ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
अ॒यं वो॑ य॒ज्ञ ऋ॑भवोऽकारि॒ यमा म॑नु॒ष्वत्प्र॒दिवो॑ दधि॒ध्वे। प्र वोऽच्छा॑ जुजुषा॒णासो॑ अस्थु॒रभू॑त॒ विश्वे॑ अग्रि॒योत वा॑जाः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । वः॒ । य॒ज्ञः । ऋ॒भ॒वः॒ । अ॒का॒रि॒ । यम् । आ । म॒नु॒ष्वत् । प्र॒ऽदिवः॑ । द॒धि॒ध्वे । प्र । वः॒ । अच्छ॑ । जु॒जु॒षा॒णासः॑ । अ॒स्थुः॒ । अभू॑त । विश्वे॑ । अ॒ग्रि॒या । उ॒त । वा॒जाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं वो यज्ञ ऋभवोऽकारि यमा मनुष्वत्प्रदिवो दधिध्वे। प्र वोऽच्छा जुजुषाणासो अस्थुरभूत विश्वे अग्रियोत वाजाः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। वः। यज्ञः। ऋभवः। अकारि। यम्। आ। मनुष्वत्। प्रऽदिवः। दधिध्वे। प्र। वः। अच्छ। जुजुषाणासः। अस्थुः। अभूत। विश्वे। अग्रिया। उत। वाजाः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे ऋभवो ! विद्वद्भिरयं वो यज्ञोऽकारि यं मनुष्वद् यूयं दधिध्वे। ये प्रदिवो वोऽच्छा जुजुषाणासः प्रास्थुरुतापि विश्व अग्रिया वाजा ये भवेयुस्तान् यूयं प्राप्ता अभूत ॥३॥
पदार्थः
(अयम्) (वः) युष्माकम् (यज्ञः) अध्यापनोपदेशाख्यः (ऋभवः) (अकारि) क्रियते (यम्) (आ) (मनुष्वत्) मननशीलविद्वद्वत् (प्रदिवः) प्रकर्षेण विद्यादिसद्गुणान् कामयमानान् (दधिध्वे) धरत (प्र) (वः) युष्मान् (अच्छा) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (जुजुषाणासः) भृशं सेवमानाः (अस्थुः) तिष्ठन्तु (अभूत) भवत (विश्वे) सर्वे (अग्रिया) अग्रे भवाः (उत) अपि (वाजाः) सत्कर्मसु वेगाः ॥३॥
भावार्थः
हे धीमन्तो विद्यार्थिनो ! ये युष्मभ्यं विद्यां प्रयच्छेयुस्तान्निष्कपटेन प्रीत्या सेवध्वं जितेन्द्रिया भूत्वा यथार्थविद्यां प्राप्नुत ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (ऋभवः) बुद्धिमानो ! विद्वानों से जो (अयम्) यह (वः) आप लोगों का (यज्ञः) पढ़ाना और उपदेश करना रूप यज्ञ (अकारि) किया जाता है (यम्) जिसको (मनुष्वत्) विचार करनेवाले विद्वानों के सदृश आप लोग (दधिध्वे) धारण करो और जो (प्रदिवः) अतिशय विद्या आदि उत्तम गुणों की कामना करते हुए (वः) आप लोगों की (अच्छा) उत्तम प्रकार (आ, जुजुषाणासः) अत्यन्त सेवा करते हुए (प्र, अस्थुः) उत्तम स्थित हूजिये (उत) और (विश्वे) सम्पूर्ण (अग्रिया) प्रथम उत्पन्न हुए (वाजाः) श्रेष्ठ कर्म्मों में वेग जो होवें, उनको आप लोग प्राप्त (अभूत) हूजिये ॥३॥
भावार्थ
हे बुद्धिमान् विद्यार्थी जनो ! जो आप लोगों के लिये विद्या देवें, उनकी कपटरहित प्रीति से सेवा करो और जितेन्द्रिय होकर यथार्थ विद्या को प्राप्त होओ ॥३॥
विषय
जीवन-यज्ञ की साधना
पदार्थ
[१] हे (ऋभवः) = ज्ञानदीप्त पुरुषो! (अयम्) = यह जीवन (वः) = आपके द्वारा (यज्ञः अकारि) यज्ञ बना दिया जाता है। जीवन को आप यज्ञ का रूप दे देते हो । (यम्) = जिस जीवन यज्ञ को (प्रदिवः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले आप (मनुष्वत्) = एक समझदार व्यक्ति की तरह (आदधिध्वे) = धारण करते हैं। इस जीवनयज्ञ को आप बड़ी कुशलता से पूर्ण करने का प्रयत्न करते हैं। आप कर्मों में कुशलता को ही योग समझते हैं। [२] इसीलिए आप सोमरक्षण का भी पूरा ध्यान करते हैं। ये सोमकण (वः) = अच्छा आपकी ओर (प्र अस्थुः) = प्रस्थित होते हैं आप के शरीर में ही व्याप्त होते हैं। ये सोमकण (जुजुषाणासः) = प्रीतिपूर्वक आपका सेवन करनेवाले होते हैं। इसीलिए आप (विश्वे) = सब (अग्रिया) = अग्रगति-उन्नति के सिद्ध करनेवाले (उत) = और (वाजा:) = शक्ति सम्पन्न (अभूत) = होते हो । सोमरक्षण से ही सब उन्नति व शक्ति प्राप्त होती है ।
