rain yajna).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of scholar is re-emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The intelligent persons who are awakened from the lethargy are capable to attain water resources, harness rivers or oceans, make a flight in the sky and get medicines under their control. They should deliver sermons for twelve or more days in order to disclose the general pattern of behavior. In fact, such people make the spots of sermons beautiful and people happy. In fact, they are the real benefactors.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. The learned persons awaken the dormant qualities of the human beings. Same way the others should educate illiterates and make them learned in order to seek happiness.
Foot Notes
(धून् ) दिनानि । = The days. (अगोह्यस्य) असंवृतस्य । = Not secret, uncovered general pattern. (ससन्त:) शयाना उत्थाय ! = Awakened from the lethargy. (सुक्षेत्रा) शोभनानि क्षेत्राणि । = Beautiful spots (अनयन्त ) नयन्ति । = Harness (सिन्धून् ) नदीन् समुद्रान् वा । = The rivers or oceans. (धन्व ) अन्तरिक्षम् । = Flight in the sky.
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