भावार्थ
भावार्थ- ऋभु जीवन-यज्ञ को बड़ी समझदारी से पूर्ण करते हैं। सोमरक्षण द्वारा उन्नति व शक्ति का साधन करते हैं।
विषय
विद्वानों और शिल्पज्ञों के कर्त्तव्य
भावार्थ
हे (ऋभवः) सत्य ज्ञान से प्रकाशित होने और बड़ा वाले विद्वान् पुरुषो ! (वः) आप लोगों का (अयम्) यह (यज्ञः) परस्पर विद्या ऐश्वर्यादि का दान-प्रतिदान, सत्संग, मैत्री और ईश्वरोपासना आदि (अकारि) किया जावे (यम्) जिसको आप लोग स्वयं (प्रदिवः) सदा वा उत्तम ज्ञान-प्रकाश उत्तम कामना और व्यवहारों से युक्त होकर से (मनुष्वत्) मननशील पुरुष के तुल्य (आ दधिध्वे) सब प्रकार से धारण करो। हे (वाजाः) ज्ञानैश्वर्य बलों से युक्त पुरुषों ! (वः) आप लोगों में से जो उस यज्ञ को (अच्छ) उत्तम रीति से आदरपूर्वक (जुजुषाणासः) प्रेम पूर्वक सेवन और स्वीकार करते हुए (प्र अस्थुः) उन्नति की ओर बढ़ते हैं (विश्व) वे सभी (अग्रिया उत वाजाः अभूत) अग्र, मुख्य पद के योग्य हो जाते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप । ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप् । ३,११ स्वराट् पंक्तिः । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे बुद्धिमान विद्यार्थ्यांनो! जे तुमच्यासाठी विद्या देतात त्यांच्याशी कपट न करता सेवा करा व जितेन्द्रिय बनून यथार्थ विद्या प्राप्त करा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Rbhus, this yajna is enacted for you which, come and take over like the best of men inspired with the bright light of knowledge and expertise. Friends and devotees would stand by you, and you would be the front leaders of the world at the speed of winds.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of genius persons is further highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O genius persons ! the way you perform Yajnas i. e. teaching and preaching and act with foresight, that creates an urge in you to secure learning and fine virtues. Thus you should hold a good position while serving others. Moreover you should always stand first in the performance of good acts speedily.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O intelligent students ! you should serve faithfully to your teachers who impart you the knowledge sincerely. By observing a disciplined and controlled life, you should attain the learning.
Foot Notes
(मनुष्वत्) मननशील विद्द्द्द्त् । = The learned men devoted to deep study. (प्रदिवः) प्रकर्षेण विद्यादिसद्गुणान् कामयमानान् । = One who has secured intense learning and virtues. (जुजुषाणासः ) भृशं सेवमानाः । = Serving. (अग्रिया) अग्रे भवाः । = Standing first.
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